हेमचंद्र की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 56
अगलिअ-नेह-निवट्टाहं जोअण-लक्खु वि जाउ।
वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ॥
अगलित स्नेह में में पके हुए लोग लाखों योजन भी चले जाएँ और सौ वर्ष बाद भी यदि मिलें तो हे सखि, मैत्री का भाव वही रहता है।
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अङ्गहिं अङ्ग न मिलिउ हलि अहरेँ अहरु न पत्तु।
पिअ जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्वइ सुरउ समत्तु॥
हे सखि, अंगों से अंग नहीं मिला; अधर से अधरों का संयोग नहीं हुआ; प्रिय का मुख-कमल देखते-देखते यों ही सुरत समाप्त हो गई।
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साव-सलोणी गोरडी नवखी क वि विस-गंठि।
भडु पच्चलिओ सो मरइ जासु न लग्गइ कंठि॥
सर्वांग सुंदर गोरी कोई नोखी विष की गाँठ है। योद्धा वास्तव में वह मरता है जिसके कंठ से वह नहीं लगती।
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दिवेहि विढत्तउँ खाहि वढ़ संचि म एक्कु वि द्रम्मु।
को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु॥
हे मूर्ख, दिन-दिन कमाये धन को खा, एक भी दाम संचित मत कर। कोई भी ऐसा संकट आ पड़ेगा जिससे जीवन ही समाप्त हो जाएगा।
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जइ केवँइ पावीसु पिउ अकिआ कुड्डु करीसु।
पाणिउ नवइ सरावि जिवं सब्बंगें पइसीसु॥
यदि किसी प्रकार प्रिय को पा लूँगी तो अनोखे खेल करूँगी। पानी नए पुरवा में जैसे प्रविष्ट हो जाता है, मैं भी सर्वांग से प्रिय (के अंग-अंग) में प्रवेश कर जाऊँगी।
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