भांडा धोइ बैसि धूपु देवहु तउ दूधै कउ जावहु।
दूधु करम फुनि सुरति समाइणु होइ निरास जमावहु॥
जपहु त एको नामा। अवर निराफल कामा॥ रहाउ॥
इहु मनु ईटी हाथि करहु फुनि नेत्रउ नीद न आवै।
रसना नामु जपहु तब मथीऐ इन बिधि अंमृत पावहु॥
मनु संपटु जितु सतसरि नावणु भावन पाती तृपति करे।
पूजा प्राण सेवकु जे सेवे इन्ह बिधि साहिबु रवतु रहै॥
कहदे कहहि कहे कहि जावहि तुम सरि अवरुन कोई।
भगतिहीणु नानकु जनु जंपै हउ सालाही सचा सोई॥
बर्तन धोकर बैठकर (उससे) धूप दो, तब फिर दूध लेने के लिए जाओ। (भावार्थ यह है कि मन को पवित्र करके रोको, तभी शुभ काम का संपादन हो सकता है)। (शुभ) कर्म दूध है, फिर सुरति (दूध जमाने का) जमान है, (संसार से) निष्काम होकर (दूध) जरमाओ।
एक (परमात्मा) के ही नाम का जप करो। अन्य कार्य निषफल है।
इस मन को (नेती में बाँधने की) गुल्ली बनाकर हाथ में पकड़ो। (अविद्या में) नींद न आना ही (मथानी की) नेती हो, जिह्वा से नाम जपना ही, (दही) मथना हो, इस विधि (दही मथ कर) मक्खन रूपी अमृत प्राप्त करो।
मन को (परमात्मा के रखने का) संपुट (डिब्बा) बनावे, (और उसे) सत्संग रूपी नदी में स्नान करावे, भाव (श्रद्धा, प्रेम) को पत्र चढ़ावे और (परमात्मा को) तृप्त करे। प्राण तक देकर जो सेवक सेवा-रूपी पूजा करे तो, वही इन विधियो से साहब (परमात्मा) के साथ रमण करता रहेगा।
कथन करने वाले (तेरी महिमा का) कथन करते है और कथन करते करते (इस संसार से) चले जाते है, (किंतु तेरी महिमा का पार नहीं पाते)। (हे प्रभु), तेरे समान कोई दूसरा नहीं है। हे नानक, भक्ति से रहति दास विनती करता है कि मैं सच्चे (परमात्मा की ही स्तुति करता रहूँ।
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 237)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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