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एक डायरी के पन्ने

ek Diary ke panne

प्रकाशचंद्र गुप्त

प्रकाशचंद्र गुप्त

एक डायरी के पन्ने

प्रकाशचंद्र गुप्त

और अधिकप्रकाशचंद्र गुप्त

    4 अगस्त 1939। पानी मूसलाधार बरस रहा है। बाहर चरवाहे गला खोलकर बिरहा गा रहे हैं। एक अजब सुरूर मेरी आत्मा पर छा गया है। मैं झूम-झूमकर गुनगुनाता हूँ, एकाकिनी बरसातें। मेरे मकान के बाहर ताल मे बटु-समुदाय वेद-पाठ करता है। वह जेठ की विकट गर्मी; वह आषाढ़ का 'पके जामुन के रंग-सा पाग'; और अब सावन-भादो की यह शीतल, कमल की पंखुड़ियों-सी रिमझिम, और धन की चोट-सी मूसलाधार बरसात।

    अनेक चित्र मेरे मन में बनते-बिगड़ते हैं। हिटलर की तानाशाही...यूरोप पर आतंक एक के बाद दूसरे देश की स्वाधीनता का अंत, चीन, स्पेन, अबीसीनियाँ, ऑस्ट्रिया चकोस्लोवाकिया, आलवेनिया...मानव की कुंठित आत्मा All Ouiet on the Western Front की प्रतियों की होली म्यूनिक की घूस। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का प्रपंच और आज उनकी घबराहट...फिर भी रूस और समाजवाद के प्रति भय और संशय... अंत में शतरंजी चालों में चेंबरलेन की पूर्ण पराजय...

    कॉलेज के दिन। फ़ुटबाल के मैच। छात्रों का उत्साह। शिक्षकों की परीक्षक बनने के लिए चालें। और बाक़ी वही बेमानी, बे-सर-पैर की बातें कौन किस लड़की अथवा लड़के के साथ बात कर रहा था किसके कपड़े ज़्यादा क़ीमती हैं मानो संसार-व्यापी लोमहर्पण युद्ध के बादल आकाश में घिरे ही हों! मानो वेल्स की भविष्यवाणी The Shape of Things To Come से उनका कुछ संबंध ही हो। और यह युद्ध इस पृथ्वी की संस्कृति नहीं वरन् शुक्र, शनि अथवा मंगल आदि किसी दूरस्थ ग्रह-उपग्रह की संस्कृति को नष्ट करेगा!

    4 सितंबर 1940। युद्ध को एक वर्ष हो गया। इस बीच बहुत कुछ उथल-पुथल और विचारों में रद्द-ओ-बदल हुआ है। फ़ासिस्ट सेनाएँ युरोप पर हावी हैं, मानो उनकी गति में कोई प्रतिरोध पड़ ही नहीं सकता। पुराने साम्राज्यवादों की जड़ें हिल रही हैं। दीवारों के पीछे। छिपकर लड़ना असंभव हो रहा है। यह युद्ध प्रगतिशील है। वायुयान और टैंक इसके वाहन है। पेट्रोल इसकी जीवन-शक्ति है। पुराने पढ़े तोते इस युद्ध में ठीक, नेतृत्व नहीं कर पाते। वे पुराने सबक़ ही नहीं भूल सकते।

    इस भूकंप सागर मे समाजवाद की दृढ़ नीति ही हमारा अवलंब है। शोषित मानव साम्राज्यवादों के संघर्ष से अलग रह कर ही जी सकेगा और पनप सकेगा।

    भारत में घोर दमन। कांग्रेस की अकर्मण्यता। व्यक्तिगत सत्याग्रह का खेल। कम्यूनिस्ट पार्टी का गैरक़ानूनी जीवन। रात में भाग दौड़ और मीटिंग, पकड़-धकड़। देवली। सामाजवादियों को विराट नज़रबंदी।

    एक विरसता और ग्लानि का भाव मन में पैदा होता है। मानव की इस अभूतपूर्व बलि का क्या फल होगा? इतिहास की शक्तियाँ मनुष्य को किधर घसीट रही हैं? उनका स्वामी होने के बजाए आज वह उनका दास बन गया है।

    22 जून, 1941। अल्मोड़े के गर्मी भरे दिन। नंगे लाल पहाड़ों की घाटियों में हवा टकराया करती है, किंतु कोई स्निग्धता अथवा शीतलता उसमें नहीं। वही हवा गर्मी से झुलसे मैदानों में लू बन जाती है और दोपहर में बाहर निकलने वालों को भून डालती है। हम बरांडे में बैठकर हवा की लहरों में डूबना चाहते है, लेकिन लहरें दूर-दूर से ही लौट जाती हैं। देवदार के पेड़ों में हवा की सनसनाहट भरती है और उसे सुनकर हमारे कान शीतल होते हैं।

    दोपहर के लगभग अख़बार आया। उस दिन की ख़बर पढ़ कर हम सन्नाटे में गए। जर्मनी ने रूस पर आक्रमण कर दिया। यह युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।

    फ़ासिज़्म ने आख़िरकार अपने जन्म को सार्थक किया। जिस कारण पूँजीवाद ने उसे लाड़-प्यार से पाला-पोसा था, उसका फल आज मिला। लेकिन आज पूँजीवाद स्वयं दो दलों में बँट रहा था और एक की हार दूसरे की जीत होगी, क्योंकि जनता का प्रभाव युद्ध की गति पर अधिकाधिक गहरा होता जाएगा।

    आज, प्राण-पण से हम फ़ासिज़्म की पराजय चाहते हैं, क्योंकि उसने समाजवाद के दुर्ग पर हथियार उठाने का दुस्साहस किया है।

    मई 1942। प्रयाग में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठके हो रही है। शाम होते-होते भीड़ का हुजूम टैगोर नगर में एकत्रित होता है और खुले मैदान में, कलापूर्ण वातावरण में बैठकर राष्ट्रीय नेताओं के भाषण सुनता है। इन जोशीली स्पीचों की एक ही टेक है : ब्रिटिश साम्राज्यवाद बालू की कच्ची दीवार है। जापान के एक ही धक्के से वह हिल चुकी है। हमने एक धक्का दिया और वह गिरी। प० गोविंदवल्लभ पंत के भाषण में यह बात खुले तौर से थी। प० जवाहरलाल नेहरू भी कहते थे कि यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद बड़ा खोखला निकला। एक अजब हैरत और अचंभा हम इस छोटी काँग्रेस में देखते थे कि ताश के पत्तों की तरह अंग्रेज़ों के साम्राज्य का क़िला गिर रहा था।

    क्रिप्स प्रस्ताव कांग्रेस ने नामंज़ूर कर दिया था। प० जवाहर लाल नेहरू ने 'गोरिला' लड़ाई का ज़िक्र किया था और फिर गाँधी जी के कुछ वक्तव्यों के कारण अपने सींग अंदर खींच लिए थे। जापान भारत की सरहद पर था। प्रगतिवादी नेता कहते थे, उनसे मोर्चा लेना ज़रूरी है। वे जातियों को आत्म-निर्णय का अधिकार देने के पक्ष में भी थे।

    परिस्थिति बड़ी जटिल और उलझी थी। इस धुँआधार अँधेरे में हाथ मारा सूझता था। हम बहे चले जा रहे थे। शायद शीघ्र ही चट्टानें हमें चकनाचूर कर देंगी। एक हल्की लौ जो दिल्ली में चमकी थी, प्रयाग में बुझ चली।

    26 मई, 1942। दिल्ली में अखिल भारतीय फ़ासिस्ट-विरोधी लेखक कॉन्फ़्रेंस हो रही थी। इस कॉन्फ़्रेंस के नाम बड़े, दर्शन छोटे थे। हाँ, हिंदी और उर्दू के लेखकों की यहाँ अच्छी भीड़ थी। कुछ लेखक प्रत्येक कॉन्फ़्रेंस में पहुँचना अपना फ़र्ज़ भी समझते हैं। ऐसे लेखकों ने छूटते ही पूछा— 'हमें फ़ासिज़्म से क्या मतलब?' वे केवल कविता सुनाने आए थे। हरेन चट्टोपाध्याय अपना प्रारंभिक भाषण देने के समय जाने कहाँ थे। जो विभूतियाँ फ़ासिज़्म से टक्कर लेने के लिए आतुर थी, उनमें वात्स्यायन, कृष्णचंद्र, सज्जाद ज़हीर, शिवदानसिंह चौहान, 'डॉ अलीम, अली सरदार जाफ़री, मजाज़ आदि प्रमुख थे। किंतु हम इस विचार से सांत्वना और सुख पाते थे कि छोटे आरंभ से ही बड़े फल निकलते हैं।

    इस बीच हमें धूप, लू, गर्मी, पसीना, भाग-दौड़, बेवक़्त खाना-पीना और कॉफ़ी-हाउस में अगणित कॉफ़ी के प्यालों की याद ही अधिक ताज़ी है।

    रेडियोवालों ने हमारा मुशाइरा अपने क़ब्ज़े में कर लिया। उन्होंने ही कविताओं का संकलन और संपादन किया और कवियों को ख़ुश और नाराज़ किया। इस प्रहसन के लिए हमें रेडियो के कर्णधारों का आभारी होना चाहिए।

    7 अगस्त 1942। एकाकिनी बरसात फिर घिरी है। काले बादल आकाश में घिरते आते हैं बरस पड़ते हैं और एक बार फिर घिर आते हैं। भारत के राजनीतिक आकाश में भी काले बादल घिरे हैं। बंबई में ऑल-इंडिया-कांग्रेस कमेटी की बैठक हो रही है। कांग्रेस जापानी फ़ासिज़्म के विरुद्ध देश की रक्षा करना चाहती है और इसके लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद से ताक़त छीनना चाहती है। बिना हथियारों के देश की रक्षा संभव नहीं। हथियार हमारे पास है नहीं। उन्हीं के लिए हमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ना होगा। यह कांग्रेस की दुविधा है। हम जिसके विरुद्ध देश की रक्षा का बीड़ा उठा रहे है, आज हमारा हर क़दम मानो उसकी मदद करता है। देश की रक्षा के लिए जो आंदोलन हम तैयार करते है, वह देश-रक्षा असंभव कर देता है।

    एक कच्चे धागे, से तलवार हमारे सिर पर लटक रही थी। उसके बोझ से धागा कट रहा था। हमने मानो उस धागे को सहारा देने के लिए एक तलवार ऊपर उछाली।

    26 मई 1943 परिस्थिति बिगड़ती ही जा रही है। हर चीज़ मँहगी। हमारे ऐसे मध्य वर्ग के लोगों की मुसीबत हो गई है, ग़रीबों की क्या कहें! अकसर बाज़ार में गेहूँ नहीं मिलता, ज्वार और बाजरा ख़रीदना पड़ता है। हर चीज़ के दाम चौगुने-पंचगुने हो रहे हैं। घी-दूध नसीब ही नहीं होता। दूध कम-से-कम बच्चों के लिए तो ज़रूरी है। तेल के दाम बढ़कर घी के बराबर हो गए। दालदा पर जीवन-रथ चलता है अब तो। लेकिन वह भी आठ रुपए का टीन हो गया। दोस्त कहते है, दुबले हुए जा रहे हो। मैं जवाब देता हूँ : दालदा! फिर भी हम दालदा का आभार मानते हैं। कम-से-कम उसके कारण खाने में कोई गंदगी तो नहीं जाती और स्निग्धता तो मिलती ही है।

    इस युद्ध ने पहली बार हमारे देश को उन आपत्तियों से परिचित कराया है, जो साम्राज्यवाद दुनिया पर लादता है। यह भी एक तरह से अच्छा है, क्योंकि यह दुनिया की जनता के लिए हमेशा को चेतावनी होगी।

    हमारे देश की हालत भी सचमुच दयनीय है। हमारी नाव की पतवार दूसरों के हाथ में है और हम असहाय चट्टानों की ओर बहे चले जा रहे हैं।

    4 अगस्त 1943। आख़िरकार नाव चट्टानों से टकरा ही गई। हमने उस शक्ति और सूझ का परिचय दिया, जो परिस्थिति हमसे माँग रही थी।

    बंगाल में अकाल। मनुष्य मक्खियों की तरह दिन-प्रति-दिन मर रहे हैं। और हम कुछ नहीं कर पाते! यह मनुष्य का गढ़ा हुआ अकाल है, सूखा-पानी से इसका कोई संबंध नहीं। देश में अन्न है, लेकिन अन्न-पीड़ितों तक नहीं पहुँच रहा। अनाज-चोर से लड़ने के लिए हिंदू-मुस्लिम जनता एकताबद्ध और संगठित नहीं है।

    असल में बात यह है कि हम बहते ही जा रहे हैं, और चट्टानों से टकराकर भी हमें कोई समझ नहीं आती। अगर हमने दृढ़ सशक्त हाथों से नाव की पतवार संभाल नहीं ली, तो मलाया और बर्मा की अवस्था हमारी भी होगी।

    हमारे सुंदर देश में प्रकृति का आज भी पट-परिवर्तन होता है। सुनहले बादल सुबह-शाम आकाश में छा जाते हैं, रंग की होली मचती है। लेकिन हमारे मन में एक घना अवसाद भर गया है, एक घनघोर विरसता बरसात के बादलों की तरह आत्मा पर छा गई है। हमें आज 'एकाकिनी बरसात' नहीं सुहाती।

    4 सितंबर 1943। युद्ध को छिड़े चार वर्षे हो गए, किंतु हमारी हालत उत्तरोत्तर बिगड़ती ही गई है। बंगाल का अकाल फैलता जा रहा है। इस तूफ़ानी सागर में नाव को हम अब बिना लक्ष्य भटकने नहीं दे सकते। आख़िर को हमें कम्यूनिस्टों की बात माननी ही होगी। आत्मनिर्णय के आधार पर जातियों में समझौता कर एकता के अस्त्र से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दुर्ग पर हम हमला करेंगे, तभी हमारा संकट मिटेगा। यही रास्ता राष्ट्रीय सरकार बनाने का है, और बिना राष्ट्रीय सरकार के हमारा त्राण नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रेखाचित्र
    • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
    • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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