झामदास के दोहे
राम भजन तैं काम सब, उभय लोक आनंद।
तातै भजु मन! मूढ़ अब, छोड़ि सकल जग फंद॥
अधम उधारन राम के, गुन गावत श्रुति साधु।
'झामदास' तजि त्रास तेहि, उर अंतर अवराधु॥
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एहि कलि पारावार महँ, परौ न पावत पार।
'झाम' राम गुन गान तैं, बिनु प्रयास निस्तार॥
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कलि कानन अघ ओघ अति, विकट कुमृगन्ह समानु।
हरि जस अनल लहै इतै, ग्यान बिराग कृपानु॥
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'झाम' राम सुमिरन बिना, देह न आवै काम।
इतै उतै सुख कतहुँ नहिं, जथा कृपिन कर दाम॥
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कलि मल हरन सरीर अति, नहिं लखि अपर उपाइ।
एह रघुपति गुन सिंधु मरु, मजत उज्जलताइ॥
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