राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ के दोहे
सरस-सरस बरसत सलिल, तरस-तरस रहि बाम।
झरस-झरस बिरहागि सों, बरस-बरस भे जाम॥
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तिय तन लखि मोहित तड़ित, गति अद्भुत लखि जात।
बार-बार लखि तिय छटा, छन प्रकाश रहि जात॥
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सारंग झरि सारंग रव, सुखद स्याम सारंग।
विहरत बर सारंग मिलि, सरसत बरसा रंग॥
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प्रिय सुकुमारि कुमारि हित, भय मय तिमिर बिचार।
प्रेम विवश देवांगना, करहिं जगत उजियार॥
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सुनि-सुनि नवला रूप गुन, करि दरसन अभिलास।
सुर दारा छित जोवहीं, करि-करि गगन प्रकास॥
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रामावर आराम में, लखी परम अभिराम।
भो हराम आराम सब, परो राम सों काम॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere