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सुभान ख़ाँ

subhan khan

रामवृक्ष बेनीपुरी

और अधिकरामवृक्ष बेनीपुरी

    क्या आपका अल्लाह पच्छिम में रहता है? वह पूरब क्यों नहीं रहता? 'सुभान दादा की लंबी, सफ़ेद, चमकती, रोब बरसाती दाढ़ी में अपनी नन्ही उँगलियों को घुमाते हुए मैंने पूछा। उनकी चौड़ी, उभरी पेशानी पर एक उल्लास की झलक और दाढ़ी-मूँछ की सघनता में दबे, पतले अधरों पर एक मुस्कान की रेखा दौड़ गई। अपनी लंबी बाँहों की दाहिनी हथेली मेरे सिर पर सहलाते हुए उन्होंने कहा—

    नहीं बबुआ, अल्लाह तो पूरब पश्चिम, उत्तर दक्षिण सब ओर है।

    तो फिर आप पश्चिम मुँह खड़े होकर ही नमाज़ क्यों पढ़ते हैं?

    पश्चिम और के मुल्क में अल्लाह के रसूल आए थे जहाँ रसूल आए थे, वहाँ हमारे तीरथ हैं। उन्हीं तीरथों की ओर मुँह करके अल्लाह को याद करते हैं।

    वे तीरथ यहाँ से कितनी दूर होंगे?

    “बहुत दूर

    जहाँ सूरज देवता डूबते हैं?'

    “नहीं, उससे कुछ इधर ही!

    “आप उन तीरथों में गए हैं, सुभान दादा?

    देखा, सुभान दादा की बड़ी-बड़ी आँखों में आँसू डबडबा आए। उनका चेहरा लाल हो उठा। भाव-विभोर हो गद्गद कंठ से बोले—

    वहाँ जाने में बहुत ख़र्च पड़ते हैं, बबुआ! मैं ग़रीब आदमी ठहरा! इस बुढ़ापे में भी इतनी मेहनत मशक़्क़त कर रहा हूँ कि कहीं कुछ पैसे बचा पाऊँ और उस पाक जगह की ज़ियारत कर आऊँ!

    उनकी आँखों को देखकर मेरा बचपन का दिल भी भावना से ओत-प्रोत हो गया। मैंने उनसे कहा, मेरे मामाजी से कुछ क़र्ज़ क्यों नहीं ले लेते, दादा?

    क़र्ज़ के पैसे से तीरथ करने में सबाब नहीं मिलता, बबुआ! अल्लाह ने चाहा तो एक दो साल में इतने जमा हो जाएँगे कि किसी तरह वहाँ जा सकूँ।

    वहाँ से मेरे लिए भी कुछ सौगात लाइएगा न? क्या लाइएगा?

    वहाँ से लोग खजूर और छुहारे लाते हैं।

    हाँ हाँ, मेरे लिए छुहारे ही लाइएगा; लेकिन एक दर्जन से कम नहीं लूँगा, हूँ।

    सुभान दादा की सफ़ेद दाढ़ी-मूँछ के बीच उनके सफ़ेद दाँत चमक रहे थे। कुछ देर तक मुझे दुलारते रहे। फिर कुछ रुककर बोले, अच्छा जाइए, खेलिए, मैं ज़रा काम पूरा कर लूँ। मज़दूरी भर काम नहीं करने से अल्लाह नाराज़ हो जाएँगे।

    क्या आपके अल्लाह बहुत गुस्सावर हैं? मैं तुनककर बोला।

    आज सुभान दादा बड़े ज़ोरों से हँस पड़े, फिर एक बार मेरे सिर पर हथेली फेरी और बोले, बच्चों से वह बहुत ख़ुश रहते हैं, बबुआ! वह तुम्हारी उम्रदराज़ करें। कहकर मुझे अपने कंधे पर ले लिया। मुझे लेते हुए दीवार के नज़दीक आए वहाँ उतार दिया और झट अपनी कन्नी और बसूली से दीवार पर काम करने लगे।

    सुभान ख़ाँ एक अच्छे राज समझे जाते थे। जब-जब घर की दीवारों पर कुछ मरम्मत की ज़रूरत होती है, उन्हें बुला लिया जाता है। आते हैं, पाँच-सात रोज़ यहीं रहते हैं, काम ख़त्म कर चले जाते हैं।

    लंबा-चौड़ा, तगड़ा है बदन इनका पेशानी चौड़ी, भवें बड़ी सघन और उभरी आँखों के कोनों में कुछ लाली और पुतलियों में कुछ नीलेपन की झलक नाक असाधारण ढंग से नुकीली दाढ़ी सघन—इतनी लंबी कि छाती तक पहुँच जाए। वह छाती, जो बुढ़ापे में भी फैली फूली हुई। सिर पर हमेशा ही एक दुपलिया टोपी पहने होते और बदन में नीमस्तीन। कमर में कच्छे वाली धोती, पैर में चमरौंधा जूता। चेहरे से नूर टपकता, मुँह से शहद झरता। भलेमानसों के बोलने चालने, बैठ ने-उठने के क़ायदे की पूरी पाबंदी करते वह।

    किंतु, बचपन में मुझे सबसे अधिक भाती उनकी वह सफ़ेद चमकती हुई दाढ़ी। नमाज़ के वक़्त कमर में धारीदार लुंगी और शरीर में सादा कुरता पहन, घुटने टेक, दोनों हाथ छाती से ज़रा ऊपर उठा, आधी आँखें मूँदकर जब वह कुछ मंत्र-सा पढ़ने लगते, मैं विस्मय-विमुग्ध होकर उन्हें देखता रह जाता! मुझे ऐसा मालूम होता—सचमुच उनके अल्लाह वहाँ गए हैं! दादा की झपकती आँखें उन्हें देख रही हैं और वे होंठों-होंठों की बातें उन्हीं से हो रही हैं।

    एक दिन बचपन के आवेश में मैंने उनसे पूछ भी लिया, सुभान दादा, आपने कभी अल्लाह को देखा है? 'यह क्या कह रहे हो, बबुआ? इंसान इन आँखों से अल्लाह को देख नहीं सकता।

    मुझे धोखा मत दीजिए, दादा! मैं सब देखता हूँ आप रोज़ आधी आँखों से उन्हें देखते हैं, उनसे बुदबुदा बातें करते हैं। हाँ हाँ, मुझे चकमा दे रहे हैं आप!

    मैं उनसे बातें करूँगा, मेरी ऐसी तक़दीर कहाँ? सिर्फ़ रसूल की उनसे बातें होती थीं, बबुआ ये बातें कुरान में लिखी हैं।

    “अच्छा दादा, क्या आपके रसूल को भी दाढ़ी थी?

    हाँ-हाँ, थी। बड़ी ख़ूबसूरत, लंबी सुनहली अब भी उनकी दाढ़ी कुछ बाल मक्का में रखे हैं। हम अपने तीरथ में उन बालों के भी दर्शन करते हैं!

    बड़ा होने पर जब दाढ़ी होगी, मैं भी दाढ़ी रखाऊँगा दादा ख़ूब लंबी दाढ़ी।

    सुभान दादा ने मुझे उठाकर गोद में ले लिया, फिर कंधे पर चढ़कर इधर-उधर घुमाया। तरह-तरह की बातें सुनाई, कहानियाँ कहीं, मेरा मन बहलाकर कह फिर अपने काम में लग गए। मुझे मालूम होता था, काम और अल्लाह—ये ही दो चीज़ें संसार में उनके लिए सबसे प्यारी हैं। काम करते हुए अल्लाह को नहीं भूलते थे और अल्लाह से फुरसत पाकर फिर झट काम में जुट या जुत जाना पवित्र कर्तव्य समझते थे और काम और अल्लाह का यह सामंजस्य उनके दिल में प्रेम की वह मंदाकिनी बहाता रहता था, जिसमें मेरे जैसे बच्चे भी बड़े मज़े में डुबकियाँ लगा सकते थे, चुभकियाँ ले सकते थे।

    नानी ने कहा, सवेरे नहा, खा लो आज तुम्हें हुसैन साहब के पैक में जाना होगा! सुभान ख़ाँ आते ही होंगे!

    जिन कितने देवताओं की मनौती के बाद माँ ने मुझे प्राप्त किया था, उनमें एक हुसैन साहब भी थे। नौ साल की उम्र तक, जब तक जनेऊ नहीं हो गई थी, मुहर्रम के दिन मुसलमान बच्चों की तरह मुझे भी ताजिए के चारों और रंगीन छड़ी लेकर कूदना पड़ा है और गले में गंडे पहनने पड़े हैं। मुहर्रम उन दिनों मेरे लिए कितनी ख़ुशी का दिन था! नए कपड़े पहनता, उछलता कूदता, नए-नए चेहरे और तरह-तरह के खेल देखता, धूम-धक्कड़ में किस तरह चार पहर गुज़र जाते! इस मुहर्रम के पीछे जो रोमांचकारी हृदय को पिघलानेवाली, करुण रस से भरी दर्द-अंगेज़ घटना छिपी हैं, उन दिनों उसकी ख़बर भी कहाँ थी!

    ख़ैर, मैं नहा धोकर, पहन ओढ़कर इंतिज़ार ही कर रहा था कि सुभान दादा पहुँच गए, मुझे कंधे पर ले लिया और अपने गाँव में ले गए।

    उनका घर क्या था, बच्चों का अखाड़ा बना हुआ था। पोते-पोतियों, नाती नातिनों की भरमार थी उनके घर में। मेरी ही उम्र के बहुत बच्चे रंगीन कपड़ों से सजे-धजे—सब मानो मेरे ही इंतिज़ार में! जब पहुँचा, सुभान दादा की बूढ़ी बीवी ने मेरे गले में एक बद्धी डाल दी, कमर में घंटी बाँध दी, हाथ में दो लाल चूड़ियाँ दे दी और उन बच्चों के साथ मुझे लिए-दिए करबला की ओर चलीं। दिन भर उछला कुदा तमाशे देखे, मिठाइयाँ उड़ाई और शाम को फिर सुभान दादा के कंधे पर घर पहुँच गया।

    ईंद-बक़रीद को सुभान दादा हमें भूल सकते थे, होली दीवाली को हम उन्हें! होली के दिन नानी अपने हाथों में पुए, खीर और गोश्त परोसकर सुभान दादा को खिलाती और तब मैं ही अपने हाथों से अबीर लेकर उनकी दाढ़ी में मलता एक बार जब उनकी दाढ़ी रंगीन बन गई थी, मुझे पुरानी बात याद गई। मैंने कहा—

    सुभान दादा, रसूल की दाढ़ी भी तो ऐसी ही रंगीन रही होगी?

    उस पर अल्लाह ने ही रंग दे रखा था, बबुआ! अल्लाह की उन पर ख़ास मेहरबानी थी। उनके जैसा नसीब हम मामूली इंसानों को कहाँ!

    ऐसा कहकर झट आँखें मूँदकर कुछ बुदबुदाने लगे—जैसे वह ध्यान में उन्हें देख रहे हों!

    मैं भी कुछ बड़ा हुआ, उधर दादा भी आख़िर हज कर ही आए। अब मैं बड़ा हो गया था, लेकिन उन्हें छुहारे की बात भूली नहीं थी। जब मैं छुट्टी में शहर के स्कूल से लौटा, दादा यह अनुपम सौगात लेकर पहुँचे। इधर उनके घर की हालत भी अच्छी हो चली थी। दादा के पुण्य और लायक़ बेटों की मेहनत ने काफ़ी पैसे इकट्ठे कर लिए थे लेकिन उनमें वही विनम्रता और सज्जनता थी और पहले की ही तरह शिष्टाचार निबाहा। फिर छुहारे निकाल मेरे हाथ पर रख दिए—“बबुआ, यह आपके लिए ख़ास अरब से लाया हूँ याद है न, आपने इसकी फ़रमाइश की थी। उनके नथुने आनंदातिरेक से हिल रहे थे।

    छुहारे लिए सिर चढ़ाया—ख़्वाहिश हुई, आज फिर में बच्चा हो पाता और उनके कंधे से लिपटकर उनकी सफ़ेद दाढ़ी में, जो अब सचमुच नूरानी हो चली थी, उँगलियाँ घुसाकर उन्हें 'दादा, दादा' कहकर पुकार उठता! लेकिन मैं अब बच्चा हो सकता था, ज़बान में वह मासूमियत और पवित्रता रह गई थी! अँग्रेज़ी स्कूल के वातावरण ने अजीब अस्वाभाविकता हर बात में ला दी थी। पर हाँ, शायद एक ही चीज़ अब भी पवित्र रह गई थी—आँखों ने आँसू की छलकन से अपने को पवित्र कर चुपचाप ही उनके चरणों में श्रद्धांजलि चढ़ा दी।

    हज से लौटने के बाद सुभान दादा का ज़ियादा वक़्त नमाज़-बंदगी में ही बीतता दिन भर उनके हाथों में तसबीह के दाने घूमते और उनकी ज़बान अल्लाह की रट लगाए रहती। अपने जवार भर में उनकी बुज़ुर्गी की धाक थीं। बड़े-बड़े झगड़ों की पंचायतों में दूर-दूर के हिंदू-मुसलमान उन्हें पंच मुक़र्रर करते, उनकी ईमानदारी और दयानतदारी की कुछ ऐसी ही धूम थी।

    सुभान दादा का एक अरमान था—मस्जिद बनाने का। मेरे मामा का मंदिर उन्होंने ही बनाया था। उन दिनों वह साधारण राज थे लेकिन तो भी कहा करते—'अल्लाह ने चाहा तो मैं एक मस्जिद ज़रूर बनवाऊँगा।

    अल्लाह ने चाहा और वैसा दिन आया। उनकी मस्जिद भी तैयार हुई। गाँव के ही लायक़ एक छोटी सी मस्जिद, लेकिन बड़ी ही ख़ूबसूरत दादा ने अपनी ज़िंदगी भर की अर्जित कला इसमें ख़र्च कर दी थी। हाथ में इतनी ताक़त नहीं रह गई थी कि अब ख़ुद कन्नी या बसूली पकड़ें, लेकिन दिन भर बैठे-बैठे एक-एक ईंट की जुड़ाई पर ध्यान रखते और उसके भीतर-भीतर जो बेलबूटे काढ़े गए थे, उनके सारे नक़्शे उन्होंने ही खींचे थे, और उनमें से एक-एक का काढ़ा जाना उनकी ही बारीक निगरानी में हुआ था।

    मेरे मामाजी के बग़ीचे में शीशम, सखुए कटहल आदि इमारतों में काम आने वाले पेड़ों की भरमार थी। मस्जिद की सारी लकड़ी हमारे ही बग़ीचे से गई थी।

    जिस दिन मस्जिद तैयार हुई थी, सुभान दादा ने जवार भर के प्रतिष्ठित लोगों को न्योता दिया था। जुमा का दिन था। जितने मुसलमान थे, सबने उसमें नमाज़ पढ़ी थी। जितने हिंदू आए थे, उनके सत्कार के लिए दादा ने हिंदू हलवाई रखकर तरह-तरह की मिठाइयाँ बनवाई थीं, पान-इलायची का प्रबंध किया था। अब तक भी लोग उस मस्जिद के उद्घाटन के दिन की दादा की मेहमानदारी भूले नहीं हैं।

    ज़माना बदला। मैं अब शहरों में ही ज़ियादातर रहा और शहर आए दिन हिंदू-मुसलिम दंगों के अखाड़े बन जाते थे। हाँ, आए दिन देखिएगा, एक ही सड़क पर हिंदू-मुसलमान चल रहे हैं, एक ही दुकान पर सौदे ख़रीद रहे हैं, एक ही सवारियों पर ज़ानू-ब-ज़ानू आ-जा रहे हैं, एक ही स्कूल में पढ़ रहे हैं। एक ही दफ़्तर में काम कर रहे हैं कि अचानक सबके सिर पर शैतान सवार हो गया! हल्ला, भगदड़, मारपीट, ख़ूनख़राबा, आगज़नी, सारी ख़ुराफ़ातों की छूट! घर महफ़ूज़, शरीर, इज़्ज़त! प्रेम भाईचारे और सहृदयता के स्थान पर घृणा, विरोध और नृशंस हत्या का उल्लंग नृत्य!

    शहरों की यह बीमारी धीरे-धीरे देहात में घुसने लगी। गाय और बाजे के नाम पर तकरारें होने लगीं। जो ज़िंदगी भर क़साईख़ानों के लिए अपनी गायें बेचते रहे, वे ही एक दिन किसी एक गाय के कटने का नाम सुनकर ही कितने इंसानों के गले काटने को तैयार होने लगे। जिनके शादी-ब्याह, परब-त्यौहार बिना बाजे के नहीं होते, जो मुहर्रम की गर्मी के दिन भी बाजे-गाजों की धूम किए रहते, अब वे ही अपनी मस्जिद के सामने से गुज़रते हुए एक मिनट के बाजे पर ख़ून की नदियाँ बहाने को उतारू हो जाते!

    कुछ पंडितों की बन आई, कुछ मुल्लाओं की चलती बनी। संगठन और तंज़ीम के नाम पर फूट और कलह के बीज बोए जाने लगे। लाठियाँ उछली, छुरे निकले। खोपड़ियाँ फूटीं, अंतड़ियाँ बाहर आईं। कितने नौजवान मरे, कितने घर फूँके! बाक़ी बच गए खेत-खलिहान, सो अँग्रेज़ी अदालत के ख़र्चे में पीछे कुर्क हुए।

    ख़बर फैली, इस साल सुभान दादा के गाँव के मुसलमान भी क़ुर्बानी करेंगे। जवार में मुसलमान कम थे, लेकिन उनके जोश का क्या कहना? इधर हिंदुओं की जितनी गाय पर ममता थी, उससे ज़ियादा अपनी तादाद पर घमंड था। तना-तनी का बाज़ार गर्म! ख़बर यह भी फैली कि सुभान ख़ाँ की मस्जिद में ही कुरबानी होगी।

    एँ, सुभान ख़ाँ की मस्जिद में ही क़ुरबानी होगी! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।”

    “अगर हुई, तो क्या होगा? हमारी नाक कट जाएगी! लोग क्या कहेंगे, इतने हिंदू के रहते गो-माता के गले पर छुरी चली!'

    छुरी से गो-माता को बचाना है तो गौरागौरी के क़साईख़ाने पर हम धावा करें? और, अगर सचमुच जोश है तो चलिए, मुज़फ़्फ़रपुर अँग्रेज़ी फ़ौज की छावनी पर ही धावा बोलें। क़साईख़ाने में तो बूढ़ी गायें कटती हैं, छावनी में तो मोटी-ताज़ी बछियाँ ही काटी जाती हैं।

    लेकिन वे तो हमारी आँखों से दूर हैं देखते हुए मक्खी कैसे निगली जाएगी?

    माफ कीजिए। दूर-नज़दीक की बात नहीं है। बात है हिम्मत की, ताक़त की। छावनी में आप नहीं जाते हैं, इसलिए कि वहाँ सीधे तोप के मुँह में पड़ना होगा यहाँ मुसलमान एक मुट्ठी हैं, इसलिए आप टूटने को उतावले हैं!”

    “आप सुभान ख़ाँ का पक्ष ले रहे हैं, दोस्ती निभाते हैं! धर्म से बढ़कर दोस्ती नहीं।

    कुछ नौजवानों को मेरे मामाजी की बातें ऐसी बुरी लगों कि सख़्त-सुस्त कहते वहाँ से उठकर चल दिए। लेकिन कितना भी ग़ुस्सा किया जाए, चीख़ा-चिल्लाया जाए, यह साफ़ बात है कि मामा की बिना रज़ामंदी के किसी बड़ी घटना के लिए किसी की पैर उठाने की हिम्मत नहीं हो सकती थी। उधर सुभान दादा के दरवाज़े पर भी मुसलमानों की भीड़ है जाने दादा में कहाँ का जोश गया है। वह कड़कर कह रहे हैं—

    गाय की क़ुरबानी नहीं होगी ये फ़ालतू बातें सुनने को मैं तैयार नहीं हूँ तुम लोग हमारी आँखों के सामने से हट जाओ।

    क्यों नहीं होगी? क्या हम अपना मज़हब डर के मारे छोड़ देंगे?''

    मैं कहता हूँ, यह मज़हब नहीं है। मैं हज से हो आया हूँ, क़ुरान मैंने पढ़ी है। गाय की क़ुरबानी लाज़िमी नहीं हैं। अरब में लोग दुंबे और ऊँट की क़ुरबानी उमूमन करते हैं।

    लेकिन हम गाय की ही क़ुरबानी करें तो वे रोकनेवाले कौन होते हैं? हमारे मज़हब में वे दख़ल-अंदाज़ी क्यों करेंगे?

    उनकी बात उनसे पूछो मैं मुसलमान हूँ, कभी अल्लाह को नहीं भूला हूँ। मैं मुसलमान की हैसियत से कहता हूँ, मैं गाय की क़ुरबानी होने दूँगा, होने दूँगा!

    दादा की समूची दाढ़ी हिल रही थी, ग़ुस्से से चेहरा लाल था, होंठ फड़क रहे थे, शरीर तक हिल रहा था। उनकी यह हालत देख सभी चुप रहे। लेकिन एक नौजवान बोल उठा, आप बड़े हैं, आप अब अलग बैठिए। हम काफ़िरों से समझ लेंगे।

    दादा चीख़ उठे, कल्लू के बेटे, ज़बान संभालकर बोल! तू किन्हें काफ़िर कह रहा है? और मेरे बुढ़ापे पर मत जा—मैं मस्जिद में चल रहा हूँ। पहले मेरी क़ुरबानी हो लेगी, तब गाय की कुरबानी हो सकेगी।

    सुभान दादा वहाँ से उसी तनातनी की हालत में मस्जिद में आए। नमाज़ पढ़ी। फिर तसबीह लेकर मस्जिद के दरवाज़े की चौखट पर “मेरी लाश पर हो कर ही कोई भीतर घुस सकता है। कहकर बैठ गए। उनकी आँख मुँदी हैं, किंतु आँसुओं की झड़ी उनके गाल से होती, उनको दाढ़ी को भिगोती, अजस्त्र रूप में गिरती जा रही है। हाथ में तसबीह के दाने हिल रहे हैं और होंठों पर ज़रा ज़रा जुंबिश है। नहीं तो उनका समूचा शरीर संगमरमर की मूर्ति सा लग रहा है—निश्चल, निस्पंद धीरे-धीरे मस्जिद के नज़दीक लोग इकट्ठे होने लगे। पहले मुसलमान फिर हिंदू भी। अब गाय की क़ुरबानी का सवाल दादा की आँसुओं की धारा में बहकर जाने कहाँ चला गया था! वह साक्षात् देवदूत से दीख पड़ते थे। देवदूत, जिसके रोम-रोम से प्रेम और भाईचारे का संदेश निकलकर वायुमंडल को व्याप्त कर रहा था।

    अभी उस दिन मेरी रानी मेरे दो वर्ष जेल में जाने के बाद इतने लंबे अरसे तक राह देखती-देखती आख़िर मुझसे मिलने 'गया' सेंट्रल जेल में आई थी।

    इतने दिनों की बिछुड़न के बाद मिलने पर जो सबसे पहली चीज़ उसने मेरे हाथों पर रखी ये थे रेशम और कुछ सूत के अजीब-ओ-ग़रीब ढंग से लिपटे लिपटाए डोरे, बुद्धियाँ, गंडे आदि। यह सूरत देवता के हैं, यह अनंत देवता के, यह ग्राम-देवता के यूँ ही गिनती गिनती, आख़िर में बोली, ये हुसैन साहब के गड़े हैं। आपको मेरी क़सम इन्हें ज़रूर ही पहन लीजिएगा।

    ये सब मेरी माँ की मन्नतों के अवशेष चिह्न हैं। माँ चली गई। लेकिन तो भी ये मन्नतें अब भी निभाई जा रही हैं। रानी जानती हैं, मैं नास्तिक हूँ। इसलिए जब-जब इनके मौक़े आते हैं, ख़ुद इन्हें मेरे गले में डाल देती है। आज इस जेल में जेल कर्मचारियों और ख़ुफिया पुलिस के सामने उसने ऐसा नहीं किया, लेकिन क़सम देने से नहीं चूकी। मैंने भी हँसकर मानो उसकी दिलजमई कर दी।

    रानी चली गई, लेकिन वे गंडे अब भी मेरे सूटकेस में संजोकर रखे हैं।

    जब-जब सूटकेस खोलता हूँ और हुसैन साहब के उन गंडों पर नज़र पड़ती है, तब-तब दो अपूर्व तसवीर आँखों के सामने नाच जाती हैं—पहला कर्बला की; जिसमें एक और कुल मिलाकर सिर्फ़ बहत्तर आदमी हैं, जिनमें बच्चे और औरतें भी हैं। इस छोटी सी जमात के सरदार हैं हजरत हुसैन साहब! इन्हें बार-बार आग्रह करके बुलाया गया था—कूफ़ा की गद्दी पर बिठलाने के लिए। लेकिन गद्दी पर बिठाने के बदले आज उनके लिए एक चुल्लू पानी का मिलना भी मुहाल कर दिया गया है। सामने फ़रात नदी बह रही है, लेकिन उसके घाट-घाट पर पहरे हैं, उन्हें पानी लेने नहीं दिया जा रहा है। कहा जाता है—'दुराचारी, दुराग्रही यज़ीद की सत्ता क़बूल करो, नहीं तो प्यासे तड़पकर मरो' बच्चे प्यास के मारे बिलबिला रहे हैं; उनकी माँ और बहनें तड़प रही हैं। हाय रे, एक चुल्लू पानी मेरे लाल के कंठ सूखे जा रहे हैं, उसकी साँस रुकी है। पानी, एक चुल्लू पानी!

    पानी की तो नदी बह रही है और तुम्हें इज़्ज़त और दौलत भी कम नहीं बख़्शी जाएगी, क्योंकि तुम ख़ुद रसूल जो हो। लेकिन, शर्त यह है कि यज़ीद के हाथ पर बैत करो।

    यज़ीद के हाथ पर बेत? दुराचारी, दुराग्रही यज़ीद की सत्ता क़बूल करने और रसूल का नवासा? हो नहीं सकता हम एक चुल्लू पानी में डूब मरना पसंद करेंगे, लेकिन यह नीच काम रसूल के नाती से नहीं होगा।

    लेकिन, बच्चों के लिए तो पानी लाना ही है। उन्हें यूँ जीते जी तड़पकर मरने नहीं दिया जा सकता!

    एक और बहत्तर आदमी, जिसमें बच्चे और स्त्रियाँ भी, दूसरी ओर दुराचारी यज़ीद की अपार सजी-सजाई फ़ौज! लड़ाई होती है, हज़रत हुसैन और उनका पूरा क़ाफ़िला उस कर्बला के मैदान में शहादत पाता है। शहीदों के रक्त से उस सहरा के रजकण लाल हो उठते हैं, बच्चों की तड़प और अबलाओं की चीख़ से वातावरण थर्रा उठता है। इतनी बड़ी दर्दनाक घटना संसार के इतिहास में मिलना मुश्किल है। मुहर्रम उसी दिन का करुण स्मारक हैं। संसार के कोने-कोने में यह स्मारक हर मुसलमान मनाता है। भाईचारा बढ़ाने पर हिंदुओं ने भी इसे अपना त्योहार बना लिया था, जो सब तरह ही योग्य था।

    और दूसरी तसवीर सुभान दादा की—

    जिनके कंधे पर चढ़कर मैं मुहर्रम देखने जाया करता था। वह चौड़ी पेशानी, वह सफ़ेद दाढ़ी वै ममता भरी आँखें, वे शहद टपकाने वाले होंठ, उनका यह नूरानी चेहरा! जिनकी जवानी अल्लाह और काम के बीच बराबर हिस्से में बँटी थी! जिनके दिमाग़ में आला ख़याल थे और हृदय में प्रेम की धारा लहराती थी! वह प्रेम की धारा—जो अपने पराए सबको समान रूप से शीतल करती और सींचती है।

    मेरा सिर सिज्दे में झुका है—कर्बला के शहीद के सामने! मैं सप्रेम नमस्कार करता हूँ—अपने प्यारे सुभान दादा को!

    स्रोत :
    • पुस्तक : माटी की मूरतें
    • रचनाकार : रामवृक्ष बेनीपुरी
    • प्रकाशन : अनुपम प्रकशन पटना
    • संस्करण : 1962

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