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प्रकाशचंद्र गुप्त

और अधिकप्रकाशचंद्र गुप्त

    ताई

    उस विशाल सामंती खंडहर के एक कोने में हमारी ताई रहती थी—एक टूटे-फूटे कमरे में जिसकी लगातार मरहम-पट्टी होती थी और फिर भी जो मानो धरती की आकर्षण शक्ति से खिसका ही पड़ता हो। हमारे पुरखों ने दिल्ली त्याग कर यह मकान बनाया था, किसी ज़माने में इसके बाहर के बैठके और अंतपुर के कमरे मधुर हास्य से गूँजते होंगे, किंतु अब इस खंडहर का वायु-मडल इतना दूषित और बिपाक्त हो गया था कि यहाँ साँस लेना भी कठिन था। इस आलीशान मकान के खंड-खंड हो चुके थे; जगह-जगह पीपल के पौधे फूट रहे ये, कुएँ पर ‘ताम्रपर्ण शतमुख पीपल के निझर’ झरते थे। एक और पितामह की लगाई गुलवास की बेल फूल-फूल कर मानो खंडहर का उपहास करती थी। टूटी-फूटी बग़ीची में, जहाँ नित्य प्रात एकांतसेवी ‘दिशा’ खोजते थे, अनेक विपघर निकलते थे जिनकी गिनती हमारे पुरखो मैं थी। वह किसी अज्ञात काल्पनिक माया की रक्षा में लगे थे। इस भग्न सामंती विरासत के अनुरूप वे ही उसके उत्तराधिकारी और रक्षक थे। वह बृहद् कुल की एक शाख़ा फली-फूली थी। खंडहर के एक ही कोने की मरम्मत हुई थी और वह तिमजिला कोना शेख़ी से अकड़ा शेष खंडहर पर नए धनिक की भाँति हँस रहा था। कुल के शिक्षित युवा दूर-दूर कमाई के लिए निकल गए थे, केवल बड़े-बूढ़े खंडहर के पृष्ठपोपण के लिए बच गए थे। इन बुज़ुर्गों में कभी-कभी भयंकर वाग्युद्ध छिड़ता था, जिसका प्रभाव पूरे कुल के जीवन पर पड़ता था; उस दिन चूल्हे भी जलते थे, आपस की बोलचाल बंद हो जाती थी। पुरुषों के संग्राम की छाया स्त्रियों पर और बच्चों के खेल पर भी पड़ती थी।

    इस वातावरण में अनायास ही ताई कहीं दूर से आकर बस गईं। उनके तीन छोटे छोटे बच्चे थे। ताऊ बीमार थे; जीवन संग्राम से थके और जर्जर, अपने प्राण त्यागने किसी आदिम स्वभाव के अनुसार इस अध-गुहा में लौट आए थे। जीवन में सफलता के लिए उन्होंने अनेक प्रयत्न किए थे; बहुत सिर मारा था, किंतु अब अस्त्र डालकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। तीन बार उनका विवाह हुमा था; पहली दो पत्नियाँ उनका साथ दे सकी किंतु यह ताई लौह-शलाका के समान कठिन थी। उनके सुगठित शरीर और शाँत मुद्रा पर जीवन के प्रहारों का कोई स्पष्ट प्रभाव था।

    ताई और उनके तीन बच्चों के जीवन-यापन के लिए सामंती कुल ने व्यवस्था करने का भरसक प्रयत्न किया। एक दुकान का किराया उनके नाम कर दिया गया। और मासिक सहायता का प्रबंध भी हुआ, किंतु वह अधिक दिन चल सका। ‘हमारी’ चाची ख़ूब लड़ी, “जब अपने घर एक विधवा असहाय बैठी है, तो दूर मदद देने क्यों जाए?” ताई दूर के रिश्ते की ताई थी, चाची ख़ास अपनी थी। कुल में सभी ने ताई की दशा पर आँसू बहाए, ताऊ की मृत्यु पर एक कोहराम मचा; आँसुओ के पारावार बहे; किंतु कुछ ही दिन बाद कलह, द्वेष और फूट ने फिर खंडहर पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। कानाफूसी शुरू हुई। ताऊ ने अवश्य ही परदेश में अपार धन कमाया होगा। ताई के कपड़े फटे थे और बच्चों के पास तो थे भी नही; किंतु एक दिन चाची ने स्वयं अपनी आँखो से ताई को मिठाई खाते देखा था, ताई की जीभ चटोरी थी, तभी तो उन्होंने अपने घर का यह कुहाल कर लिया! ताई का चरित्र ठीक था: वह सहायता की पात्र थी।

    अंत में परिवार की सहायता ने यह रूप ग्रहण किया कि ताई कुटाई-पिसाई करे और जीविका अर्जन करे। किसी के यहाँ काम होता तो ताई बुलाई जाती। उन्होंने अपने बड़े लड़के से चाट भी बिकवाई, किंतु यह प्राणी बड़े निरीह थे और दुनिया के धंधों से सर्वथा अपरिचित थे। यह सिलसिला भी चला और ताई थक कर बैठ गई। अपनी पराजय का क्षोभ वह बच्चों पर उतारने लगी।

    आज भी जब मुझे ताई का घर याद आता है तो कठिन अवसाद का पत्थर-सा मन पर रख जाता है। वर्षा के दिन, टप-टप करता घर, लौनी खाई दीवारें, बाहर हूहू करती हवा का अघड़, इस घोर अंधकार बियाबान मे इस नारी की जीवन-बाती मद-मद जल रही थी। चारों ओर ज़क खाती सिगरेट बनाने की बेकार कले पड़ी थी। उन्हीं के बीच, सामंतवाद और पूँजीवाद की मिलन-भूमि पर, इस क्षुद्र कुटुंब का होम हो रहा था।

    ताई के बड़े लड़के को एक संतानहीन सेठ गोद लेना चाहता था, किंतु बूढ़े कुलपति ने इसमें अपनी कुल-मर्यादा की हानि समझी। लड़का इधर-उधर चौका-वर्तन करने लगा। नौकर की हैसियत से उसने अपने कुल का मान रखा और यह अक्षय यश कमा कर स्वर्ग का फल भोगने चला गया। लड़की का दिमाग़ कुछ ख़राब था। वह ‘बिगड़ता ही गया। छोटे लड़के को एक दिन कोई रोग लेकर चलता बना। इस प्रकार ताई का छोटा सा कुटुम्ब बारहबाट हो गया।

    ताई अकसर कूट-पीस करने कुल के धनिक संधियों के यहाँ जाती थी। इनमें एक अधेड़ चाचा क्वारे थे। किसी कारणवश उनका विवाह होता था और अब आशा भी रही थी। इन्होंने ताई का पल्ला पकड़ा। एक दिन ताई ने अवांछित नए शिशु को जन्म भी दे डाला। कुल में बड़ा तूफ़ान उठा। हफ़्तों लड़ाई हुई। अंत में अप्रत्याशित दूरदर्शिता दिखाते हुए कुलपति ने दोनों का घर एक कर दिया। धनिक चाचा को नाम चलाने का सहारा मिला। सामंती कुल-वधू ने धन का वरण करके जीवन की लज्जा ढकी।

    इस बात को बहुत दिन हो गए, किंतु फिर भी राख में दबे कोयलों की भाँति यह आग अंदर ही अंदर सुलगती रहती है और चाहे जब भड़क उठती है। द्वेप के अघड़ में इस आग की चिनगारियाँ दूर-दूर फैल जाती है और शायद ही कोई बिना झुलसे उनसे अछूता बचता हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रेखाचित्र (पृष्ठ 204)
    • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
    • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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