कोई गुर बिन ग्यान न पावै रे
koi gur bin gyan na pawai re
कोई गुर बिन ग्यान न पावै रे।
कहा भयो पढ़ि जग परमोधे, फिरि माया सू मन लावै रे॥
च्यारि षष्ट अष्टादस साधे, अरथ बहौत बनावै रे।
लोभ-मोह पांचा बसि प्रगट, कहँ हरि सुख निज न आवै रे॥
गीता अरथ भामोत बखानै, बहुत दुनी भरमावै रे।
मांहि सांच सो दीसें नाहीं, सब झूठ ही झूठ बतावै रे॥
नाभि नासिका बीचि तहाँ सुख, मन कूँ उलटि न ल्यावै रे।
जन 'सेवादास' पढ्या क्या होवै, फिरि बिपति नदी बहि आवै रै॥
- पुस्तक : निरंजनी संप्रदाय और संत तुलसीदास निरंजनी (पृष्ठ 193)
- संपादक : भगीरथ मिश्र
- रचनाकार : सेवादास
- प्रकाशन : लखनऊ विश्वविद्यालय
- संस्करण : 1964
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