इलाचंद्र जोशी की संपूर्ण रचनाएँ
कहानी 1
निबंध 1
उद्धरण 8

तुम उसी सनातन पुरुष-समाज के नवीन प्रतिनिधि हो जिसने युगों से नारी को छल से ठगकर, बल से दबाकर विनय से बहकाकर और करुणा से गलाकर उसे हाड़माँस की बनी निर्जीव पुतली का रूप देने में कोई बात उठा नहीं रखी है।
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जीवन की परिस्थितियों का क्रूर यथार्थ मनुष्य के सहज स्वभाव को कैसे उलटे-सीधे घुमावों से मोड़ता है और आत्म-रक्षा की कैसी-कैसी विचित्र व्यावहारिक कलाएँ सिखाता रहता है, इस बात पर विचार करने पर कभी-कभी आश्वर्य होने लगता है।
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भारतीय नारी चाहे समाज के किसी भी स्तर में, किसी भी स्थिति में जीवन क्यों न बिताती हो, उसकी आत्मा अपनी मूलगत महानता का त्याग कभी नहीं करती।
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मरणजयी जीवन के यथार्थ रूप को न पाने के कारण ही आज मानवता दिशा भ्रमित है। अपने जीवन काल की सीमित अवधि को ही चरम अवधि मान लेने की भ्रांति न आज चारों ओर संघर्ष, विरोध, विद्रोह और विक्षोभ फैला रखा है। प्रत्येक दिन की मृत्यु प्रत्येक संध्या में होती है और प्रत्येक काली रात की मृत्यु नए अरुणोदय में होती रहती है। यह अटूट कम ही तो महाजीवन है।
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