रात भर का है डेरा, सवेरे जाना है।
यो जीवन सदन सराय, सवेरे जाना है॥
कोई आए कोई जाए, सवेरे जाना है।
यां जोगी वालो डेरो अलख जगाए, सवेरे जाना है॥
राज पाट महल माड़ियाँ, दौलत माल खजाना है।
चलती वेरा संग नहिं जाए, क्युँ इतना इतराना है॥
ना कुछ तेरा ना कुछ मेरा है, सवेरे उठकर जाना है।
रात भर का है डेरा, सवेरे जाना है॥
यो जीवन सदन सराय, सवेरे जाना है।
साँसां को पंछी कब उड़ जाए, कोई जान न पाय॥
कद जाणे माटी की काया, माटी में मिल जाय।
तेरा नहीं है अटल बसेरा, सवेरे जाना है॥
माया मोह के चक्कर फंस्यो, यो तो देस बेगाना है।
सैन कहे सद्मतया रेहवो, अंत अकेले जाना है॥
रात भर का है डेरा, सवेरे जाना है।
यो जीवन सदन सराय अकेले जाना हो॥
यह संसार एक सराय है। रात-भर रुककर अगले दिन सवेरे प्रस्थान करना है। यह जीवन सराय का ही एक कक्ष है। इसे ख़ाली करना पड़ेगा। इस सराय में कोई आता है, कोई जाता है। यह तो जोगी वाला डेरा है। रात को मुकाम किया। अलख जगाई और सवेरे चल दिए। ये राजपाट, ये महल-मेड़ियाँ, यह धन-दौलत, माल-खजाना सब यहीं रह जाएगा। यहाँ से चलते समय कुछ भी साथ नहीं आएगा। यह धन, यह संपदा जब तुम्हारे साथ नहीं जाने वाली है, तब इस पर इतराना कैसा। न तो कुछ मेरा है, न कुछ तेरा है। सब छोड़कर सवेरे जाना है। साँसों का पंछी कब उड़ जाय, यह कोई नहीं जानता। पता नहीं मिट्टी की काया कब मिट्टी में मिल जाए। हे प्राणी! तेरा यहाँ अटल बसेरा नहीं है। तुझे तो सवेरे प्रस्थान करना है। तू व्यर्थ ही माया मोह के चक्कर में फँसा है। यह देश तो बेगाना है। इसलिए सन्मति रहो। अन्त में अकेले ही जाना है। यहाँ रात भर का डेरा है। सवेरे प्रस्थान करना है।
- पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 308)
- संपादक : अशोेक मिश्र
- रचनाकार : संत सैन भगत
- प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
- संस्करण : 2013
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