4 अगस्त 1939। पानी मूसलाधार बरस रहा है। बाहर चरवाहे गला खोलकर बिरहा गा रहे हैं। एक अजब सुरूर मेरी आत्मा पर छा गया है। मैं झूम-झूमकर गुनगुनाता हूँ, एकाकिनी बरसातें। मेरे मकान के बाहर ताल मे बटु-समुदाय वेद-पाठ करता है। वह जेठ की विकट गर्मी; वह आषाढ़ का 'पके जामुन के रंग-सा पाग'; और अब सावन-भादो की यह शीतल, कमल की पंखुड़ियों-सी रिमझिम, और धन की चोट-सी मूसलाधार बरसात।
अनेक चित्र मेरे मन में बनते-बिगड़ते हैं। हिटलर की तानाशाही...यूरोप पर आतंक एक के बाद दूसरे देश की स्वाधीनता का अंत, चीन, स्पेन, अबीसीनियाँ, ऑस्ट्रिया चकोस्लोवाकिया, आलवेनिया...मानव की कुंठित आत्मा All Ouiet on the Western Front की प्रतियों की होली म्यूनिक की घूस। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का प्रपंच और आज उनकी घबराहट...फिर भी रूस और समाजवाद के प्रति भय और संशय... अंत में शतरंजी चालों में चेंबरलेन की पूर्ण पराजय...
कॉलेज के दिन। फ़ुटबाल के मैच। छात्रों का उत्साह। शिक्षकों की परीक्षक बनने के लिए चालें। और बाक़ी वही बेमानी, बे-सर-पैर की बातें कौन किस लड़की अथवा लड़के के साथ बात कर रहा था किसके कपड़े ज़्यादा क़ीमती हैं मानो संसार-व्यापी लोमहर्पण युद्ध के बादल आकाश में घिरे ही न हों! मानो वेल्स की भविष्यवाणी The Shape of Things To Come से उनका कुछ संबंध ही न हो। और यह युद्ध इस पृथ्वी की संस्कृति नहीं वरन् शुक्र, शनि अथवा मंगल आदि किसी दूरस्थ ग्रह-उपग्रह की संस्कृति को नष्ट करेगा!
4 सितंबर 1940। युद्ध को एक वर्ष हो गया। इस बीच बहुत कुछ उथल-पुथल और विचारों में रद्द-ओ-बदल हुआ है। फ़ासिस्ट सेनाएँ युरोप पर हावी हैं, मानो उनकी गति में कोई प्रतिरोध पड़ ही नहीं सकता। पुराने साम्राज्यवादों की जड़ें हिल रही हैं। दीवारों के पीछे। छिपकर लड़ना असंभव हो रहा है। यह युद्ध प्रगतिशील है। वायुयान और टैंक इसके वाहन है। पेट्रोल इसकी जीवन-शक्ति है। पुराने पढ़े तोते इस युद्ध में ठीक, नेतृत्व नहीं कर पाते। वे पुराने सबक़ ही नहीं भूल सकते।
इस भूकंप सागर मे समाजवाद की दृढ़ नीति ही हमारा अवलंब है। शोषित मानव साम्राज्यवादों के संघर्ष से अलग रह कर ही जी सकेगा और पनप सकेगा।
भारत में घोर दमन। कांग्रेस की अकर्मण्यता। व्यक्तिगत सत्याग्रह का खेल। कम्यूनिस्ट पार्टी का गैरक़ानूनी जीवन। रात में भाग दौड़ और मीटिंग, पकड़-धकड़। देवली। सामाजवादियों को विराट नज़रबंदी।
एक विरसता और ग्लानि का भाव मन में पैदा होता है। मानव की इस अभूतपूर्व बलि का क्या फल होगा? इतिहास की शक्तियाँ मनुष्य को किधर घसीट रही हैं? उनका स्वामी होने के बजाए आज वह उनका दास बन गया है।
22 जून, 1941। अल्मोड़े के गर्मी भरे दिन। नंगे लाल पहाड़ों की घाटियों में हवा टकराया करती है, किंतु कोई स्निग्धता अथवा शीतलता उसमें नहीं। वही हवा गर्मी से झुलसे मैदानों में लू बन जाती है और दोपहर में बाहर निकलने वालों को भून डालती है। हम बरांडे में बैठकर हवा की लहरों में डूबना चाहते है, लेकिन लहरें दूर-दूर से ही लौट जाती हैं। देवदार के पेड़ों में हवा की सनसनाहट भरती है और उसे सुनकर हमारे कान शीतल होते हैं।
दोपहर के लगभग अख़बार आया। उस दिन की ख़बर पढ़ कर हम सन्नाटे में आ गए। जर्मनी ने रूस पर आक्रमण कर दिया। यह युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।
फ़ासिज़्म ने आख़िरकार अपने जन्म को सार्थक किया। जिस कारण पूँजीवाद ने उसे लाड़-प्यार से पाला-पोसा था, उसका फल आज मिला। लेकिन आज पूँजीवाद स्वयं दो दलों में बँट रहा था और एक की हार दूसरे की जीत न होगी, क्योंकि जनता का प्रभाव युद्ध की गति पर अधिकाधिक गहरा होता जाएगा।
आज, प्राण-पण से हम फ़ासिज़्म की पराजय चाहते हैं, क्योंकि उसने समाजवाद के दुर्ग पर हथियार उठाने का दुस्साहस किया है।
मई 1942। प्रयाग में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठके हो रही है। शाम होते-होते भीड़ का हुजूम टैगोर नगर में एकत्रित होता है और खुले मैदान में, कलापूर्ण वातावरण में बैठकर राष्ट्रीय नेताओं के भाषण सुनता है। इन जोशीली स्पीचों की एक ही टेक है : ब्रिटिश साम्राज्यवाद बालू की कच्ची दीवार है। जापान के एक ही धक्के से वह हिल चुकी है। हमने एक धक्का दिया और वह गिरी। प० गोविंदवल्लभ पंत के भाषण में यह बात खुले तौर से थी। प० जवाहरलाल नेहरू भी कहते थे कि यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद बड़ा खोखला निकला। एक अजब हैरत और अचंभा हम इस छोटी काँग्रेस में देखते थे कि ताश के पत्तों की तरह अंग्रेज़ों के साम्राज्य का क़िला गिर रहा था।
क्रिप्स प्रस्ताव कांग्रेस ने नामंज़ूर कर दिया था। प० जवाहर लाल नेहरू ने 'गोरिला' लड़ाई का ज़िक्र किया था और फिर गाँधी जी के कुछ वक्तव्यों के कारण अपने सींग अंदर खींच लिए थे। जापान भारत की सरहद पर था। प्रगतिवादी नेता कहते थे, उनसे मोर्चा लेना ज़रूरी है। वे जातियों को आत्म-निर्णय का अधिकार देने के पक्ष में भी थे।
परिस्थिति बड़ी जटिल और उलझी थी। इस धुँआधार अँधेरे में हाथ मारा न सूझता था। हम बहे चले जा रहे थे। शायद शीघ्र ही चट्टानें हमें चकनाचूर कर देंगी। एक हल्की लौ जो दिल्ली में चमकी थी, प्रयाग में बुझ चली।
26 मई, 1942। दिल्ली में अखिल भारतीय फ़ासिस्ट-विरोधी लेखक कॉन्फ़्रेंस हो रही थी। इस कॉन्फ़्रेंस के नाम बड़े, दर्शन छोटे थे। हाँ, हिंदी और उर्दू के लेखकों की यहाँ अच्छी भीड़ थी। कुछ लेखक प्रत्येक कॉन्फ़्रेंस में पहुँचना अपना फ़र्ज़ भी समझते हैं। ऐसे लेखकों ने छूटते ही पूछा— 'हमें फ़ासिज़्म से क्या मतलब?' वे केवल कविता सुनाने आए थे। हरेन चट्टोपाध्याय अपना प्रारंभिक भाषण देने के समय न जाने कहाँ थे। जो विभूतियाँ फ़ासिज़्म से टक्कर लेने के लिए आतुर थी, उनमें वात्स्यायन, कृष्णचंद्र, सज्जाद ज़हीर, शिवदानसिंह चौहान, 'डॉ अलीम, अली सरदार जाफ़री, मजाज़ आदि प्रमुख थे। किंतु हम इस विचार से सांत्वना और सुख पाते थे कि छोटे आरंभ से ही बड़े फल निकलते हैं।
इस बीच हमें धूप, लू, गर्मी, पसीना, भाग-दौड़, बेवक़्त खाना-पीना और कॉफ़ी-हाउस में अगणित कॉफ़ी के प्यालों की याद ही अधिक ताज़ी है।
रेडियोवालों ने हमारा मुशाइरा अपने क़ब्ज़े में कर लिया। उन्होंने ही कविताओं का संकलन और संपादन किया और कवियों को ख़ुश और नाराज़ किया। इस प्रहसन के लिए हमें रेडियो के कर्णधारों का आभारी होना चाहिए।
7 अगस्त 1942। एकाकिनी बरसात फिर घिरी है। काले बादल आकाश में घिरते आते हैं बरस पड़ते हैं और एक बार फिर घिर आते हैं। भारत के राजनीतिक आकाश में भी काले बादल घिरे हैं। बंबई में ऑल-इंडिया-कांग्रेस कमेटी की बैठक हो रही है। कांग्रेस जापानी फ़ासिज़्म के विरुद्ध देश की रक्षा करना चाहती है और इसके लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद से ताक़त छीनना चाहती है। बिना हथियारों के देश की रक्षा संभव नहीं। हथियार हमारे पास है नहीं। उन्हीं के लिए हमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ना होगा। यह कांग्रेस की दुविधा है। हम जिसके विरुद्ध देश की रक्षा का बीड़ा उठा रहे है, आज हमारा हर क़दम मानो उसकी मदद करता है। देश की रक्षा के लिए जो आंदोलन हम तैयार करते है, वह देश-रक्षा असंभव कर देता है।
एक कच्चे धागे, से तलवार हमारे सिर पर लटक रही थी। उसके बोझ से धागा कट रहा था। हमने मानो उस धागे को सहारा देने के लिए एक तलवार ऊपर उछाली।
26 मई 1943 परिस्थिति बिगड़ती ही जा रही है। हर चीज़ मँहगी। हमारे ऐसे मध्य वर्ग के लोगों की मुसीबत हो गई है, ग़रीबों की क्या कहें! अकसर बाज़ार में गेहूँ नहीं मिलता, ज्वार और बाजरा ख़रीदना पड़ता है। हर चीज़ के दाम चौगुने-पंचगुने हो रहे हैं। घी-दूध नसीब ही नहीं होता। दूध कम-से-कम बच्चों के लिए तो ज़रूरी है। तेल के दाम बढ़कर घी के बराबर हो गए। दालदा पर जीवन-रथ चलता है अब तो। लेकिन वह भी आठ रुपए का टीन हो गया। दोस्त कहते है, दुबले हुए जा रहे हो। मैं जवाब देता हूँ : दालदा! फिर भी हम दालदा का आभार मानते हैं। कम-से-कम उसके कारण खाने में कोई गंदगी तो नहीं जाती और स्निग्धता तो मिलती ही है।
इस युद्ध ने पहली बार हमारे देश को उन आपत्तियों से परिचित कराया है, जो साम्राज्यवाद दुनिया पर लादता है। यह भी एक तरह से अच्छा है, क्योंकि यह दुनिया की जनता के लिए हमेशा को चेतावनी होगी।
हमारे देश की हालत भी सचमुच दयनीय है। हमारी नाव की पतवार दूसरों के हाथ में है और हम असहाय चट्टानों की ओर बहे चले जा रहे हैं।
4 अगस्त 1943। आख़िरकार नाव चट्टानों से टकरा ही गई। हमने उस शक्ति और सूझ का परिचय न दिया, जो परिस्थिति हमसे माँग रही थी।
बंगाल में अकाल। मनुष्य मक्खियों की तरह दिन-प्रति-दिन मर रहे हैं। और हम कुछ नहीं कर पाते! यह मनुष्य का गढ़ा हुआ अकाल है, सूखा-पानी से इसका कोई संबंध नहीं। देश में अन्न है, लेकिन अन्न-पीड़ितों तक नहीं पहुँच रहा। अनाज-चोर से लड़ने के लिए हिंदू-मुस्लिम जनता एकताबद्ध और संगठित नहीं है।
असल में बात यह है कि हम बहते ही जा रहे हैं, और चट्टानों से टकराकर भी हमें कोई समझ नहीं आती। अगर हमने दृढ़ सशक्त हाथों से नाव की पतवार संभाल नहीं ली, तो मलाया और बर्मा की अवस्था हमारी भी होगी।
हमारे सुंदर देश में प्रकृति का आज भी पट-परिवर्तन होता है। सुनहले बादल सुबह-शाम आकाश में छा जाते हैं, रंग की होली मचती है। लेकिन हमारे मन में एक घना अवसाद भर गया है, एक घनघोर विरसता बरसात के बादलों की तरह आत्मा पर छा गई है। हमें आज 'एकाकिनी बरसात' नहीं सुहाती।
4 सितंबर 1943। युद्ध को छिड़े चार वर्षे हो गए, किंतु हमारी हालत उत्तरोत्तर बिगड़ती ही गई है। बंगाल का अकाल फैलता जा रहा है। इस तूफ़ानी सागर में नाव को हम अब बिना लक्ष्य भटकने नहीं दे सकते। आख़िर को हमें कम्यूनिस्टों की बात माननी ही होगी। आत्मनिर्णय के आधार पर जातियों में समझौता कर एकता के अस्त्र से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दुर्ग पर हम हमला करेंगे, तभी हमारा संकट मिटेगा। यही रास्ता राष्ट्रीय सरकार बनाने का है, और बिना राष्ट्रीय सरकार के हमारा त्राण नहीं।
4 august 1939 pani musladhar baras raha hai bahar charwahe gala kholkar birha ga rahe hain ek ajab surur meri aatma par chha gaya hai main jhoom jhumkar gungunata hoon, ekakini barsaten mere makan ke bahar tal mae batu samuday wed path karta hai wo jeth ki wicket garmi; wo ashaDh ka pake jamun ke rag sa pag; aur ab sawan bhado ki ye shital, kamal ki pankhuDiyon si rimjhim, aur dhan ki chot si musladhar barsat
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college ke din phatbal ke match chhatron ka utsah shikshkon ki parikshak banne ke liye chalen aur baqi wahi bemani, be sar pair ki baten kaun kis laDki athwa laDke ke sath baat kar raha tha kiske kapDe ziyada qimti hain mano sansar wyapi lomharpan yudh ke badal akash mein ghire hi na hon! mano wels ki bhawishyawanai the shape of things to come se unka kuch sambandh hi na ho aur ye yudh is prithwi ki sanskriti nahin waran shukr, shani aywa mangal aadi kisi durasth grah upgrah ki sanskriti ko nasht karega!
4 sitambar 1940 yudh ko ek warsh ho gaya is beech bahut kuch uthal puthal aur wicharon mein radd o badal hua hai fasist senayen yurop par habi hain, mano unki gati mein koi pratirodh paD hi nahin sakta purane samrajywadon ki jaDen hil rahi hain diwaron ke pichhe chhipkar laDna asambhau ho raha hai ye yudh pragtishil hai wayuyan aur tank iske bahan hai petrol iski jiwan shakti hai purane paDhe tote is yudh mein theek, netritw nahin kar pate we purane sabaq hi nahin bhool sakte
is bhukanp sagar mae samajawad ki driDh niti hi hamara awlamb hai shoshait manaw samrajywadon ke sangharsh se alag rah kar hi ji sakega aur panap sakega
bharat mein ghor daman congress ki akarmanyata wyaktigat satyagrah ka khel kamyunist party ka gairqanuni jiwan raat mein bhag dauD aur meeting, pakaD dhakaD dewali samajwadiyon ko wirat nazarbandi
ek wirasta aur glani ka bhaw man mein paida hota hai manaw ki is abhutapurw bali ka kya phal hoga? itihas ki shaktiyan manushya ko kidhar ghasit rahi hain? unka swami hone ke bajay aaj wo unka das ban gaya hai
22 june, 1941 almoDe ke garmi bhare din nange lal pahaDo ki ghatiyon mein hawa takraya karti hai, kintu koi snigdhata athwa shitalta usmen nahin wahi hawa garmi se jhulse maidanon mein lu ban jati hai aur dopahar mein bahar nikalne walon ko bhoon Dalti hai hum waraDe mein baithkar hawa ki lahron mein Dubna chahte hai, lekin lahren door door se hi laut jati hain dewdar ke peDon mein hawa ki sansanahat bharti hai aur use sunkar hamare kan shital hote hain
dopahar ke lagbhag akhbar aaya us din ki khabar paDh kar hum sannate mein aa gaye jarmni ne roos par akramn kar diya ye yudh ki sabse mahatwapurn ghatna thi
fasizm ne akhiraka apne janm ko sarthak kiya jis karan punjiwad ne use laD pyar se pala posa tha, uska phal aaj mila lekin aaj punjiwad swayan do dalon mein bant raha tha aur ek ki haar dusre ki jeet na hogi, kyonki janta ka prabhaw yudh ki gati par adhikadhik gahra hota jayega
aj, paran pan se hum fasizm ki parajay chahte hain, kyonki usne samajawad ke durg par hathiyar uthane ka dussahas kiya hai
mai 1942 prayag mein all india congress committe ki baithke ho rahi hai sham hote hote bheeD ka hujum tagore nagar mein ekatrit hota hai aur khule maidan mein, kalapurn watawarn mein baithkar rashtriya netaon ke bhashan sunta hai in joshili spichon ki ek hi tek hai ha british samrajyawad walu ki kachchi diwar hai japan ke ek hi dhakke se wo hil chuki hai hamne ek dhakka diya aur wo giri pa० gowindwallabh pant ke bhashan mein ye baat khule taur se thi pa० jawaharlal nehru bhi kahte the ki ye british samrajywad baDa khokhla, nikla ek ajab hairat aur achambha hum is chhoti kangres mein dekhte the ki tash ke patton ki tarah angrezon ke samrajy ka qila gir raha tha
krips prastaw congress ne namanzur kar diya tha pa० jawahar lal nehru ne gorila laDai ka zikr kiya tha aur phir gandhi ji ke kuch waktawyon ke karan apne seeng andar kheench liye the japan bharat ki sarhad par tha pragtiwadi neta kahte the, unse morcha lena zaruri hai we jatiyon ko aatm nirnay ka adhikar dene ke paksh mein bhi the
paristhiti baDi jatil aur uljhi thi is dhunadhar andhere mein hath mara na sujhta tha hum bahe chale ja rahe the shayad sheeghr hi chattanen hamein chaknachur kar dengi ek halki lau jo dilli mein chamki thi, prayag mein bajh chali
26 mai, 1942 dilli mein akhil bharatiy fasist wirowi lekhak kamfrens ho rahi thi is kamfrens ke nam baDe, darshan chhote the han, hindi aur urdu ke lekhkon ki yahan achchhi bheeD thi kuch lekhak pratyek kamfrens mein pahunchna apna farz bhi samajhte hain aise lekhkon ne chhutte hi puchha— hamein fasizm se kya matlab? we kewal kawita sunane aaye the haren chattopadhyay apna prarambhik bhashan dene ke samay na jane kahan the jo wibhutiyan fasizm se takkar lene ke liye aatur thi, unmen watsyayan, krishnchandr, sajjad jahir, shiwdansinh chauhan, Da alim, ali sardar jafri, majaj aadi pramukh the kintu hum is wichar se santwna aur sukh pate the ki chhote arambh se hi baDe phal nikalte hain
is beech hamein dhoop, lu, garmi, pasina, bhag dauD, bewaqt khana pina aur kafi house mein agnit kafi ke pyalon ki yaad hi adhik tazi hai
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26 mai, 1942 dilli mein akhil bharatiy fasist wirowi lekhak kamfrens ho rahi thi is kamfrens ke nam baDe, darshan chhote the han, hindi aur urdu ke lekhkon ki yahan achchhi bheeD thi kuch lekhak pratyek kamfrens mein pahunchna apna farz bhi samajhte hain aise lekhkon ne chhutte hi puchha— hamein fasizm se kya matlab? we kewal kawita sunane aaye the haren chattopadhyay apna prarambhik bhashan dene ke samay na jane kahan the jo wibhutiyan fasizm se takkar lene ke liye aatur thi, unmen watsyayan, krishnchandr, sajjad jahir, shiwdansinh chauhan, Da alim, ali sardar jafri, majaj aadi pramukh the kintu hum is wichar se santwna aur sukh pate the ki chhote arambh se hi baDe phal nikalte hain
is beech hamein dhoop, lu, garmi, pasina, bhag dauD, bewaqt khana pina aur kafi house mein agnit kafi ke pyalon ki yaad hi adhik tazi hai
reDiyowala ne hamara mushaira apne qabze mein kar liya unhonne hi kawitaon ka sanklan aur sanpadan kiya aur kawiyon ko khush aur naraz kiya is prahsan ke liye hamein radio ke karndharon ka abhari hona chahiye
7 august 1942 “ekakini warsan phir ghiri hai kale badal akash mein ghirte aate hain baras paDte hain aur ek bar phir ghir aate hain bharat ke rajanaitik akash mein bhi kale badal ghire hain bambi mein aal inDiya kangres committe ki baithak ho rahi hai congress japani fasizm ke wiruddh desh ki rakhsha karna chahti hai aur iske liye british samrajyawad se taqat chhinna chahti hai bina hathiyaron ke desh ki rakhsha sambhaw nahin hathiyar hamare pas hai nahin unhin ke liye hamein british samrajyawad se laDna hoga ye congress ki duwidha, hai hum jiske wiruddh desh ki rakhsha ka biDa utha rahe hai, aaj hamara har qadam mano uski madad karta hai desh ki rakhsha ke liye jo andolan hum taiyar karte hai, wo desh rakhsha asambhau kar deta hai
ek kachche dhage, se talwar hamare sir par latak rahi thi uske bojh se dhaga kat raha tha hamne mano us dhage ko sahara dene ke liye ek talwar upar uchhali
26 mai 1943 paristhiti bigaDti hi ja rahi hai har cheez manhagi hamare aise madhya warg ke logon ki musibat ho gai hai, gharibon ki kya kahen! aksar bazar mein gehun nahin milta, jwar aur bajra kharidna paDta hai har cheez ke dam chaugune panchagune ho rahe hain ghi doodh nasib hi nahin hota doodh kam se kam bachchon ke liye to zaruri hai tel ke dam baDhkar ghi ke barabar ho gaye dalda par jiwan rath chalta hai ab to lekin wo bhi aath rupae ka teen ho gaya dost kahte hai, duble hue ja rahe ho main jawab deta hoon ha dalda! phir bhi hum dalda ka abhar mante hain kam se kam uske karan khane mein koi gandgi to nahin jati aur snigdhata to milti hi hai
is yudh ne pahli bar hamare desh ko un apattiyon se parichit karaya hai, jo samrajyawad duniya par ladta hai ye bhi ek tarah se achchha hai, kyonki ye duniya ki janta ke liye hamesha ko chetawni hogi
hamare desh ki haalat bhi sachmuch dayniy hai hamari naw ki patwar dusron ke hath mein hai aur hum asahaye chattanon ki or bahe chale ja rahe hain
4 august 1943 akhiraka naw chattanon se takra hi gai hamne us shakti aur soojh ka parichai na diya, jo paristhiti hamse mang rahi thi
bangal mein akal manushya makkhiyon ki tarah din prati din mar rahe hain aur hum kuch nahin kar pate! ye manushya ka gaDha hua akal hai, sukha pani se iska koi sambandh nahin desh mein ann hai, lekin ann piDiton tak nahin pahunch raha anaj chor se laDne ke liye hindu muslim janta ektabaddh aur sangthit nahin hai
asal mein baat ye hai ki hum bahte hi ja rahe hain, aur chattanon se takrakar bhi hamein koi samajh nahin aati agar hamne driDh sashakt hathon se naw ki patbar sambhal nahin li, to malaya aur barma ki awastha hamari bhi hogi
hamare sundar desh mein prakrti ka aaj bhi pat pariwartan hota hai sunahle badal subah sham akash mein chha jate hain, rang ki holi machti hai lekin hamare man mein ek ghana awsad bhar gaya hai, ek ghanghor birasta barsat ke badalon ki tarah aatma par chha gai hai hamein aaj ekakini barsat nahin suhati
4 sitambar 1943 yudh ko chhiDe chaar warshe ho gaye, kintu hamari haalat uttarottar bigaDti hi gai hai bangal ka akal phailta ja raha hai is tufani sagar mein naw ko hum ab bina lakshya bhatakne nahin de sakte akhir ko hamein kamyuniston ki baat manni hi hogi aatm nirnay ke adhar par jatiyon mein samjhauta kar ekta ke astra se british samrajyawad ke durg par hum hamla karenge, tabhi hamara sankat mitega yahi rasta rashtriya sarkar banane ka hai, aur bina rashtriya sarkar ke hamara tran nahin
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।