रंग-भवन में रात्रि
rang bhawan mein ratri
एक
सोवती संभार बिनु सोभा सरसाय गात,
आधे खुले गोरे सुकुमार मृदु ओपधर।
चीकने चिकुर कहूँ बँधे हैं कुसुमदाम,
कारे सटकारे कहूँ लहरत लक पर।
सोवैं थकि हास औ विलास सो पसारि पायँ,
जैसे कलकंठ रसगीत गाय दिन भर।
पंख बीच नाए सिर आपनो लखाति तौ लौ,
जौ लौं न प्रभात आय खोलन कहत स्वर॥
दो
कंचन की दीवट पै दीपक सुगंध भरे,
जगमग होत भौन भीतर उजास करि।
आभा रग-रग की दिखाय रही तासों मिलि,
किरन मयंक की झरोखन सो ढरि-ढरि।
जा में है नवेलिन की निखरी निकाई अंग,
अगन की बसन गए हैं कहूँ नेकु टरि।
उठत उरोज हैं उसासन सों बार-बार,
सरकि परे हैं हाथ नीचे कहूँ ढीले परि॥
तीन
देखि परै साँवरे सलोने कहूँ गोरे मुख,
भृकुटि विशाल बंक, बरुनी बिछी हैं श्याम।
अधखुले अधर दिखात दंत कोर कछु,
चुनि धरे मोती मानौ रचिवे के हेतु दाम।
कोमल कलाई गोल, छोटे पायँ पै जनी हैं,
देति झनकार, जहाँ हिलै कहू कोऊ बाम।
स्वप्न टूटि जात बाको जामें सो रही है पाय,
कुँवर रिझाय उपहार कछु अभिराम॥
- पुस्तक : कविता-कौमुदी, दूसरा भाग : हिंदी (पृष्ठ 433)
- संपादक : रामनरेश त्रिपाठी
- रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- प्रकाशन : हिंदी-मंदिर, प्रयाग
- संस्करण : 1996
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