पणमवि देवि अंबाई, पंचाइण गामिणी।
समरवि देवि सीधाई, जिण सासण सामणि।।
पणमिउ गणहरु गोयम स्वामि, दुरिउ पणासइ जेहनइ नामिइं।
सुहगुरु वयणे संग्रह कीजइं, भोलां लोक सीषामण दीजइ।।
केई बोल जि लोक प्रसिद्धा, गुरु उवएसिइं केई लीद्धा।
ते उपदेश सुणउ सवि रूडा, कुणहइ आल म देयो कूडा।।
जाणीउ धरमु म जीव विणासु, अणजाणिइ घरि म करिसि वासु।
चोरीकारु चडइ अणलीधी, वस्तु सु किमइ म लेसि अदीधी।।
परि घरि गोठि किमइ म जाइसि, कूड उं आलु तुं मुहियां पामिस।
जे घरि हुई एकली नारि, किमइं म जाइसि तेह घरबारि।।
घरपच्छोकडि राषे छीडी, वरजे नारि जि बाहिरि हीडी।
परस्त्री बहिनि भणीनइ माने, परस्त्री बयण म धरजे काने।।
मइ एकलउ मारगि जाए, अणजाणिउ फल किमइं म षाए।
जिमतां माणस द्रे ठी म देजे, अकहिं परि घरि किंपि म लेजे।।
वडां ऊतर किमइं न दीजइं, सीष देयंतां रोस न कीजइं।
ओछइ वासि म बसिजे कीमइं, धरमहीणु भव जासिइ ईमइ।।
छोरू वीटी ज हुइ नारि, तउ सीषामण देजे सारी।
अति अंधारइ नइ आगासइं, डाहउ कोइ न जिमवा बइसइं।।
सीषि म पिसुनपणु अनु चाडी, वचन म दूमिसि तू निय माडी।
मरम पीयारु प्रगट न कीजइ, अधिक लेइ नवि ऊछुं दीजइ।।
विसहरु जातु पाय म चांपे, आविइ मरणि म हीयडइ कांपे।
ग्रहणारु पाषइं ब्याजि म देजे, अणपूछिइ घरि नीर म पीजे।।
कहिसि म कुणहनीय घरि गूझो, मोटां सिउं म मांडिसि झूजो।
अणविमास्यां म करिसि काज, तं न करेवं जिणि हुइं लाज।।
जणि वारितउ गामि म जाए. तं बोले जे पुण निरवाहे।
षातु कांइ हींडि म मागे, पाछिम राति बहिलु जागे।।
हियडइ समरि न कुल आचारो, गणि न असार एह संसारो।
पांचे आंगुलि जं धन दीजइं, परभवि तेहतणुं फलु लीजइ।।
- पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 31)
- संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
- रचनाकार : शालिभद्र सूरि
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
- संस्करण : 1976
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