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मेरी माताजी

meri mataji

महात्मा गाँधी

महात्मा गाँधी

मेरी माताजी

महात्मा गाँधी

और अधिकमहात्मा गाँधी

    कबा गाँधी के एक-एक करके चार विवाह हुए थे। पहली दो पत्नियों से दो लड़कियाँ थीं। अंतिम पुतलीबाई से एक कन्या और तीन पुत्र हुए, जिनमें सबसे छोटा में हूँ।

    माताजी साध्वी स्त्री थीं, ऐसी छाप मेरे दिल पर पड़ी है। वह बहुत भावुक थीं। पूजा-पाठ किए बिना कभी भोजन करतीं, सदा वैष्णव-मंदिर जाया करतीं। जब से मैंने होश संभाला, मुझे स्मरण नहीं कि उन्होंने कभी चातुर्मास छोड़ा हो। कठिन-से-कठिन व्रत करती और उन्हें निर्विघ्न पूरा करतीं। बीमार पड़ जाने पर भी वह व्रत छोड़ती थीं।

    ऐसा एक समय मुझे याद है, जब उन्होंने चांद्रायण-व्रत किया था। बीच में बीमार पड़ गईं, पर व्रत छोड़ा। चातुर्मास में एक बार भोजन करना तो उनके लिए साधारण बात थी। इतने से संतोष मान कर एक बार चातुर्मास में उन्होंने हर तीसरे दिन उपवास किया। एक साथ दो-तीन उपवास तो उनके लिए एक साधारण बात थी। एक चातुर्मास में उन्होंने ऐसा व्रत लिया कि सूर्यनारायण के दर्शन होने पर ही भोजन किया जाए। इस चौमासे में हम लड़के आकाश की ओर देखा करते कि कब सूर्य दिखाई पड़े और कब माँ खाना खाए। सब लोग जानते हैं कि चौमासे में अनेक बार सूर्य-दर्शन कठिनता से होते हैं। मुझे ऐसे दिनों की आज तक स्मृति है, जबकि हमने सूर्य को निकला हुआ देख कर पुकारा है, “माँ-माँ, वह सूरज निकला।” और जबतक माँ जल्दी-जल्दी दौड़कर आती हैं, सूर्य अस्त हो जाता है! माँ यह कहती हुई लौट जाती, “ख़ैर, कोई बात नहीं, ईश्वर नहीं चाहता कि आज भोजन प्राप्त हो।” और अपने कामों में व्यस्त हो जातीं।

    माताजी व्यवहार-कुशल थीं। राज-दरबार की सब बातें जानती थीं। रनवास में उनकी बुद्धिमत्ता ठीक-ठीक आँकी जाती थी। जब मैं बच्चा था, मुझे दरबारगढ़ में कभी-कभी वह साथ ले जाती और माँ साहब के साथ उनके कितने ही संवाद मुझे अब भी स्मरण हैं।...

    1887 ईसवी में मैंने मैट्रिक पास किया। घर के बड़े-बूढ़ों की यह इच्छा थी कि पास हो जाने पर आगे कॉलेज में पढूँ। कॉलेज में प्रविष्ट हुआ; किंतु वहाँ सबकुछ मुझे कठिन दिखने लगा।...

    हमारे कुटुंब के पुराने मित्र और सलाहकार एक विद्वान व्यवहार कुशल ब्राह्मण जोशीजी थे। पिताजी के स्वर्गवास के बाद भी उन्होंने हमारे परिवार के साथ संबंध स्थिर रखा। छुट्टियों के दिनों में वे घर आए। माताजी और बड़े भाई के साथ बातें करते हुए मेरी पढ़ाई के विषय में पूछ-ताछ की और सम्मति दी कि मुझे विलायत जाकर बैरिस्टरी सीखनी चाहिए, जिससे लौटकर पिताजी के दीवान पद को संभाल सकूँ। उन्होंने मेरी ओर देखकर पूछा—

    “क्यों, तुम्हें विलायत जाना पसंद है या यहीं पढ़ना?”

    मेरे लिए यह ‘नेकी और पूछ-पूछ’ वाली बात हो गई। में कॉलेज की कठिनाइयों से तंग तो ही गया था। मैंने कहा, “विलायत भेजो तो बहुत ही अच्छा! कॉलेज में शीघ्र पास हो जाने की आशा नहीं जान पड़ती।”

    तब उन्होंने माताजी की ओर देखकर कहा— “आज तो मैं जाता हैं। मेरी बात पर विचार कीजिएगा।”

    बस मैंने हवाई किले बाँधने आरंभ किए। बड़े भाई चिंतित हो मए। रुपए का क्या प्रबंध करें? फिर मुझ-जैसे नवयुवक को इतनी दूर कैसे भेज दें?

    माताजी बड़ी द्विविधा में पड़ गईं। दूर भेजने की बात तो उन्हें अच्छी लगी; परंतु शुरू में तो उन्होंने यही कहा—

    “हमारे कुटुंब में तो अब चाचा ही बड़े-बढ़े हैं। इसलिए पहले उन्हीं की सम्मति लेनी चाहिए। यदि वे आज्ञा दे दें तो फिर सोचेगें।”

    पोरबंदर पहुँचा। चाचाजी को साष्टांग प्रणाम किया। उन्होंने सुन कर उत्तर दिया, “विलायत जाकर अपना धर्म स्थिर रख सकोगे या नहीं, यह मैं नहीं जानता। सारी बातें सुनकर तो मुझे संदेह ही होता है। देखो ना, बड़े-बड़े बैरिस्टरों से मिलने का मुझे अवसर मिलता है। मैं देखता हूँ कि उनके और साहब लोगों के रहन-सहन में कोई भेद नहीं। उन्हें खान-पान का तनिक भी परहेज़ नहीं होता। सिगार तो मुँह से अलग ही नहीं होता। पहनावा भी देखो तो नंगा। यह सब अपने परिवार को शोभा नहीं देता। पर मैं तुम्हारे विचार में विघ्न नहीं डालना चाहता। मैं थोड़े ही दिनों में तीर्थ यात्रा को जाने वाला हूँ। मेरे जीवन के अब कुछ ही दिन शेष हैं, सो मैं तो ज़िंदगी के किनारे तक पहुँच गया हूँ। तुमको विलायत जाने की, समुद्र-यात्रा करने की आज्ञा कैसे दूँ? पर मैं तुम्हारा मार्ग रोकूँगा। वास्तविक आज्ञा तो तुम्हारी माताजी की है। यदि वह तुम्हें अनुमति दे दें तो तुम शौक़ से जाओ। उनसे कहना कि मैं तुम्हें रोकूँगा, मेरी आशीष तो तुम्हें है!”

    “इससे अधिक की आशा मैं आपसे नहीं कर सकता। अब मुझे माताजी को राज़ी कर लेना है।”

    पर माताजी क्योंकर मानतीं? उन्होंने विलायत के जीवन के संबंध में पूछताछ आरंभ की। किसीने कहा—नवयुवक विलायत जाकर बिगड़ जाते हैं। कोई कहता था—वे माँस खाने लग जाते हैं। किसीने कहा—शराब पिए बिना नहीं चलता। माताजी ने यह सब मुझसे कहा। मैंने समझाया कि तुम मुझपर विश्वास रखो, मैं विश्वासघात करूँगा। मैं सौगंध खाकर कहता हूँ कि मैं इन तीनों बातों से बचूँगा। और यदि ऐसी जोख़िम की ही बात होती तो जोशीजी क्यों जाने की सलाह देते?

    माताजी बोलीं—“मुझे तेरा विश्वास है; पर दूर देश में तेरा कैसे क्या होगा? मेरी बुद्धि तो काम नहीं करती। मैं बेचरजीस्वामी से पूछूँगी।”

    बेचरजीस्वामी बनिए से जैन साधु हुए थे। जोशीजी की भाँति परामर्श देने वाले भी थे। उन्होंने मेरी सहायता की और कहा कि मैं इससे तीनों बातों की प्रतिज्ञा लिवा लूँगा। फिर जाने देने में कोई हानि नहीं।

    तदनुसार मैंने माँस, मदिरा आदि से दूर रहने की प्रतिज्ञा की और तब माताजी ने भी आज्ञा दे दी।...

    जहाज़ में मुझे समुद्र से कोई कष्ट नहीं हुआ। पर ज्यों-ज्यों दिन बीत जाते, मैं असमंजस में पड़ता जाता। किसी से बोलते हुए झेंपता। अंग्रेज़ी में बातचीत करने की आदत थी। यात्री प्रायः सब अंग्रेज़ थे। वे मुझसे बोलने की चेष्टा करते तो उनकी बातें मेरी समझ में आतीं और यदि समझ भी लेता तो उत्तर क्या दूँ, यह सोचना पड़ता।

    छुरी-काँटे से खाना जानता था और पूछने का साहस भी होता था कि इसमें बिना माँस की चीज़ें क्या-क्या हैं? इस कारण मेज़ पर तो मैं गया ही नहीं। अपने कमरे में ही खा लेता। घर से जो मिठाइयाँ आदि अपने साथ ले रखी थीं, उन्हीं पर प्रधानतः निर्वाह करता रहा।...

    मुझपर दया दिखाते हुए एक भले अंग्रेज़ ने मुझसे बातचीत करना आरंभ कर दिया। वह मुझसे बड़े थे। मैं क्या खाता हूँ? कौन हूँ? कहाँ जा रहा हूँ? क्यों किसी से बातचीत नहीं कर पाता, इत्यादि प्रश्न पूछते। मुझे भोजन के लिए मेज़ पर जाने की प्रेरणा करते। माँस खाने के मेरे आग्रह की बात सुनकर एक दिन हँसे और कहने लगे, “यहाँ तो—अर्थात् पोर्ट-सईद तक तो—ठीक है; परंतु आगे उप-सागर में पहुँचने पर तुम्हें अपने विचार बदलने पड़ेंगे। इंग्लैंड में तो इतना जाड़ा पड़ता है कि माँस के बिना काम चल ही नहीं सकता। मैं शराब पीने के लिए तुमसे नहीं कहता, पर मैं समझता हूँ कि माँस तो तुम्हें अवश्य खाना चाहिए।”

    मैंने कहा, “आपकी सम्मति के लिए मैं आपका आभारी हूँ, पर मैंने अपनी माताजी को वचन दिया है कि मैं माँस खाऊँगा। यदि उसके बिना इंग्लैंड रह सकते हों तो मैं पुनः हिंदुस्तान को लौट जाऊँगा, पर माँस कदापि खाऊँगा।”

    किसी प्रकार दुःख-सुख उठाकर हमारी यात्रा पूरी हुई।

    मुझे याद पड़ता है, उस दिन शनिवार था। मैं जहाज़ पर काले वस्त्र पहनता था। मित्रों ने मेरे लिए सफ़ेद फलालैन के कोट-पतलून भी बना दिए थे। मैंने सोचा था कि विलायत में, उतरते समय, मैं उन्हें पहनूँगा। सफ़ेद कपड़े संभवतः अधिक अच्छे दिखाई देते हैं, यह समझ कर मैं उसी वेश में जहाज़ से उतरा; किंतु इस लिबास में केवल अपने को ही वहाँ पाया। मेरा सामान और तालियाँ भी ग्रिडले कंपनी के गुमाश्ते लोगों के पास ही चली गई थीं।

    मेरे पास चार परिचय-पत्र थे, जिनमें एक डॉक्टर प्राणजीवन मेहता के नाम था। डॉक्टर मेहता को मैंने रास्ते में से ही तार दे दिया था। जहाज़ में से किसी ने सुझाव दिया था कि विक्टोरिया होटल में ठहरना ठीक होगा।... मैं तो अपने सफ़ेद वस्त्रों की लज्जा में ही बुरी तरह झेंप रहा था। फिर होटल में जाकर पता चला कि कल रविवार होने के कारण सोमवार तक ग्रिडले के यहाँ से सामान पावेगा। इस से मैं बड़ी द्विविधा में पड़ गया।

    सात-आठ बजे डॉक्टर मेहता आए। उन्होंने प्रेम-भाव से मेरा ख़ूब मज़ाक़ उड़ाया। मैंने अनजान में उनकी रेशमी रोएँ वाली टोपी देखने के लिए उठाई और उसपर उलटी ओर हाथ फेरने लगा। टीपी के रोएँ खड़े हो गए। यह डॉक्टर मेहता ने देखा और रोक दिया; पर क़ुसूर तो हो ही चुका था। इतना समझ गया कि आगे से कोई चेष्टा ऐसी होनी चाहिए।

    यहाँ से मैंने यूरोपियन रीति-नीति का प्रथम-पाठ पढ़ना आरंभ कर दिया। डॉक्टर मेहता हँसते जाते और बहुतेरी बातें समझाते जाते, “किसी वस्तु को यहाँ छूना चाहिए। भारतवर्ष में परिचय होते ही जो बातें सहज में पूछी जा सकती हैं, वे यहाँ पूछना चाहिए। बातें ऊँची आवाज़ में करनी चाहिए। हिंदुस्तान में साहबों के साथ बातें करते हुए ‘सर’ कहने का जो रिवाज है, वह यहाँ अनावश्यक है। ‘सर’ तो नौकर अपने मालिक को या अफ़सर को कहता है।... होटल में ख़र्चा अधिक पड़ेगा, इसीलिए किसी कुटुंब के साथ रहना ठीक होगा।” इत्यादि बातें सुझाकर डॉक्टर मेहता विदा हुए।...

    होटल में आते ही लगा, मानो कहीं घुसे हों। ख़र्चा भी इतना अधिक कि मैं भौंचक्का रह गया। तीन पौंड देकर भी भूखा ही रहा। वहाँ की कोई चीज़ ही अच्छी लगी। एक उठाई, वह भाई, तब दूसरी ली। पर दाम तो दोनों का देना पड़ता। अभी तक तो प्रायः बंबई से लाए हुए खाद्य पदार्थों पर ही निर्वाह करता रहा था।

    होटल का बिल चुकाकर अपने एक मित्र के साथ दो कमरे किराए पर लिए; किंतु उस कमरे में पहुँचते ही मैं बड़ा दुःखी हुआ। देश बहुत अधिक याद आने लगा। माताजी का प्रेम साक्षात् सामने दिखाई पड़ता। रात होते ही ‘रुलाई’ शुरू होती। घर की तरह-तरह की बातें स्मरण हो आतीं। उस तूफ़ान में भला नींद क्यों आने लगी? फिर यह दुःख की बात भी किसी से कह सकता था। कहने से लाभ ही क्या था! मैं स्वयं ही जानता था कि मुझे कैसे संतावना मिलेगी। लोग निराले, रहन-सहन निराली, मकान भी निराले और घरों में रहने के नियम-ढंग भी निराले। फिर वह भी भली प्रकार नहीं मालूम कि किस बात के बोल देने में अथवा क्या करने से यहाँ के शिष्टाचार का या नियम का भंग होता है। इसके अतिरिक्त खान-पान का परहेज़ अलग। जिन वस्तुओं को मैं खा सकता था, वे रूखी-सूखी जान पड़ती थीं। इस प्रकार मेरी दशा साँप-छछुंदर जैसी हो गई थी। विलायत में अच्छा लगता था और देश को लौट नहीं सकता था। और अब तो दो-तीन वर्ष पूरा करके ही लौटने का निश्चय था।

    डॉक्टर मेहता सोमवार को मुझसे मिलने आए। मेरी अज्ञानता से जहाज़ में मुझे खुजली हो गई थी। जहाज़ में खारी पानी से नहाना पड़ता। उसमें साबुन घुलता नहीं। इधर मैं साबुन से स्नान करने में सभ्यता समझता था। इसलिए शरीर साफ़ होने के बदले चिकटा गया और मेरे दाद हो गया। डॉक्टर ने तेज़ाब-सा ‘ऐसिटिक एसिड’ दिया, जिसने मुझे रुलाकर छोड़ा।

    डॉक्टर मेहता ने हमारे कमरे आदि को देखकर सिर हिलाया और कहा, “यह मकान काम का नहीं। इस देश में आकर पुस्तकें मात्र पढ़ने की अपेक्षा यहाँ का अनुभव प्राप्त करना कहीं अधिक अच्छा है। इसके लिए किसी कुटुंब में रहने की आवश्यकता है। इतने दिन में तुम्हें अपने एक मित्र के यहाँ कुछ बातें सीखने के लिए रखूँगा।” मैंने सधन्यवाद बात मान ली। उन मित्र के यहाँ गया। उन्होंने मेरे आतिथ्य में तनिक भी कमी रखी। मुझे अपने सगे भाई की भाँति रखा, अंग्रेज़ी में बातचीत करने की कुछ टेव भी मुझमें डाली।

    ….पर मेरे भोजन का प्रश्न बड़ा विकट हो गया। बिना नमक-मिर्च, मसाले का साग भाता नहीं था। गृह-स्वामिनी मेरे लिए पकाती भी क्या?

    प्रातः जौ का दलिया-सा बनता, उससे कुछ पेट भर जाता; पर दोपहर और सायंकाल को हमेशा भूखा रहता।

    यह मित्र माँसाहार के लिए नित्य समझाते; पर मैं अपनी प्रतिज्ञा का नाम लेकर चुप ही रहता। उनकी युक्तियों का उत्तर दे सकता था। दोपहर को केवल रोटी और चोलाई का साग तथा मुरब्बे पर निर्वाह करता। यही शाम को भी। मैं देखता था कि रोटी के तो दो ही तीन टुकड़े ले सकते हैं। अत: अधिक माँगते हुए झेंप लगती। फिर मेरा आहार भी काफ़ी था। दोपहर या शाम को दूध भी नहीं मिलता था। मेरी दशा देखकर वह मित्र एक दिन झल्लाए और बोले, “देखो, यदि तुम मेरे सगे भाई होते तो मैं तुमको अवश्य ही देश लौटा देता। निरक्षर माँ को, यहाँ की स्थिति जाने बग़ैर, दिए गए वचन का क्या मूल्य! इसे कौन प्रतिज्ञा कहेगा? ऐसी प्रतिज्ञा लिए बैठे रहना अंधविश्वास के अतिरिक्त कुछ नहीं।”

    ऐसी युक्तियाँ प्रतिदिन चलतीं और ज्यों-ज्यों वह मित्र मुझे समझाते, मेरी दृढ़ता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती। नित्य ही में ईश्वर से अपनी रक्षा की याचना करता और वह पूरी होती। मैं यह तो नहीं जानता था कि ईश्वर क्या वस्तु है? पर...

    मैंने घूमना आरंभ किया और निरामिष भोजन-गृह की खोज की। गृह-स्वामिनी ने कहा था कि लंदन शहर में ऐसे गृह हैं अवश्य।

    मैं 10-12 मील नित्य घूमता। इस भाँति भटकते हुए एक दिन मैं फेरिंग्टन स्ट्रीट पहुँचा और ‘वेजिटेरियन रेस्ट्राँ’ (निरामिष भोजनालय) नाम पढ़ा। बच्चे को मनचाही वस्तु प्राप्त कर लेने से जो आनंद होता है, वही मुझे हुआ। हर्षोन्मत्त होकर मैं अंदर पहुँचा था कि काँच की खिड़की में विक्रयार्थ पुस्तकें देखीं। उनमें मुझे अन्ना हार पर साल्ट की एक पुस्तक मिल गई। मेरे हृदय पर उसकी अच्छी छाप पड़ी और अब सोच-समझकर अन्नाहार का भक्त हुआ। माताजी के सामने की हुई प्रतिज्ञा अब मुझे विशेष आनंद दायक हो गई।

    निस्संदेह इस प्रतिज्ञा-पालन में मुझे अनेक ऐसी वस्तुएँ भी छोड़नी पड़ीं, जिनका स्वाद जिव्हा को लग गया था, अर्थात् अंडे आदि से बनी वस्तुएँ, किंतु अत्यंत सादा, साधारण भोजन खाकर स्वच्छ और स्थायी स्वाद मुझे उस क्षणिक स्वाद से अधिक प्रिय जान पड़ा।

    सच्ची परीक्षा तो अभी आगे आने वाली थी, उसका संबंध था दूसरे व्रत से; परंतु—

    “जाको राखे साइयाँ,

    मार सके ना कोय।”

    विलायत में रहते हुए दो थियोसाफ़िस्ट मित्रों से भेंट हुई। उन्होंने मुझसे गीता की बात पूछी। वे दोनों उस समय स्वयं गीता के अंग्रेज़ी अनुवाद को पढ़ रहे थे, पर मुझे उन्होंने अपने साथ संस्कृत में गीता पढ़ने के लिए कहा। में लज्जित हुआ; क्योंकि मैंने तो गीता संस्कृत में, प्राकृत ही में पढ़ी थीं। तो भी झेंपते हुए अपन संस्कृत के अल्प ज्ञान के साथ ही मेरा गीता-वाचन आरंभ हुआ। दूसरे अध्याय के—

    ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषुपजाएते।

    संगात्संजाएते कामः कामात्क्रोधोभिजाएते।।

    क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति-विभ्रमः।

    स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

    अर्थात्—“विषय का चिंतन करने से, पहले तो उसके साथ संग उत्पन्न होता है और संग से काम की उत्पति होती है, कामना के पीछे पीछे क्रोध आता है। फिर क्रोध से संमोह और मोह से स्मृति-भ्रम; स्मृति-म्रम से बुद्धि का नाश होता है और अंत में मनुष्य स्वयं ही नष्ट हो जाता है।” इन श्लोकों का मेरे चित्त पर गहरा प्रभाव पड़ा। बस कानों में यही ध्वनि दिन-रात गूँजा करती। तब मुझे प्रतीत हुआ कि भगवद्गीता तो अमूल्य ग्रंथ है। यह धारणा दिनों-दिन अधिक दृढ़ होती गई और बाद में तो निराशा के समय सदा ही गीता ने मेरी माँ की भाँति ही रक्षा की है। इस भाँति मुझे अपने धर्म-शास्त्रों का तथा संसार के अन्य धर्मों का भी कुछ परिचय तो मिला; किंतु इतना ज्ञान मनुष्य को बचाने के लिए पर्याप्त नहीं होता। आपत्ति के समय जो वस्तु मनुष्य को बचाती है, उसका उसे उस समय तो भान ही रहता है, ज्ञान ही।...परिणाम के बाद वह ऐसा अनुमान कर लेता है कि धर्म-ग्रंथों के अध्ययन से ईश्वर हृदय में प्रकट होता है!...लेकिन बचते समय वह नहीं जानता कि उसे उसका संयम बचाता है या कोई और।

    अब मैं बीस वर्ष का हो गया था। विलायत में मेरे अंतिम वर्ष में, अर्थात् सन् 1890 में पोर्टस्मिथ में अन्नाहारियों का एक सम्मेलन हुआ। उसमें मुझे तथा एक और भारतीय मित्र को निमंत्रण मिला था। हम दोनों वहाँ गए और स्वागत समिति द्वारा चुने हुए ऐसे घर में ठहराए गए, जहाँ के लोगों के आचार-व्यवहार के विषय में उन्हें निर्दोष नहीं कहा जा सकता।

    पोर्टस्मिथ को मल्लाहों का बंदर कहा जा सकता है।

    रात हुई। हम सभा से लौटे और भोजन के बाद ताश खेलने बैठे। विलायत में अच्छे घरों में भी गृहिणी, अतिथियों के साथ ताश खेला करती हैं। ताश खेलते समय सब लोग निर्दोष मज़ाक़ करते हैं; परंतु यहाँ तो गंदा विनोद शुरू हुआ।

    मैं नहीं जानता था कि मेरे साथी इसमें निपुण हैं। मुझे इस विनोद में मनोरंजकता लगने लगी। मैं भी सम्मिलित हुआ।

    पर मेरे साथी के हृदय में भगवान जगे। वह बोले—

    “तुम और यह कलियुग! यह पाप! यह तुम्हारा काम नहीं! भागो, यहाँ से।”

    मैं लज्जित हुआ। हृदय में मित्र का उपकार माना। माता से की हुई प्रतिज्ञा याद आई। सम्मेलन दो दिन और होने वाला था; किंतु जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने दूसरे दिन ही पोर्टस्मिथ छोड़ दिया और अत्यंत सचेत रहकर जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया।

    परीक्षाएँ पास की। 10 जून 1891 को मैं बैरिस्टर हुआ। 11 तारीख़ को इंग्लैंड हाईकोर्ट में ढाई शिलिंग देकर अपना नाम रजिस्टर कराया। 12 जून को भारतवर्ष लौट आने के लिए रवाना हुआ।

    परंतु मेरी निराशा का कुछ ठिकाना था। क़ानून मैंने पढ़ तो लिया—क़ानून की पुस्तकों में कितने ही धर्म-सिद्धांत मुझे मिले जो मुझे अच्छे लगे; किंतु व्यवाहर में कैसे इन सिद्धांतों का उपयोग किया जाता होगा!...

    इसके अतिरिक्त जाति वालों का भी प्रश्न था।

    इस प्रकार कितनी ही आशा, निराशा और सुधारों का मिश्रण लेकर मैं काँपते पैरों से, ‘आसाम’ स्टीमर से बंबई बंदर पर उतरा। एक और अकल्पित चिंता खड़ी हो गई।

    माताजी के दर्शन करने के लिए मैं अधीर हो रहा था। जब हम डाक पर पहुँचे तो मेरे बड़े भाई वहाँ उपस्थित थे।

    माताजी के स्वर्गवास के बारे में मुझे इससे पूर्व कोई सूचना मिली थी। घर पहुँचने पर मुझे यह समाचार सुनाया गया। यह ख़बर मुझे विलायत में भी दी जा सकती थी; पर इस विचार से कि मुझे आघात कम पहुँचे, मेरे बड़े भाई ने बंबई पहुँचने तक मुझे सूचना देन का ही निश्चय किया।

    अपने इस दुःख को मैं ढके ही रखना चाहता हूँ। पिताजी की मृत्यु से अधिक आघात मुझे इस समाचार को पाकर पहुँचा। मेरे कितने ही सुनहले स्वप्न, कल्पनाएँ, मिट्टी में मिल गईं। पर मुझे स्मरण है कि इस समाचार को सुनकर मैं रोने-चीख़ने नहीं लगा था। आँसू तक नहीं आने दिए थे और इस तरह व्यवहार किया मानो माताजी की मृत्यु हुई ही हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 15)
    • संपादक : सत्यवती मलिक
    • रचनाकार : महात्मा गाँधी
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1952
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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