मोरे मन उपज्यो हरस अपार।
अमरत वेला आ पहुँची हे, मन चित में उजियार।
ना चित्त चिंता ना मन मंसा, ना कोई दरकार॥
ना तिरिया ना पूत परवरा, ना नाती ना नातेदार।
सबको संग छोड़यो बरसां, तोड़यो मोह मकार॥
समचित्त रिदै तन व्याधि न कोई, रसना राम रकार।
सद्गुरु साहिब सामे ऊबा, रलक-झलक उणियार॥
चलती वेलां दरसन दीया, सुण ली आरत पुकार।
नाव जरजरी भवनद गेहरो, खेवटियो दमदार॥
पार उतारे सद्गुरु साहिब, धन-धन तारणहार।
सैना परमानंद मिलन की, लाग चुकी हे तार॥
मेरे मन में अपार हर्ष उपजा है। आज अमृत बेला आ पहुँची है। मन और चित्त में उजाला हो गया है। सभी चिंताएँ, कामनाएँ, इच्छाएँ और आवश्यकताएँ समाप्त हो गई हैं। मन में अपार शांति है। न पत्नी है, न पुत्र है, न परिवार, न नाती, न नातेदार। सबका संग छोड़े कई वर्ष बीत गये हैं। सबसे मोह और माया समाप्त कर ली है। हृदय समचित्त है। तन में कोई व्याधि नहीं है। रसना में राम की रकार है। सद्गुरू समक्ष खड़े हैं। उन्होंने मेरी आर्त पुकार सुनकर मुझे इस अंतिम क्षणों में दर्शन दिए हैं। उनका आभायुक्त मुख मेरे समक्ष है। भले ही मेरी नाव जर्जर है, भले ही भवनद गहरा है, किंतु मेरा खेवटिया बहुत दमदार है। सद्गुरू साहिब धन्य हैं। वे मेरी नाव पार उतारने में सक्षम हैं। सैन कहते हैं—अब तो मुझे परमानंद से मिलने की लय लग चुकी है।
- पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 305)
- संपादक : अशोेक मिश्र
- रचनाकार : संत सैन भगत
- प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
- संस्करण : 2013
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