तू प्रभ दाता दानि मति पूरा हम थारे भेखारी जीउ।
मै किआ मागउ किछु थिरु न रहाई हरि दीजै नामु पिआरी जीउ॥
घटि घटि रवि रहिआ बनवारी।
जलि थलि महीअलि गुपतो वरतै गुर सबदी देखि निहारी जीउ॥ रहाउ॥
मरत पइआल अकासु दिखाइओ गुरि सतिगुरि किरपा धारी जीउ।
सो ब्रह्मु अजोनी है भी होनी घट भीतर देखु मुरारी जीउ॥
जनम मरन कउ इहु जगु बपुड़ो इनि दूजै भगति विसारी जीउ।
सतिगुरु मिलै त गुरमति पाईऐ साकत बाजी हारी जीउ॥
सतिगुर बंधन तोड़ निरारे बहुड़ि न गरभ मझारी जीउ।
नानक गिआन रतनु परगासिआ हरि मनिवसिआ निरंकारी जीउ॥
हे प्रभु! तू दाता है और दान-बुद्धि से परिपूर्ण है। मैं तुम्हारे द्वार का भिखारी हूँ प्रभूजी। मैं तुमसे क्या माँगूं क्योंकि सब कुछ नश्वर-अस्थायी है। हे प्रभु, कृपा करके मुझे नाम-स्मरण (भक्ति) दीजिए। परमात्मा घट-घट में रमा हुआ है। वह तो जल-स्थल एवं धरती पर परोक्ष रूप में वर्तमान रहता है। सद्गुरु-शब्द से, अंतर्दृष्टि उद्घाटित करके परमात्मा के दर्शन किए जा सकते हैं।
सद्गुरु, पाताल (गर्त) में गिरे हुए को भी आकाश की ओर उन्मुख कर देता है, अर्थात श्वास-चेतना से भर देता है। वह अपने विवेक से बताता है कि ब्रह्म-सत्ता अनियोजित (अजन्मी) होती है। वह कभी अवतार नहीं लेती। उस मुरारी के दर्शन अपनी आत्मा (घट) में ही कर सकते हैं।
यह बेचारा संसार जन्म-मरण का स्थल मात्र है। इस संसार में आकर लोग दुविधा के कारण, भक्ति-साधना को भुला देते हैं। सद्गुरु कृपा से विचार की प्राप्ति संभव होती है। जो शाक्त अर्थात द्वैत पर आधारित साधना करते हैं, वे जीवन का अवसर खो देते हैं।
सद्गुरु चेतना को बंधन-मुक्त कर, अनासक्त करता है, जिससे जीव को पुनः गर्भवास में नहीं आना पड़ता। गुरु नानक कहते हैं कि गुरु-कृपा से रत्न स्वरूप बहुमूल्य ज्ञान प्रकाशित होता है और निरंकार स्वरूप परमात्मा जीव के हृदय में निवास करता है।
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 223)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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