अकथ कहांणीं प्रेम की
Akath kahanni prem ki
अकथ कहांणीं प्रेम की, कछू कही न जाई।
गूंगे केरी सरकरा, बैठे मुसकाई॥
भोमि बिनां अरु बीज बिन, तरवर एक भाई।
अनंत फल प्रकासिया, गुर दिया बताई॥
मन थिर बैसि बिचारिया, रांमहि ल्यौ लाई।
झूठी अनभै बिस्तरी, सब थोथी बाई॥
कहै कबीर सकति कछु नांही, गुर भया सहाई।
आंवण जांणी मिटि गई, मन मनहि समाई॥
- पुस्तक : कबीर-ग्रंथावली (पृष्ठ 139)
- संपादक : श्यामसुंदरदास
- रचनाकार : कबीर
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस, प्रयाग
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