अप्रमेय को न शब्द बाँधि कै बताइए।
जो अथाह ताहि यों न बुद्धि सों थहाइए।
ताहि पूछि ऐ बताय लोग भूल ही करै।
सो प्रसंग लाय व्यर्थ वाद माहि ते परै॥
अंधकार आदि में रह्यो पुराण यों कहै।
वा महानिशा अखंड बीच ब्रह्म ही रहै।
फेर में न ब्रह्म के, न आदि के रहौ, अरे।
चर्मचक्षु को अगम्य और बुद्धि के परे॥
देखि आँखिन सो न सकिहै कोउ काहु प्रकार।
औ न मन दौराय पैहै भेद खोजनहार।
उठत जैहैं चले पट पै पट, न ह्वै है अंत।
मिलत जैहै परे पट पै पट अपार अनंत॥
चलत तारे रहत पूछन जात यह सब नहिं।
लेहु एतो जानि बस-हैं चलत या जग माहिं।
सदा जीवन मरण, सुख दुख, शोक और उछाह।
कार्य-कारण की लरी औ कालचक्र-प्रवाह॥
और यह भवधार जो अविराम चलति लखाति।
दूर उद्गम सों सरितचलि सिंधु दिशि ज्यों जाति।
एक पाछे एक उठति तरंग तार लगाय।
एक हैं सब, एक सी पै परति नहिं लखाय॥
तरणि-कर लहि सोइ लुत तरंग पुनि कहुँ जाय।
धुवां से धन की घटा ह्वै गगन में घहराय।
आर्द्र है नग शृंग पै पुनि परति धारासार।
सोइ धार तरंग पुनि-नहिं थमत यह व्यापार॥
जानिबो एतो बहुत भू-स्वर्ग आदिक धाम।
सकल माया-दृश्य हैं, सब रूप हैं परिणाम।
रहत घूमत चक्र यह श्रम-दुख पूर्ण अपार।
थामि याको सकत कोऊ नहिं काहु प्रकार॥
बदना जनि करौ, ह्वै है कछु न वा तम माहिं।
शून्य सों कछु याचना जनि करौ, सुनिहै नाहिं।
मरौ जनि पचि औरहू मन ताप आप बढ़ाय।
केश नाना भाँति के दे व्यर्थ तनहिं तपाय॥
ब्रह्म-लोक ते परे सनातन शक्ति विराजति।
जो या जग में ‘धर्म’ नाम सो आवति बाजति।
आदि अंत नहिं जासु, नियम है जाके अविचल।
सत्वोन्मुख जो करति सर्ग-गति सचित करि फल॥
- पुस्तक : कविता-कौमुदी, दूसरा भाग : हिंदी (पृष्ठ 436)
- संपादक : रामनरेश त्रिपाठी
- रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- प्रकाशन : हिंदी-मंदिर, प्रयाग
- संस्करण : 1996
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