मन बनिया बनिज न छोड़ै
man baniya banij na chhoDai
मन बनिया बनिज न छोड़ै।
जनम जनम का मारा बनियाँ, अजहूँ पूर न तौले।
पासँग कै अधिकारी लैले, भूला भूला डोलै।
घर में दुबिधा कुमति बनी है, पल में चित्त तोरै।
कुनबा वाके सकल हरानी, अमृत में विष घोलै।
तुमहीं जल में तुमहीं थल में, तुमहीं घट घट बोलै।
कहैं कबीर या सिष को डरिये, हिरदे गाँठि न खोलै॥
मन का बनिया अपना बनियापन नहीं छोड़ता। यह जनम-जनम का मारा आज भी पूरा नहीं तौलता। कम तौलने को उसने अपना अधिकार समझ लिया है और उसके घमंड में भूला-भूला रहता है। दुविधा ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी है और वह हर पल अपने अंतःकरण को घायल करता है। उसका सारा कुटुंब हरामी है जो अमृत में विष घोलता है। जल-थल में तुम ही तुम हो, हर शरीर के अंदर तुम बोल रहे हो, लेकिन मन में इस पर विश्वास नहीं है। कबीर कहते हैं कि ऐसे ज्ञान से डरते रहो जो दिल की गाँठ नहीं खोलता।
- पुस्तक : कबीर बानी (पृष्ठ 99)
- रचनाकार : अली सरदार जाफ़री
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
- संस्करण : 2010
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