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मन ना रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा

man na rangaye rangaye jogi kapDa

कबीर

कबीर

मन ना रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा

कबीर

और अधिककबीर

    मन ना रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।

    आसन मारि मंदिर में बैठै

    ब्रह्म-छाँड़ि पूजन लागे पथरा।

    कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले

    दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।

    जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले

    काम जराय जोगी होय गैले हिजरा।

    मथवा मुँड़ाय जोगी कपड़ा रँगौले

    गीता बाँच के होय गैले लबरा।

    कहहिं कबीर सुनो भाई साधो,

    जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा॥

    जोगी के मन में प्रेम का रंग है नहीं, उसने सिर्फ़ कपड़े रँगवा लिए हैं, आसन मारकर मंदिर में बैठ गया है और ब्रह्म को छोड़कर पत्थर की पूजा कर रहा है। उसने अपने कान चीरकर कुंडल पहन लिए हैं, बाल लंबे कर लिए हैं और दाढ़ी बढ़ाकर बकरा बन गया है। जोगी जंगल में जाकर धूनी रमा रहा है और काम-वासना का दमन करके जोगी हिजड़ा हो गया है। सिर मुँडाकर जोगी ने कपड़े रँग लिए हैं और गीता पढ़के बड़ी-बड़ी बातें बना रहा है। सुनो भाई साधु, कबीर कहते हैं कि इस तरह तू हाथ-पाँव बाँधकर यमराज के दरवाज़े पर डाल दिया जाएगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कबीर बानी (पृष्ठ 70)
    • रचनाकार : अली सरदार जाफ़री
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
    • संस्करण : 2010

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