यों संसार फूल सेमर को, बूर-बूर उड़ जावे।
चार दिनां की मिली कोठरी, बेमतलब पोमावे।
समय बीतयाँ ख़ाली करने, हाट-बाट उड़ जावे॥
बाहर पोते भीतर पोते, भाँत-भाँत चितरावे।
वेश क़ीमती सज्जा साजे, मन ही मन इतरावे॥
भरा हाट में उमगो-उमगो, बणज बणजवा आवे।
ख़ाली मुट्ठी आयो मूरख, कसतर बणज कमावे॥
पुण्य कमाई करी न मासा, तोला भर ले जावे।
बंधी मुट्ठी आयो बाँवला, ख़ाली हाथा जावे॥
खरी कमाई करी न कोई, गाँठ कटा घर आवे।
बे अरथां की सोच सोचतां, काल कतरतो जावे॥
खरी कमाई कर ले मूरख, सोई संग में आवे।
सैन भगत बड़भाँगा पायो जन्म अकारथ जावे॥
यो संसार फूल सेमर को, बूर-बूर उड़ जावे॥
यह संसार सेमल का फूल है। पहले बहुत सुहाना लगता है। फिर उसमें फल आते हैं। तोता इत्यादि पक्षी उन फलों को खाने की लालसा रखते हैं, किंतु वह फल तो पकने पर तड़क जाता है। उसमें न गुदा होता है न रस। केवल रुई जैसे बूर होते हैं जो हवा के साथ उड़कर उन सब पक्षियों की आशाओं को भी उड़ा ले जाते हैं। यह देह कोठरी चार दिनों के लिए मिली है। तू इसे प्राप्त कर बेमतलब गुमान कर रहा है। समय बीतने पर यह कोठरी ख़ाली कर तुझे हाट की बाट लग जाना पड़ेगा यानी प्रस्थान करना पड़ेगा। तू इस देह रूपी कोठरी को बाहर-भीतर रंग लगाकर भाँति-भाँति के चित्र बनाकर, बेशक़ीमती साज-सज्जा से शृँगारित कर रहा है। मन ही मन इतरा रहा है। तू इस संसार रूपी हाट में बड़ी उमंग के साथ व्यापार करना चाहता है, किंतु तेरी मुट्ठी तो ख़ाली हो चुकी है। कैसे तू हाट में कमाई करेगा? तूने पुण्य की कमाई तो एक मासा भी नहीं की और तोला भर ले जाने का प्रयास कर रहा है। संसार में बँधी मुट्ठी आया था और ख़ाली हाथ जाना पड़ेगा। तू व्यर्थ की सोच में डूब रहा है। समय रूपी काल तेरी आयु को कुतर रहा है। फिर पछताने से कुछ नहीं होगा। इसलिए सैन भगत कहते हैं—यह मनुष्य जीवन बड़े भाग्य से तुझे मिला है। यह जन्म अकारथ मत जाने दे। यह संसार तो सेमल का फूल है। बूर-बूर यानी रोयाँ-रोयाँ होकर हवा में उड़ जाएगा।
- पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 315)
- संपादक : अशोेक मिश्र
- रचनाकार : संत सैन भगत
- प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
- संस्करण : 2013
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