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भगवत रसिक

'टट्टी संप्रदाय' से संबद्ध। कविता में वैराग्य और प्रेम दोनों को एक साथ साधने के लिए स्मरणीय।

'टट्टी संप्रदाय' से संबद्ध। कविता में वैराग्य और प्रेम दोनों को एक साथ साधने के लिए स्मरणीय।

भगवत रसिक के दोहे

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काया कुंज निकुंज मन, नैंन द्वार अभिराम।

‘भगवत' हृदय-सरोज सुख, विलसत स्यामा-स्याम॥

‘भगवत' जन चकरी कियो, सुरत समाई डोर।

खेलत निसिदिन लाड़िली, कबहुँ डारति तोर॥

छके जुगुल-छबि-बारुनी, डसे प्रेमवर-व्याल।

नेम परसै गारुडी, देख दुहुँन की ख्याल॥

निसिबासर, तिथि मास, रितु, जे जग के त्योहार।

ते सब देखौ भाव में, छांडि जगत व्यौहार॥

जप तप तीरथ दान ब्रत, जोग जग्य आचार।

‘भगवत' भक्ति अनन्य बिनु, जीव भ्रमत संसार॥

जनम-मरन माया नहीं, जहँ निसि-दिवस होय।

सत-चित-आनँद एक रस, रूप अनुपम दोई॥

‘भगवत' जन स्वाधीन नहिं, पराधीन जिमि चंग।

गुन दीने आकास में, गुन लीने अंग-संग॥

नवरस नित्य-बिहार में, नागर' जानत नित्त।

‘भगवतरसिक' अनन्य वर, सेवा मन बुधि चित्त॥

तुष्टि पुष्टि तासों रहे, जरा व्यापै रोग।

बाल-अवस्था, जुवा पुनि, तिनको करै भोग॥

ग्राम-सिंह भूखो बिपिन, देखि सिंह को रूप॥

सुनि-सुनि भूखैं गलिन में, सर्व स्वान वेकूप॥

नहिं निरगुन सरगुन नहीं, नहिं नेरे, नहिं दूरि।

‘भगवतरसिक' अनन्य की, अद्भुत जीवन मूरि॥

वेदनि खोवै वैद सों, गुरु गोबिंद-मिलाप।

भूख भजै भोजन सोई, ‘भगवत' और खिलाप॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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