कुँए की जगत पर औरतों की भीड़ लगी थी—मलिन-वसना, जर्जरित-यौवना, श्रम-व्यस्त। ये औरतें किसी और सामाजिक व्यवस्था में जवान होतीं। लेकिन बीस-पच्चीस वर्ष की रहते भी दोपहरी उनकी ढल-सी चुकी थी—घोर श्रम और जीवन में कोई अन्य रस न होने से लगातार कमज़ोर, अल्पायु संतान जनने के कारण। उनका कर्कश स्वर कौओं के स्वर से मिल वायु में गूँज उठा।
पोखर का रंग सुनहले सूर्य की रश्मियों से लाल-पीला हो उठा और दुर्गंध उस समय मानो दब-सी गई। पोखर के किनारे धोबिनें कपड़े इकट्ठे कर रही थीं। उन्होंने मुड़कर एक बार भी पोखर के इस रूप को न देखा। पोखर के किनारे मैल जमा था, और अब फिर अँधेरा होते ही लोटा लेकर एकांत खोजने लोग चल दिए।
पोखर के पीछे एक भारी टीला था। इसी की आड़ में सुबह-शाम अनेक एकांतवासी शरण लेते थे। टीले के पीछे ज़मींदार का बड़ा भारी, क़रीब मील-भर की परिधि का बाग़ था। शाम की कोमल वायु में पेड़ों के पत्ते मंद-मंद हिल उठे लेकिन अमरूदों पर बैठने वाले कौओं को उड़ाने के लिए मालियों ने टीन बजाकर और चीख़कर एक कोलाहल मचा दिया।
दूर सरसों और गन्नों के खेतों के पीछे सूर्य डूबने लगा था। किसान अँधेरे की आशंका से अलाव को तेज़ कर बैलों को जल्दी-जल्दी हॉक रस निकाल रहे थे।
हवा तेज़ होने पर मानो धूल गाँववालों के फेफड़ों में पहुँचा देती। शाम होते ही गाँव भर ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगता। यह खाँसी एक बार शुरू होकर फिर रुक ही न सकती। रात भर गाँव में कुत्तों के भौंकने के साथ चित्र-विचित्र खाँसी का स्वर मिला रहता।
बूढ़ों की खाँसी, बेदम धौंकनी की तरह, जिसका आदि तो सुन पड़ता है लेकिन अंत नहीं, जिसका स्वर फुसकार कर रह जाता है, किसी पुरानी मशीन की तरह जो कराह-कराह कर चलती है। जवानों की खाँसी, सबल सशक्त जो मानो उनके फेफड़ों को बाहर निकाल फेंकने के लिए अधीर हो उठी हो। औरतों की खाँसी, जिसका स्वर अंदर ही अंदर घुटकर रह जाता था और घूँघट की लज्जा के भीतर अपने प्राण छुपा न सकता था। बच्चों की खाँसी जो कानों में इतनी भर चुकी थी कि उसकी पीड़ा का हृदय पर कोई असर न पड़ता था। दुधमुँहों की खाँसी जिसका निर्बल आर्त स्वर हल्का सा उठता और कान के पर्दे पर सुई की तरह भुकता। शाम होते ही यह स्वर गाँव के अन्य स्वरों में मिल जाते और रात भर सन्नाटे के प्रसार में चक्कर काटते थे।
इन खाँसने वालों में भूरी की खाँसी सबसे विकट थी। खाँसी के कारण भूरी रात भर न सो पाती। ग्राम-सुधार वाले उसे उल्टी-सीधी गोलियाँ दे जाते, इन्हीं को बड़े यत्न से संचित कर वह अपने जीवन की यात्रा काटने की आशा कर रही थी। भूरी तेलिन थी। उसका बेटा भोजा और पोता भी मशक्कत से काम करते थे, लेकिन भूरी को सुख न था। अब वह काम करने लायक न थी, अतः घर में उसकी दूर-दूर होने लगी थी। भूरी का शरीर रोगों का घर था। सुनते हैं, जवानी में उसका चरित्र ख़राब था, एक बार डर से उसने तेजाब पी लिया था। जान तो उसकी बच गई, लेकिन जैसे उसकी देह को घुन लग गया हो। शाम होते ही भूरी अपनी देहरी पर बैठ खाँसने लगती और सुनने वालों से बहू बेटों की बुराई करती।
शाम होने पर एक दूसरी तेलिन बुढ़िया अपनी अल्पवयस्क बहू को—जो घूँघट के कारण पग भर बिन सहारे न चल सकती थी खेतों की ओर लेकर चली। रास्ते में शरारती लड़के 'कोड़ा जमाल शाही' खेल रहे थे। एक अचकचा कर बहू से लड़ गया और वह गिर पड़ी। बुढ़िया ने लाठी इधर-उधर बरसानी शुरू की और साथ साथ माँ-बहिन की कर्कश अश्लील गालियों की बौछार। पलक मारते उन खिलाड़ी लड़कों का दल जादू के महल के समान न जाने कहाँ बिला-गया।
किसान खेतों से लौटने लगे थे। कुछ बैल खोल कर हुक्का पी रहे थे और खाँस रहे थे। गाँव में एक बैरागी भी था, जिसका एक टूटा-फूटा घर तो था, लेकिन और कोई संग-सहारा नहीं। पास के गाँवों से वह भीख माँग लाता था और उसी से गुज़र करता था। आज शाम को उसके पास कुछ आटा था, लेकिन दाल, साग कुछ नहीं, चटनी तक भी नहीं। उसने नमक से लगा-लगाकर रोटी खानी शुरू की। इस गाँव के बहुत से किसान भी सिर्फ़ नमक के सहारे रोटी सटकते थे। उनके पास न तो अपने खेतों, न पौहे। मट्ठा तक उन्हें नसीब न होता था। खाना खाकर बैरागी घर से निकला और किसानों के साथ बैठ दम खींचने लगा। वह सख़्त नाराज़ था—
ज़मींदार के लोग मुझे चोर कहते है। मैं चोर हूँ, चोर। किसी के घर से कुछ उठ जाए, बैल भटक जाए, बहली की रस्सी कट जाए, दोष बैरागी का। मेहनत मशक्कत करके खाता हूँ, किसी के घर का नहीं।
रामसिंह को हँसी आई—हाँ, भइया, मेहनत तुम करते हो, मुफ़्त का तो मैं खाता हूँ। देखो न, शरीर फूल गया है। रामसिंह गाँव का बड़ा मेहनती लेकिन सबसे कमज़ोर किसान था।
दूसरे ने कहा—रात को नहर दो बजे खुलेगी। हमारे खेतों का नंबर है। जागते ही रहेंगे।
बैरागी बोला—आज रात आल्हा होने दो। यूँ ही दो बज जाएँगे।
अँधेरा हो चुका था। कुएँ पर कोई इक्का-दुक्का ही रह गया था। इस घोर अंधकार में केवल बैलों के जबड़े चलने का स्वर, भूरी का खाँसना, कुत्तों का भूकना और किसी चिलम अथवा अलाव की सुलगती आग प्रकाश के बिंदु थे। ज़मींदार की पौरी पर ज़ोर की चुहल थी। शायद कुछ लोग शिकार खेलने बाहर से आए थे। कुछ देर बाद बैरागी का सधा स्वर हवा में गूँज उठा—
बड़े लड़ैया मोहबे वारे,
जिनकी गज भर की तरवार।
- पुस्तक : रेखाचित्र
- रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
- प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग
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