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वे कैसे जीते हैं?

We Kaise Jeete Hain?

श्रीराम शर्मा 'राम'

श्रीराम शर्मा 'राम'

वे कैसे जीते हैं?

श्रीराम शर्मा 'राम'

और अधिकश्रीराम शर्मा 'राम'

    युक्तप्रांत के एक प्रसिद्ध नगर में, एक दिन बयासी वर्ष के एक वृद्ध अपने डेढ़ वर्ष के पोते को लेकर द्वार पर बैठे थे। बच्चा हँस-हँस कर दादा की नाक और मूछें पकड़ने की कोशिश करता। प्रेम-विह्वल बूढ़े दादा अपने सिर को हिला-हिलाकर बच्चे की ओर ले जाते। जन्म और मरण की सीमाएँ मिली हुई हैं और बुढ़ापे और बालपन की सीमाएँ भी मिलती हैं। दुधपिया नाती और बूढ़े दादा का मिलन बाल रवि और डूबते सूरज के समन्वय का दृश्य पैदा कर रहा था।

    दादा बच्चे को खिलाने में तन्मय थे कि एक आगंतुक ने पूछा— “कक्का, बेटे की अपेक्षा दादा को नाती से अधिक प्रेम क्यों होता है?”

    बूढ़े ने कहा—“यह तो सीधी-सी बात है। बनिए को असल की अपेक्षा ब्याज से अधिक मोह होता है। असल तो सुरक्षित है ही, ब्याज की वृद्धि से बनिया सुखी हो...”

    वाक्य ख़त्म भी हो पाया था कि टन-टन-टन की आवाज़ करती साइकिल दरवाज़े पर खड़ी हुई “कक्का, अपना तार लो,”— कहते हुए हरकारे ने तार का लिफ़ाफ़ा बूढ़े दादा को दिया। बूढ़े दादा ‘असल तो सुरक्षित है ही’ की भावना में पगे तार को लेकर उठे। नाती उनके गले से चिपटा था, जैसे छौआ अपनी माँ से चिपट जाता है।

    बूढ़े दादा पड़ोस में एक महाशय से तार पढ़वाया। तार को पढ़कर पड़ोसी घबरा गया; पर उसने बनावटी विस्मय से कहा—“कक्का, तार तो पढ़ा नहीं जाता। जाने क्या लिखा है?”

    नाती को पुचकारते और दबदोरते हुए वृद्ध महाशय दो और पड़ोसियों के पास पहुँचे; पर उन्होंने भी बूढ़े को तार का मज़मून बताने में टाल-मटोल की।

    झल्लाते हुए वृद्ध महाशय डाकख़ाने की ओर चले। बग़ल में पोता था और हाथ में तार का लिफ़ाफ़ा। बयासी वर्षों के भार से लदे बूढ़े महाशय हिलते-डुलते डाकख़ाने पहुँचे और तार बाबू की ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा—“अरे भैया, कैसो तार तुमने लिखौ ऐ। काउ पै पढ़ौई ना जातु।”

    तारबाबू ने विषाद से कहा—“कक्का, पढ़ा तो जाता है। पर किसका पत्थर का दिल है, जो आपसे कहे कि आपका छोटा लड़का गुज़र गया!”

    अनभ्र वज्रपात हुआ। बूढ़े महाशय के जर्जरित हृदय में गोली-सी लगी। आँखों के सामने अँधेरा छा गया और लड़खड़ाकर वे गिर गए। बयासी वर्ष का पिंड नाती को संभालता हुआ धरती पर छटपटाने लगा। सुरक्षित मूल (असल) अकस्मात् खो गया। बस, ब्याज का लोंदा बूढ़े के क़रीब गिरकर रोने लगा।

    थोड़ी देर में बूढ़े को चेत हुआ। रोम-रोम उनका कँप रहा था। शरीर के अवयवों ने जवाब-सा दे दिया था। दिल के दोनों द्वारों—आँखों—से गरम सोते चलने लगे। नाती को टटोलकर उन्होंने छाती से लगाया।

    कई आदमियों ने संभालकर उसे उठाया। सारा शरीर थरथरा रहा था; पर सहमे-सुकड़े नाती को बूढ़े ने छाती से लगा रखा था। दो फर्लांग की दूरी बैठ-बैठकर काटी। वृद्ध महाशय दस क़दम चलते कि पैर जवाब दे जाते और उन्हें बैठना पड़ता। बैठते ही उन्हें महात्मा तुलसीदास की ये प्रसिद्ध चौपाइयाँ याद जातीं।

    “सुत बिन नारि भवन सुख कैसे। उपजत घटा जात नभ जैसे।

    काल कर्म बस होई गुसाई। बरबस रात दिवस की नाई।

    सुख हर्षे जड़ दुख बिलखाईं। दोउ सम धीर धरें मन माहीं।”

    गिरते-पड़ते, नाती के वात्सल्य की डोरी में बँधे और पुत्र-वियोग की अग्नि में धधकते वे वृद्ध घर आए।

    बूढ़े बाबा अब भी जीवित हैं; पर उनकी कमर-सी टूट गई है। कई पोतों और बड़े पुत्र के सहारे ने उनके घाव पर पपरी-सी डाल दी है। शायद तुलसीदास की उपर्युक्त चौपाइयों ने बूढ़े के धुने शरीर को खड़ा कर रखा है। क्या वे उन्हीं के सहारे जीवित हैं? संभवतः हों। अब सही, उस समय तो उन अमर चौपाइयों ने उन्हें सहारा दिया था।

    (दो)

    सन् 1924

    उत्तर प्रदेश के एक छोटे गाँव में एक व्यक्ति देहरादून से लीचियाँ लेकर आता है। सुबह का सुहावना समय है। लीचियों को देखकर उस व्यक्ति का समवयस्क चचेरा भाई आग्रह करता है कि आमों के साथ लीचियाँ खाई जाएँ। आम खाने के प्रस्ताव का विरोध किया जाता है; पर स्नेह के सामने किसकी चली है?

    पेड़ पर जाकर अट्ठाईस वर्ष के नौजवान भाई ने पके आम हिलाए और नीचे उतरने लगा; पर जब ज़मीन पंद्रह फीट रह गई तब उसका पैर डिग गया। वह सिर के बल ज़मीन पर गिर पड़ा और एक घंटे के भीतर ठंडा हो गया।

    लीची लाने वाला व्यक्ति और अन्य लोग लाश को श्मशान ले गए। चिता जैसे ही रो-रोकर धधकी, लगने लगा कि आसपास के मूक पेड़ भी वैसे ही खड़े-खड़े आँसू बहा रहे हैं। चिता से लौ उठी, मानो मृतक युवा ने कराह कर अपने 69 वर्ष के पिताजी की ओर देखा। विह्वल होकर पिताजी चिता की आग से मिलने को लपके; परंतु कई आदमियों ने मिलकर बूढ़े पिता को चिता पर कूदने से रोक लिया।

    संसार के सबसे बड़े डॉक्टर—समय—ने बिलखते पिता के दिल के घाव पर मरहम-पट्टी की; पर उसके दिल में 27 वर्ष के लड़के के निधन की टीस बनी ही रही।

    छोटा लड़का डॉक्टर बना। नाम और दाम दोनों उसने कमाए। बूढ़े पिता को चारों धाम की यात्रा कराई।

    सन् 1935—

    छोटे लड़के डॉक्टर की उम्र 34 वर्ष होने को आई। उसके यश और कुटुंब की वृद्धि से बूढ़े बाप का मझले लड़के की मौत का घाव कुछ सूख-सा गया था। उसकी दुःखद स्मृति कुछ धुँधली-सी पड़ने लगी थी; पर एक दिन शहर के लोगों को उन्मत्तता सूझी। उन्होंने डॉक्टर के घर में आग लगा दी और वह अपने बच्चों समेत दम घुटकर ख़त्म हो गया।

    यमुना किनारे लाशों की ढेरी लगी और सबकी होली फूँक दी गई। 70 वर्ष के पिता को जाने कितने लोगों ने चिता पर कूदने से रोका। बेगुनाहों की चिता की लपटें यमुना के दिल को जला रही थीं। अस्त-व्यस्त और पागल की-सी आकृति वाला पिता लोगों की देख-रेख में घर लाया गया।

    सन् 1937—

    बूढ़े पिता का 47 वर्ष का लड़का भी दो-तीन दिन के बुख़ार में चल बसा। बूढ़े की व्यथा का अनुमान किया जा सकता है। वह शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती।

    सन् 1939—

    बड़े लड़के की 17 वर्ष की लड़की विधवा हो गई। अब बूढ़े की उमर 76 वर्ष की है। वे जीवित है; पर वे ज़िंदा मुर्दा हैं, क्योंकि ‘वही मौत जो जीना हराम हो जाए।’

    लीची लाने वाले व्यक्ति ने बूढ़े से इसलिए बोलना बंद कर दिया है कि उसे बूढ़े ताऊ से मिलने की हिम्मत नहीं। क्या कोई दुनिया में ऐसा व्यक्ति है, जो इस अवस्था में उन्हें सांत्वना दे सके? किस मुँह और किन शब्दों से सांत्वना दे?

    प्रत्येक की ज़बान से यही निकलता है कि परमात्मा ऐसी यातना किसी को दे। पर वह नहीं बता सकता कि बूढ़े बाबा कैसे जी रहे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 238)
    • संपादक : सत्यवती मलिक
    • रचनाकार : श्रीराम शर्मा
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1955
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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