भारतेंदु हरिश्चंद्र के दोहे
प्रेम प्रेम सब ही कहत प्रेम न जान्यौ कोय।
जो पै जानहि प्रेम तो मरै जगत क्यों रोय॥
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लोक-लाज की गांठरी पहिले देइ डुबाय।
प्रेम-सरोवर पंथ में पाछें राखै पाय॥
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प्रेम सकल श्रुति-सार है प्रेम सकल स्मृति-मूल।
प्रेम पुरान-प्रमाण है कोउ न प्रेम के तूल॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere