पंचपंडव चरित रासु (ठवणि ९)
panchpanDaw charit rasu (thawani ९)
वाघ सीह गज द्रेठि पडइ सतीय सयरि ते नवि अभिडइं
राति पडंति पंडव रडइं वलि वलि मूंछी भूमिं पडइ॥२०॥
राखसि धाई गाहिउं रानु आणी द्रूपदि लाघूं मानु
भीमसेन गलि मेल्ही माल कुणबि मिली परिणावी बाल॥२१॥
भोजनु आणइ मारगि वहइ करइ भगति सरसी दुक्ख सहइ
नवउ अवासु करी नइ रमइ पंचह पंडव सरसी भमइ॥२२॥
एक चक्रपुरि पंडव गया देवशर्मबंभण घरि रह्या
हीडइ चालइ बंभणवेसि जिम नोलखीइं तीणं देसि॥२३॥
राइ बोलावो बहू हिडंब “अम्हि वसीसइ वेस विडंबि
तुम्हि सिधावउ तायह राजि समरी आवे अम्हह काजि॥२४॥
करि रखवालुं थांपणि तणुं अजीउ फिरेबुं अम्हि वनि घणुं
नमी हिडंबा पाछी जाइ बापराजि धणियाणी थाइ॥२५॥
अन्न दिवसि बंभणु संकुटंब रल जिम विलवइ पाडइ वुंब
पूछइ भीम करी एकंतु “आविउ दूखु किसु अचिंतु॥२६॥
“बडुया सांभलि” बांभणु भणइ “ए विवहारू नयरि अम्ह तणी
विद्यासिद्धी राखसु हूउ बक नामि छइ जम नउ दूउ॥२७॥
विद्या जोवा तीणं पलासि पहिलु सिला रची आकासि
राजा भीडी अवग्रहु लीउ “पइदिणि नरू एकेकउ दीउ॥२८॥
चीठी काढइ नितू कूंयारि आवइ वारउ जण विवहारि
आजु अम्हारइ आविउ दूउ आज न छूटउं हुं अणमूउ॥२९॥
केवलि वयणु जु कूडउ थाइ जउ नवि अव्या पंडवराय''
पूछीउ भीमि कथा प्रबंधु वणि जाई बग राखसु रूद्धु॥३०॥
॥वस्तु॥
बगु विणासी वगु विणासी भीम आवेइ
बद्धावइ जणु सयलु “जीवदानु तइ देव दिद्धउ
केवलिवयणु जु सच्चु किउ त्रिहु भुयणि जसवाउ लिद्धउ”
पंचइ पंडवडा वसइं तींछे बंभणवेसि
वात गइ जण जण मिली दुरयोधन नइ देसि॥३१॥
राति माहे राति माहे हुई प्रच्छन्न
तउ जाइ द्वैतवणि वसइ वासि उङवा करी नइ
पुरुष प्रियंवदु पाठविउ विदुरि वात बक नी सुणी नइ
पय पणमी सो वीनवइ दुरयोधनु तु मंत्रु
“तुम्ह पासि ए आविसिइं करणु दुर योधन शत्र॥३२॥
ईम निसुणीउ ईम निसुणीउ भणइ पंचालि
“वणि रुलतां अम्ह रहइं अजीय शत्र सिउं सिउ करेसिइं
राजिसिद्धि अम्हह तणी लइय जेण हिव सिउं हरेसिइं
पंचाली मनि परिभवी बोलइ मेल्ही लाज
पांचइजण कंइ हुसिइं तुम्हि किसाइ काज॥३३॥
माइ हूई माइ हुई काइं नवि वंझि
अह जाया नवि मूआ तुम्हे राजु कांई दैवि दिद्धउ
पुत्र वंत नारी अछइ तह माहि तुम्हि अजसु लिद्धउ
केसि धरीनइ ताणीउं दुःसासणि दुरचारि
बालप्पणि हुं नवि मुई काइं तुम्ह नारि”॥३४॥
रोसु नामीउ रोसु नामीउ भीमि अनु पत्थि
राउ भणइ “तां खमउ मुझ वयणु जां अवधि पुज्जई
पंचाली रोसवसिं अवसि अंति अम्ह काजु सिज्झई
सच्च वयणु मनि परिहरउ साचउं जिणधर्ममूलु
सत्यवयणि रूडु पामीइ भवसावर परकूलु”॥३५॥
दुअवयणिं दूअवयणि राउ जूठिल्लु
गिरि गंधमायण गिया इंदकीलु तसे सिहरु दिट्ठऊ
मुकलावी अरजुनु चडई नभीउ तित्यु तसु सिहरि बइट्ठऊ
विद्या सवि सिद्धिं गई जां पेखइ वणराइ
आहेडी अरोडीउ तां एकु सूअरु धाइ॥३६॥
- पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 111)
- संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
- रचनाकार : शालिभद्र सूरि
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
- संस्करण : 1976
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