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धृगु जीवणु दोहागणी मुठी दूजै भाइ

dhrigu jiiva.na.u dohaaga.na.ii muThii duujai bhaa.i

गुरु नानक

गुरु नानक

धृगु जीवणु दोहागणी मुठी दूजै भाइ

गुरु नानक

और अधिकगुरु नानक

    धृगु जीवणु दोहागणी मुठी दूजै भाइ।

    कलर केरी कंध जिउ अहिनिसि किरि ढहि पाइ॥

    बिनु सबदै सुखु ना थीऐ पिर बिनु दूखु जाइ॥

    मुंधे पिर बिनु किआ सीगारु।

    दरि घरि ढोई ना लहै दरगह झूठ खुआरु॥ ॥रहाउ॥

    आपि सुजाण भुलई सचा वड किरसाणु।

    पहिला धरती साधि कै सचु नामु दे दाणु॥

    नउ निधि उपजै नामु एकु करमि पवै नीसाणु॥

    गुर कउ जाणि जाणई किआ तिसु चजु अचारु।

    अंधुलै नामु विसारिआ मनमुखि अंध गुबारु॥

    आवणु जाणु चुकई मरि जनमै होइ खुआरु॥

    चंदनु मोलि अणाइआ कुंगू मांग संधूरु।

    चोआ चंदनु बहु घणा पाना नालि कपूरु॥

    जे धन कंति भावई सभि अडंबर कूड़ु॥

    सभि रस भोगण बादि हहि सभि सीगार विकार।

    जब लगु सबदि भेदीऐ किउ सोहै गुरदुआरि॥

    नानक धंनु सुहागणी जिन सह नालि पिआरु॥

    उस) दोहागिनी (पति में बिछुड़ी हुई) के जीवन को धिक्कार है, जो द्वैतभाव (के कारण) नष्हो जाती है। जिस प्रकार लोने की दीबाल रात-दिन ढह ढहकर गिर पड़ती है, (उसी प्रकार) दोहागिनी स्त्री कुढ कुढ़कर नष्ट हो जाती है)। बिना शब्द (नाम) के सुख नही होता (और) बिना प्रियतम के दुःख नहीं जाता।

    हे मुग्धे, (भ्रमित स्त्री) प्रियतम के बिना शृंगार कैसा? (हे स्त्री) घर के दरवाजे में तुम प्रवेश नहीं पा सकती, (क्योंकि) झूठा (परमात्मा के) दरवाजे पर नष्ट हो जाता है।

    वह चतुर स्वयं नहीं भूलता, वह सच्चा, बहुत बड़ा किसान है। पहले वह जमीन तैयार कर सच्चेनाम का बीज (उगने के लिए) बोता है। नाम के एक (बीज) से नव निद्धियाँ उत्पन्न होती है; (परमात्मा की) कृपा द्वारा (प्रमाणिकता का) चिह्र लगता है।

    जो (बुद्धिमान) जान कर भी गुरु को नहीं जानता, उसकी बुद्धिमानी है और क्या आचार है? उस अंधे का नाम भुला दिया, वह मनमुख घनघोर अंधकार (में है)। उसका आचार है? उसका आना-जाना समाप्त नहीं होता, वह (बार-बार) जन्मता-मरता रहता है और बरबाद हो जाता है।

    चंदन मोल मँगाया गया, माँग के लिए केशर और सिंदूर (प्रयोग में लाए गए)। चोआ-चंदन (आदि सुगंधित द्रव्य भी) अधिकता के (लगाए गए) और पान के साथ कपूर भी (खाया गया)। (इतना सब शृंगार करने पर भी) यदि स्त्री पति को प्रिय नहीं लगती, तो (सारे शृंगार) आडंबरयुक्त और मिथ्या है।

    सभी रसो का भोगना व्यर्थ है और सारे शृंगार भी निर्थक है। जब तक वह (गुरु के) शब्द के साथ बिंघ नहीं जाती, तब कर वह गुरु के दरवाजे पर कैसे शोभा पा सकती है? नानक कहते हैं वे ही सुहागिनी धन्य है, जिनका पति के साथ प्रेम है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 152)
    • संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
    • रचनाकार : गुरु नानक
    • प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
    • संस्करण : 2003

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