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गरीबदास

1717 - 1778 | रोहतक, हरियाणा

रीतिकालीन संत। ग़रीब पंथ के प्रवर्तक। राम-रहीम में अभेद और सर्वधर्म समभाव के पक्षधर। कबीर के स्वघोषित शिष्य।

रीतिकालीन संत। ग़रीब पंथ के प्रवर्तक। राम-रहीम में अभेद और सर्वधर्म समभाव के पक्षधर। कबीर के स्वघोषित शिष्य।

गरीबदास का परिचय

संत कवि ग़रीबदास का जन्म रोहतक जिले की झज्जर तहसील के छुड़ानी ग्राम में सन् 1717 ई. को हुआ था। इनके पिता जाति के जाट तथा व्यवसाय से जमींदार थे। जनश्रुति के अनुसार जब ग़रीबदास बारह वर्ष के थे, उस समय भैंसें चराते हुए उन्हें संत कबीर के दर्शन हुए थे। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार ग़रीबदास को स्वप्न में संत कबीर के दर्शन हुए और उसी क्षण से इन्होंने उन्हें अपना गुरु मान लिया। सत्य यह है कि ग़रीबदास संत कबीर को अपना पथप्रदर्शक मानते थे और उन्हीं के सिद्धांतों से प्रभावित भी थे। ग़रीबदास ने कभी भी किसी संप्रदाय विशेष का भेष धारण नहीं किया और न उन्होंने गार्हस्थ्य जीवन का परित्याग ही किया। पारिवारिक जीवन में रहते हुए इन्हें चार पुत्र तथा दो पुत्रियाँ प्राप्त हुईं। वे आजीवन छुड़ानी में रहकर सत्संग करते रहे। छुड़ानी में भादों सुदी द्वितीया, संवत् 1835 (सन् 1778) को इन्होंने पार्थिव शरीर का परित्याग किया।

ग़रीबदास के निधन हो जाने के बाद उनके गुरुमुख शिष्य सलोतजी गद्दी पर बैठे। अपने जीवनकाल में ग़रीबदास ने छुड़ानी में एक मेला लगवाया था, जो अब तक वर्ष में एक दिन लगता है। ग़रीबदास 'गरीब-पंथ’ के संस्थापक थे। पूर्वी पंजाब, दिल्ली, अलवर, नारनोल, विजेसर तथा रोहतक इसके केंद्र हैं। पूर्वी पजाब में यह पंथ बड़ा जनप्रिय है। इस संप्रदाय के शिष्यों में सभी वर्ग, सभी वर्ण तथा सभी जातियों के व्यक्ति पाये जाते हैं।  हिंदू-मुसलमानों का भी कोई भेद नहीं माना जाता है। ग़रीबदास बड़े भावुक, शीलवान् तथा श्रद्धालु मनुष्य थे। उन्होंने चौबीस हज़ार साखियों और पदों का संग्रह 'हिंखर बोध' नाम से प्रस्तुत किया था। इनमें से सत्रह हज़ार रचनाएँ इनकी हैं और शेष कबीरदास की हैं। इन सत्रह हज़ार पदों और साखियों में से कुछ का संग्रह ‘वेलवेडियर प्रेस’ प्रयाग से 'ग़रीबदास की बानी' नाम से प्रकाशित हुआ है। प्रसिद्ध है कि कबीर साहब की शैली पर उन्होंने भी एक ‘बीजक’ नामक ग्रंथ की रचना की थी। ग़रीबदास के संबंध में जनश्रुतियों में अनेक चमत्कार प्रसिद्ध हैं। इनमें बादशाह के कैदखाने से चमत्कार द्वारा निकल भागना और श्रद्धा-विहीन व्यक्तियों में श्रद्धा का बीज अंकुरित कर देना आदि उल्लेखनीय हैं।

ग़रीबदास शब्दातीत, निर्गुण-सगुण से परे ब्रह्मा के उपासक थे। उन्होंने कहा भी है—‘शब्द अतीत अगाध है, निरगुन सरगुन नाहिं।’ यह ब्रह्मांड उस ब्रह्मांड से किसी प्रकार भिन्न नहीं है। सामान्य मानव को भ्रांति का जो आभास होता है, उसका कारण माया है—'दास ग़रीब वह अमर निज ब्रह्म हैं, एक ही फूल-फल-डाल है रे।’ ग़रीबदास ने स्वानुभूति के लिए ‘सुरत व निरत का परचा’ हो जाना अनिवार्य बताया है।

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