बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' के निबंध
हमारी प्यारी हिंदी
अनेक जनों के कान में हमारी नागरी भाषा की भाँति भारतीय भाषा का प्रयोग भी खटकेगा, परंतु यह भी केवल उसी अधम अभ्यास का आभास है कि जो दुर्भाग्य से अद्यपि हिंदी को उर्दू बनाए हुए है, नहीं तो हिंदी और भारतीय भाषा में भी उतना ही भेद है कि जितना आफ़ताब और सूर्य
समाचार पत्र या अख़बार किसे कहते हैं
समाचार पत्र को जिसे प्राय: अन्य ऐसे मनुष्य कि जो भलीभाँति इसके स्वाद से वंचित हैं, केवल यही समझ लिया है, कि कलकत्ते में एक लड़की हुई जिसके एक सींग, दो नाक, तीन हाथ, चार पैर और पाँच आँखें हैं। ऐसी-ऐसी बेसिर-पैर की ख़बरें और समाचार पंसारियों की पुड़ियाँ बाँधने
हिंद, हिंदु और हिंदी
ये तीनों हकारादि शब्द ने केवल अकेले हमीं, को वरंच हिंद-निवसी समस्त हिंदुओं को श्रवणानंददाई है। इन तीनों के आदि का ‘ह’ अक्षर मिलकर ह-ह-ह—प्रसन्नता-सूचक हास्य का रूप व अंग होता है। यों ही कभी-कभी यही शब्द कष्ट व उपहास का भी वची हो जाता है; यों ही तीन ‘हिं’
भारतेंदु अवसान
हे इस सभा को शोभा देने वाले! और इस असह्य शोक में संगी होने वाले! सज्जन सभ्य समूह!!! निश्चय आज उस करुणामय विषय के वर्णन की आवश्यकता आन पड़ी कि जिसे स्मरण कर, न केवल मनुष्य मात्र को शोक मूर्छा आए किंतु प्रस्तर को भी यदि शान हो तो मोम सा अवश्य पिघल जाए,
भारत वर्ष की दरिद्रता
जिसके धन और प्रशस्त भूमि की प्रशंसा, जिसमें प्राय: पृथ्वी मात्र की सभी वस्तु उत्पन्न होती हैं, संसार भर करता था; जहाँ सामान्य ऋतुओं के भोगने से देशियों को किसी दूसरे स्थान को जाने की आकांक्षा तक नहीं होती, और जहाँ की ख़ाने सभी अमूल्य रत्नों को उत्पन्न