मन रे मांधाता बिच जई रह्यो, माया जाण न देवे॥
पचमड़ी पांडो बसे, पाँची करे असनाना।
छत्तीस मूरत जाँ बसि रह्या, उनका अम्मर नाम।
आसी बड़ जीव जाणतो, वाली सीतल छाया।
ज्यां रे मादेव तपसी बेठ्या, उणकी अगण्या बुझाय।
मड़प हाथी जोत्या, गड़प पांडयो छरोल।
अबीर कंकू प हांसी निसर्या, गड़प हुई चगा बोल।
रेवा कँवरे व्यऊं झरमले, जिस घर कपला हो गाय।
गऊ मुख अमरत वां झरे, झरे गंगा जी के माँय।
अणहद बाजा बाज्या जी, सद्गुरु के दरबार।
सैन भगत थारी वीनती, जी राखो सरण लगाय॥
मन नर्मदा (मांधाता) की ओर जाना चाहता है लेकिन माया जाने नहीं देती। जहाँ पाँचों पाण्डवों ने निवास किया था। पाँचों ने रेवा (नर्मदा) में स्नान किया। छत्तीसों मूर्तियों का जहाँ निवास है। उनका नाम अमर है। यहीं अक्षय वट है, जिसकी छाया शीतल है। वहीं भगवान महादेव तप में बैठे हैं। वे यहाँ अपनी तापाग्नि शांत करते हैं। सामने पर्वत शिखर पर हाथी खड़ा है। अद्भुत दृश्य है। गढ़ पर अबीर, कुंकुम उड़ रहा है। ख़ूब चहल-पहल, रेलम-पेल मच रही है। रेवा के उस तट पर ओंकारेश्वर भगवान की ध्वजा फहरा रही है। रेवा में कपिला गाय के दूध सा अमृत जल झर रहा है। गोमुखी से रेवा रूपी गंगाजल झर रहा है। यहाँ आनंद ही आनंद है। सद्गुरू के दरबार में अनहद नाद बज रहा है। सैन भगत उनके चरणों में बारंबार प्रणाम करता है। हे सैन! तेरी विनती सद्गुरू अवश्य सुनेंगे। वे ही तुझे अपनी शरण में लेकर तेरा उद्धार करेंगे।
- पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 297)
- संपादक : अशोेक मिश्र
- रचनाकार : संत सैन भगत
- प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
- संस्करण : 2013
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