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दयाबाई

1693 - 1773 | अलवर, राजस्थान

'चरनदासी संप्रदाय' से संबंधित संत चरणदास की शिष्या। कविता में सर्वस्व समर्पण और वैराग्य को महत्त्व देने के लिए स्मरणीय।

'चरनदासी संप्रदाय' से संबंधित संत चरणदास की शिष्या। कविता में सर्वस्व समर्पण और वैराग्य को महत्त्व देने के लिए स्मरणीय।

दयाबाई का परिचय

दयाबाई संत चरणदास की शिष्या और सहजोबाई की गुरुभगिनी थीं। इनका जन्म मेवात (राजस्थान) के डेहरा गाँव में हुआ था। ये अपने गुरु चरणदास के साथ दिल्ली चली आयी थीं और वहीं संत-जीवन व्यतीत किया था। इनकी प्रसिद्ध कृति ‘दयाबोध’ है, जिसकी रचना सन् 1761 ई. में हुई थी। बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग से ‘दयाबोध’ के साथ ही दयादास रचित ‘विनयमालिका’ भी प्रकाशित हुई है। ‘संतबानी पुस्तक माला’ में ‘दयाबाई’ और ‘दयादास’ को अभिन्न माना गया है। शिवव्रत लाल के अनुसार इनकी मृत्यु सन् 1763 ई. में हुई थी।

'दया-बोध' में दया बाई ने गुरु महिमा, सुमिरन सूरमा, प्रेम, वैराग आदि अनेक अंगों पर दोहे और कुछ चौपाइयाँ लिखी हैं। शैली और भाषा लगभग सहजो बाई की जैसी है। निर्गुण-निरंजन और अजपा पर इन्होंने जो दोहे लिखे हैं, उनमें इनकी वैसी तन्मयता कम मिलती है, जैसी कि भक्ति-विषयक रचना में देखते हैं।

'विनय-मालिका' के दोहे सगुण भक्ति-विषयक अधिक हैं। इनमें कई भक्तों के वृत्तांत आए हैं। इस ग्रंथ में इनकी भक्ति दैन्यभावापन्न हो गयी है और सेवक-सेव्य-भावोपासक सगुण कवियों की मनोभूमि को स्पर्श करने लगी है।

इनकी रचनाओं का विषय वही है, जो चरणदासी संप्रदाय के अन्य संतों की रचनाओं का है। इन्होंने परमतत्त्व को 'अजर', 'अमर', 'अविगत', 'अविनासी', 'अभय', 'अलख' और 'आनंदमय' मानते हुए जड़-चेतन सब में व्याप्त माना है। दयाबाई की भाषा और अभिव्यक्ति सहज-सरल और प्रवाहमयी है

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