भगवत रसिक के दोहे
काया कुंज निकुंज मन, नैंन द्वार अभिराम।
‘भगवत' हृदय-सरोज सुख, विलसत स्यामा-स्याम॥
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‘भगवत' जन चकरी कियो, सुरत समाई डोर।
खेलत निसिदिन लाड़िली, कबहुँ न डारति तोर॥
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छके जुगुल-छबि-बारुनी, डसे प्रेमवर-व्याल।
नेम न परसै गारुडी, देख दुहुँन की ख्याल॥
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निसिबासर, तिथि मास, रितु, जे जग के त्योहार।
ते सब देखौ भाव में, छांडि जगत व्यौहार॥
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जप तप तीरथ दान ब्रत, जोग जग्य आचार।
‘भगवत' भक्ति अनन्य बिनु, जीव भ्रमत संसार॥
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जनम-मरन माया नहीं, जहँ निसि-दिवस न होय।
सत-चित-आनँद एक रस, रूप अनुपम दोई॥
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‘भगवत' जन स्वाधीन नहिं, पराधीन जिमि चंग।
गुन दीने आकास में, गुन लीने अंग-संग॥
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नवरस नित्य-बिहार में, नागर' जानत नित्त।
‘भगवतरसिक' अनन्य वर, सेवा मन बुधि चित्त॥
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तुष्टि पुष्टि तासों रहे, जरा न व्यापै रोग।
बाल-अवस्था, जुवा पुनि, तिनको करै न भोग॥
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ग्राम-सिंह भूखो बिपिन, देखि सिंह को रूप॥
सुनि-सुनि भूखैं गलिन में, सर्व स्वान वेकूप॥
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नहिं निरगुन सरगुन नहीं, नहिं नेरे, नहिं दूरि।
‘भगवतरसिक' अनन्य की, अद्भुत जीवन मूरि॥
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वेदनि खोवै वैद सों, गुरु गोबिंद-मिलाप।
भूख भजै भोजन सोई, ‘भगवत' और खिलाप॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere