अत्थि पसिद्धु नयरि सोरियपुरु, जंवन्नेवि न सक्कइ सुरगुरु।
जहि पंडुर रेहहिं जिण मंदिर, नावइ हिमगिरि कूड़ समुद्धर॥२॥
हउं सक्खा जिण जम्मण भूमी, तुहु पुणु जिनवर चवणण दूमी।
इया हसइव जं पवणुद्धय मिसि सुरपुरि निब्भय उब्भिय भूय॥३॥
तहिं नरवइ वइरिहि अवराउ, नामि समुद्द विजउ विक्खाउ।
दस दसार जो पढम दसारू, जायव कुल सयलह विजु सारू॥४॥
तस्सय नवरूवा नव जुब्वण, नव गुण पुन्निविणिय गयब्वण।
राणी इयणि यर सम वयणी सिवदेवित्ति हरिण बहु नयणी॥५॥
रायह तीइ पियाए विसयइं सेवंतह।
अइगउ कित्तिउ कालो जिम्ब सग्गि सुरिंदह॥६॥
संखजीव अहदेउ चवित्तु, अवराइय कप्पाउ पवित्तु।
कत्तिय किण्ह दुवालसि कुच्छिहिं, उप्पन्नउ सिवदेवमयच्छिहिं॥७॥
ते सापिच्छिवि चउदस सुमिणइं, हट्ट तुट्ठ उट्ठिवि पिउ पभणइ।
सामिय सुणिमइ सुमिणा दिट्ठ, चउदस सुंदर गुणिहि विसिट्ठ॥८॥
राउ भणइ तुह सुन्दरि नंदणु, होसइ जणमण नयणा णंदणु।
इय भणिया सा पभणइ राइणी, इय महु होस्यउ तुज्झ पसाइण॥९॥
अह सावणसिय पंचमि रतिहि, सुहतिहि सुह नक्खत्त मुहुत्तिहिं।
दस दिसि उज्जोअंतउ कंतिहि, रवि जिव तमहरु भुवण भरंतिहिं॥१०॥
तिहि नाणिहि संजुत्तो जं जिणवरु जायउ।
मायर पियरह ताम्व मणि हरिसु न मायउ॥११॥
तक्खिणि दिसि कुमारिय छषन्ना, सई कम्मु निम्मवहिं सुपन्ना।
ताम्वहि जाणिवि हरि चउसट्ठि, करि समुदउ निम्मल तरदिट्ठि॥१२॥
ते गयमण सम वेगिं सुगिरि सिहरुप्परि।
जाइ नमिवि जिण माया सहरिसु जंपइ हरि॥१३॥
धन्न पुन्न सुकयत्थिय सामिणि, तुह जीविउ सहलउ सिव गामिणि।
जीइ उअरि धरियउ गुण गामिणि, तित्थु नाहु तिहुयण चूडामणि॥१४॥
देवि नमुत्थु महिए तुह तिहुयण लच्छिहिं।
जगभूषण उप्पन्नो जिणथक जसु कुच्छिहि॥१५॥
- पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 49)
- संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
- रचनाकार : सुमति गणि
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
- संस्करण : 1976
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