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अब मेरे पति-गति देव निरंजन

ab mere pati gati dew niranjan

आनंदघन

आनंदघन

अब मेरे पति-गति देव निरंजन

आनंदघन

और अधिकआनंदघन

    अब मेरे पति-गति देव निरंजन।

    भटकूँ कहाँ, कहाँ सिर पटकूँ, कहा करूँ जन-रंजन॥

    खंजन-दृग सों दृग लगाऊँ, चाहुँ चितवन अंजन।

    संजन घट अंतर परमातम, सकल दुरित-भय-भंजन॥

    एह काम-गति, एह काम-घट, एही सुधारस-मंजन।

    ‘आनँदघन’ प्रभु घट-बन-केहरि, काम-मत्त-गज-गंजन॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : कल्याण पत्रिका (संतबानी अंक) (पृष्ठ 201)
    • संपादक : हनुमान प्रसाद पोद्दार
    • रचनाकार : आनँदघन
    • प्रकाशन : गीता प्रेस गोरखपुर
    • संस्करण : जनवरी 1955

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