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दादू दयाल

1544 - 1603 | अहमदाबाद, गुजरात

भक्तिकाल के निर्गुण संत। दादूपंथ के संस्थापक। ग़रीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना के गुरु। राजस्थान के कबीर।

भक्तिकाल के निर्गुण संत। दादूपंथ के संस्थापक। ग़रीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना के गुरु। राजस्थान के कबीर।

दादू दयाल का परिचय

मूल नाम : दादू दयाल

जन्म :अहमदाबाद, गुजरात

निधन : नरैना, राजस्थान

राजस्थान के कबीर कहे जाने वाले संत दादू दयाल का जन्म चैत्र शुक्ला अष्टमी वि. सं. 1601 (सन् 1544) को अहमदाबाद में हुआ था परंतु इनकी कर्मभूमि राजस्थान ही रही। ये जाति से धुनिया थे और कबीर के पुत्र कमाल की शिष्य-परंपरा में आते हैं। इनके गुरु बुड्डन बाबा कहे जाते हैं लेकिन दादू ने अपनी बानियों में कहीं पर भी अपने गुरु का नामोल्लेख नहीं किया है।

स्वामी दादू दयाल की जन्म कथा ठीक वैसी ही लोक प्रचलित है, जैसी कि कबीर की जन्म कथा है। कहते हैं कि लोदीराम नामक एक नागर ब्राह्मण को साबरमती नदी के तट पर एक नवजात बालक बहता हुआ मिला, और उसे उठाकर वह अपने घर ले आया। यही बालक पीछे दादू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 12 वर्ष की अवस्था में ही दादू सत्संग के लिए घर से निकल पड़े। किंतु माता-पिता ने पीछा करके इन्हें पकड़ लिया, और इनका विवाह कर दिया। पर यह बंधन इन्हें बाँध नहीं सका। सात बरस बाद यह फिर घर से निकल गये। सांभर पहुँचे, और वहाँ दादू ने 12 वर्ष तक सहजयोग की कठिन साधना की एवं निरंतर भक्ति रस में लीन रहते हुए ऊँची अवस्था को प्राप्त कर लिया। जहाँ पर ये जन साधारण को उपदेश देते थे, उस स्थान को ‘अलख दरीबा’ कहा जाता था। ब्रह्म संप्रदाय ही आगे जाकर परब्रह्म संप्रदाय के रूप में जाना गया जो आज ‘दादू-पंथ’ के नाम से जाना जाता है।

दादू ने दया पारमिता को सहजयोग से प्राप्त कर लिया। लोग इन्हें 'दयाल' के प्यार भरे नाम से पुकारने लगे। दया-दर्शन का इनका एक बड़ा सुंदर प्रसंग है। एक दिन अपनी कोठरी में यह ध्यानमग्न बैठे थे। कुछ ईर्ष्यालु ब्राह्मणों ने ईंटों से कोठरी का द्वार चिन दिया। ध्यान से जागने पर द्वार बंद पाया, और जब बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिला तो फिर उसी प्रकार ध्यान लगाकर बैठ गये। इस तरह कई दिनों तक यह ध्यानस्थ कोठरी में बंद रहे। लोगों को जब मालूम हुआ तो द्वार खोला, और उन दुष्टों को दंड देना चाहा। दादू ने दंड देने से मना किया और कहा कि "इन लोगों ने तो कोठरी के द्वार को ईंटों से चिनकर अच्छा ही किया था, इनकी कृपा से ही तो इतने दिनों तक मैं भगवान् के ध्यान में लीन रहा। धन्य है इनकी कृपा भावना को।" सन् 1642 ई. में अकबर से दादू दयाल फतेहपुर सीकरी में मिले थे। अकबर के पूछने पर कि ख़ुदा की जात, अंग, वजूद और रंग क्या है, इन्होंने जवाब दिया :

"इसक अलाह की जाति है, इसक अलाह का अंग।
इसके अलाह औजूद है, इसक अलाह का रंग॥"

दादू दयाल के यों तो सैकड़ों शिष्य थे, पर 152 उनके प्रमुख शिष्य थे और उनमें भी 52 और भी अंतरंग थे, यद्यपि किसी को वे गुरु दीक्षा नहीं देते थे। उनके महान् त्याग, ऊँचे प्रेम और अथाह दया ने हज़ारों लोगों को अपनी ओर खींच लिया था। दादू ने मूर्ति-पूजा, भेदभाव एवं आडंबरों का विरोध करते हुए निर्गुण ब्रह्म की उपासना तथा ज्ञान मार्ग के अनुसरण का उपदेश दिया। ‘गरीबदास’ और ‘मिस्कीनदास’ नामक इनके दो पुत्र हुए जो संत मत में सुविख्यात हैं। अपने पुत्रों के अलावा बखना मिरासी, रज्जब, सुंदरदास, संतदास, जगन्नाथ, माधोदास और बालिंद जैसे शिष्य दादू सौर मंडल के प्रकाशमान नक्षत्र गिने जाते हैं। दादू दयाल के प्रसिद्ध शिष्य राघौदास के ‘भक्तमाल’ में दादू जी के बावन शिष्यों का नामोल्लेख है

दादू ने ‘दादू-पंथ’ चलाया जिसकी प्रमुख पीठ वर्तमान में नरायणा (जयपुर) में स्थित है। दादूपंथ को मानने वाले अनुयायी हाथ में सुमरनी रखते हैं और ‘सत्तराम’ कहकर अभिवादन करते हैं। दादूपंथी साधु विवाह नहीं करते और बच्चों को गोद लेकर अपना पंथ चलाते हैं। ये दादूद्वारा में रहते हैं। दादूपंथ के सत्संग को ‘अलख-दरीबा’ कहा जाता है। कालांतर में दादू पंथ पाँच भागों में विभाजित हो गया जिनका विवरण निम्नलिखित है :

1. खालसा : गरीबदास की आचार्य-परंपरा से संबंधित साधु, जो मुख्य पीठ नरायणा में रहते हैं।
2. विरक्त : अकेले या मंडली में रमते-फिरते रहकर गृहस्थियों को दादू-पंथ का उपदेश देने वाले साधु।
3. उत्तरादे या स्थानधारी : जो राजस्थान छोड़कर उत्तरी भारत में चले गए। ये मुख्यतः हरियाणा और पंजाब में हैं। इस शाखा के संस्थापक दादू दयाल के शिष्य बनवारीदास थे। इन्होंने रतिया (हिसार) में अपनी गद्दी स्थापित की।
4. खाकी : जो शरीर पर भस्म लगाते हैं, बड़ी-बड़ी जटाएँ रखते हैं, खाकी वस्त्र पहनते हैं और छोटे-छोटे दलों में घूमते हैं।
5. नागा : ये नग्न रहते हैं और शस्त्र रखते हैं। नागा साधु जयपुर में दाखिला सैनिक के रूप में काम करते थे। सवाई जयसिंह ने इनके हथियार रखने पर रोक लगा दी थी। बड़े सुंदरदास का संबंध इनसे था।

दादूपंथ में सैकड़ों संत कवि हुए हैं। इस संप्रदाय का माधोदास का 'संतगुणसागर', जनगोपाल का 'जन्म-लीला', राघौदास का 'भक्तमाल', जग्गाजी का 'भक्तमाल' और जैमल की 'भक्तविरुदावली' दादू-पंथ के प्रामाणिक ग्रंथ माने जाते हैं। दादूजी ने नरायणा में भैराना पहाड़ी पर स्थित गुफ़ा में ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी वि.सं. 1660 (सन् 1603) को समाधि ली, यही स्थान दादूपंथियों की मुख्य गद्दी है, जिसे दादूद्वारा कहते हैं।

दादू की पद, साखी और आत्मबोध आदि रचनाओं में दार्शनिक पक्ष और काव्य का सुंदर समन्वय है। इनके रचित ग्रन्थ ‘कायाबेलि’ में वेदांत, उपनिषद् व सांख्य दर्शन का सारगर्भित वर्णन और विश्लेष्ण किया गया है। आगे चलकर दादू दयाल के शिष्यों संतदास और जगन्नाथदास ने इनकी वाणी का सर्वप्रथम संपादन ‘हरड़े बानी’ नाम से किया था। कई वर्षों बाद रज्जब ने पुनः ‘अंगवधू’ शीर्षक से इनकी बानियों को संपादित किया।

दादू दयाल की बानी की तुलना कबीर से की जाती है। सगुण पक्ष के भक्त कवियों में जैसे तुलसी और सूर, वैसे ही निर्गुण कवियों में कबीर और दादू की व्यंजना तो बहुत ही ऊँची और गहरी है। इनके शब्दों व साखियों मे प्रेम और विरह का निरूपण अत्यंत निर्मल और अनुपम हुआ है। इतने ऊँचे घाट की बानी अन्यत्र कम देखने में आती है। दादू के शब्दों में हम अंतर को बेधने वाली सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्टि और अमृत रस से सींचा हुआ स्वानुभव पाते हैं। दादू के अनेक शब्दों व साखियों में कबीर का रंग देखने में आता है, पर अनुभव दादू का अपना है। दादू कबीर को बहुत मानते थे :

“साँचा सबद कबीर का, मीठा लागे मोहि।
दादू सुनता परमसुख वैसा आनंद होहि॥"

किंतु कबीर की तरह इन्होंने पंडितों और मुल्लों पर प्रहार नहीं किए। खंडन-मंडन में इन्हें रुचि नहीं थी। संतमत का मंथन कर सद्यः प्रेम-नवनीत ही दया के समभाव से दादू दयाल ने दोनों हाथों से बहाया है। भाषा भी इनकी बड़ी जानदार है। अनेक जनपदों के शब्दों का मुक्त प्रयोग इन्होंने किया है। फ़ारसी के भी सैकड़ों शब्द इनकी रसती बानी में आये हैं। कुछ पद इनके पंजाबी और गुजराती के भी मिलते हैं। जैसे एक दीये से सैकड़ों दीपों को जलाते हैं, उसी तरह दादू दयाल की बानी से अलौकिक प्रकाश ले-लेकर अनेक संत कवियों ने साखियाँ व शब्दों की अमृत प्रसादी लोक में वितरण की है।

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