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अल्मोड़े का बाज़ार

almoDe ka bazar

प्रकाशचंद्र गुप्त

प्रकाशचंद्र गुप्त

अल्मोड़े का बाज़ार

प्रकाशचंद्र गुप्त

और अधिकप्रकाशचंद्र गुप्त

    समुंद्र-तल से लगभग साढ़े पाँच हज़ार फीट ऊपर हिमालय के कक्ष में अल्मोड़े का बाज़ार प्रकृति के विशाल रूप का उपहास, मानवी संस्कृति का उपादान, कैचुए के समान टेढ़ा मेढ़ा पड़ा है। वह पहाड़ के शिखर पर एक अतीत का सपना अब भी अर्ध-सुप्त अवस्था में देख रहा है। उस प्राचीन ऐतिहासिक स्वप्न के अवशेष अनेक मंगोल शिखरों के मंदिर, प्राचीन भवन गृह, जिनकी नक़्क़ाशी उनके बीते वैभव की एक यादगार है, और बदलने वाली पहाड़ी जाति है।

    पहाड़ के सिर पर यह लंबा बाज़ार सामंती युग का सोया प्रहरी है। हिमालय के गर्वोन्नत हिम-मंडित शिखर सदियों से उसे अविचल देख रहे है। किसी प्रलय के कंप में उठी वह पर्वत देश की गगन-चुंबी लहरें, चाँदनी सा चमकता हिम-देश, चीड़ और देवदार के बन। प्रकृति के चित्र-पट पर वह कोई धब्बा मानो किसी शिशु ने गिराकर अपना कौशल दिखाया हो!

    पहाड़ के सर पर टेढा-मेढ़ा किसी विषैले सर्प-सा लंबा वह अल्मोड़े का बाज़ार लेटा है। तंग, दुर्गंधि-पूर्ण पथ, सुंदर, गोरे बच्चे मैले चिपड़े में लिपटे, प्रसन्न वदन या रोते, पिल्ले, मरियल कुत्ते; मिठाइयों की दुकानें, फलवाले, तरकारीवाले, पंसारी; सुनार, बजाज; लुहार, टीका लगाए गंदे पंडित, समाज के जोक, भिखारी, पागल; एक व्यस्त भीड़: रेल-पेल। क्यों? किधर? किसी अनैतहासिक युग के जीवों की तरह असंबद्ध, असंगठित।

    किंतु इस सामंती वातावरण में भी पूँजीवाद सिर उठा चुका है। इन गंदी दुकानों के बीच 'बाट्या' की जूतों की दुकान, जो छातों का व्यापार भी करने लगी है और छोटे-मोटे मोचियों का दिवाला निकाल रही है, इस बात की यादगार है। वही 'बाट्या' साहब जिनके कारख़ाने भारत के कोने-कोने में अपना माल पहुँचा रहे हैं, जो हिटलर के बल से भी अधिक वेग से दुनिया के दूरस्थ गंध, नग्न प्रदेशों में अपनी पताका फहरा रहे हैं, और अपना जूता चला रहे हैं।

    इसी गंदगी के बीच पूँजीवाद की सरकार के कुछ अड्डे हैं। पुलिस की चौकी, डाकघर, अस्पताल, मिशनरी स्कूल, पल्टन के 'बेरक'। इस प्राचीन पहाड़ी नगर के गंदे बाज़ार में यह मानों विदेशी सेना के पड़ाव हों।

    बाज़ार से नीचे दृष्टि डालते ही परिवर्तन के शतश लक्षण दिखते है। कोसी के पुल से चढ़ती, वीभत्स ध्वनि करती लॉरियाँ, गैस के जगमग हंडे, जो 'सिविल लाइंस' में प्रकाश के द्वीप बनाते हैं, होटल, मोटर कंपनियों के दफ़्तर, 'टूरिस्ट' और शिक्षित पहाड़ी नवयुवकों की भीड़भाड़, और अमरीकन संस्कृति का अग्रदूत 'सिनेमा' जिसका एक लघु प्रतिरूप 'बाट्या' के साथ बाज़ार में भी आलोक करता है।

    यह गलित, सामंती संस्कृति और विषैला पूँजीवाद जो अपना अग्रगामी 'रोल' पूरा कर समाज का, फंदा बन रहा है और अब रक्त का प्यासा बन गया है—एक दिन अल्मोड़े के बाज़ार से इनका भी नाम-निशान मिट जाएगा और तब हिमालय की रूप-राशि के अनुरूप ही मानव की स्वतंत्र, निर्मल, शुभ्र संस्कृति यहाँ आसीन होगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रेखाचित्र
    • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
    • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग

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