श्रीराधावर निज जन-बाधा-सकल-नसावन।
जाकौ ब्रज मनभावन, जो ब्रज कौ मनभावन॥
रसिक-सिरोमनि मन-हरन, निरमल नेह-निकुञ्ज।
मोदभरन उर-सुख-करन, अविचल आनंदपुञ्ज॥
रँगीलो साँवरो॥
कंस-मारि भू-भार-उतारन, खल-दल-तारन।
विस्तारन विज्ञान विमल, सुति-सेतु-सँवारन॥
जन-मन-रंजन सोहना गुन-सागर चित-चोर।
भव-भय-रंजन मोहना नागर नन्दकिसोर॥
गयौ जब द्वारिका॥
बिलखाती, सनेह पुलकाती, जसुमति माई।
स्याम-विरह-अकुलाती, पाती कबहुँ न पाई॥
जिय प्रिय हरि-दरसन बिना, छिन-छिन परम अधीर।
सोचति मोचति, निसदिना, निसरतु नैनन नीर॥
विकल, कल ना हियें॥
पावन सावन मास नई उनई घन-पाँती॥
मुनि-मन-भाई छई, रसमई मंजुल काँती॥
सोहत सुंदर चहूँ सजल, सरिता पोखर ताल।
लोल-लोल तहँ अति अमल, दादुर बोल रसाल॥
छटा चुई परै॥
अलबेली कहुँ बेलि, द्रुमन सों लिपटि सुहाई।
धोये-धोये पातन की अनुपम कमनाई॥
चातक चलि कोयल ललित, बोलत मधुरे बोल।
कूकि-कूकि केकी ललित, कुञ्जनु करत कलोल॥
निरखि घन की छटा॥
इन्द्रधनुष अरु इन्द्रबधूटिन की सुचि सोभा।
को जग जनम्यौ मनुज, जासु मन निरखि न लोभा॥
प्रिय पावन पावस-लहरि लहलहात चहुँ ओर।
छाई छबि छिति पै छहरि, ताकौ ओर न छोर॥
लसै मन-मोहिनी॥
कहूँ बालिका-पुञ्ज कुञ्ज लखि परियत पावन।
सुख-बरसावन, सरल सुहावन, हिय-सरसावन॥
कोकिल-कंठ-लजावनी, मनभावनी अपार।
भ्रातृ-प्रेम-सरसावनी, रागति मंजु मल्हार॥
हिंडोरनि झूलतीं॥
बालवृन्द हरषत उर-दरसत चहुँ चलि आवैं।
मधुर-मधुर मुसुकाइ रहस-बतियाँ बतरावैं॥
तरुवर डाल हलावहीं ‘धौरी' ‘धूमरि' टेरि।
सुन्दर राग अलापहीं भौंरा चकई फेरि॥
विधि क्रीड़ा करैं॥
लखि यह सुखमा-जाल, लाज निज दिन नँदरानी।
हरि-सुधि उमड़ी, घुमड़ी तन उर अति अकुलानी॥
सुधि-बुधि तजि, माथौ पकरि, करि-करि सोच अपार।
दृगजल मिस मानहुँ निकरि, बही बिरह की धार॥
कृष्ण-रटना लगी॥
कृष्ण - विरह की बेलि, नई तो उर हरियाई।
सोचन - अस्त्रु-विमोचन दोउ दल बल अधिकाई॥
पाइ प्रेमरस बढ़ि गई, तनतरु लिपटी धाइ।
फैल फूटि चहुँधा छई, बिथा न बरनी जाइ॥
अकथ ताकी कथा॥
कहति विकल मन महरि कहाँ हरि ढूँढ़न जाऊँ।
कब गहि लालन ललकत, मन गहि हृदय लगाऊँ॥
सीरी कब छाती करौं, कब सुत - दरसन पाऊँ।
कबै मोद निज मन भरौ, किहिं कर धाइ पठाऊँ॥
सँदेसो स्याम पै॥
पढ़ी न अच्छर एक, ग्यान सपनें ना पायौ।
दूध-दही चाटन में, सबरो जन्म गमायौ॥
मात-पिता बैरी भये, सिच्छा दई न मोहि।
सबरे दिन यों ही गये, कहा कहे तें होहि॥
मनहिं मन में रही॥
सुनी गरग सों अनसूया की पुन्य कहानी।
सीता सती सुनीता की सुठि कथा पुरानी॥
बिसद ब्रह्म-विद्या-पगी, मैत्रेयी तिय-रत्न।
सास्त्र पारगी, गारगी, मदालसा, सयत्न॥
पढ़ी सबकी-सबै॥
निज-निज जनम-धरम कौ, फल उनमें ही पायौ।
अविचल अभिमत सकल भाँति सुंदर अपनायौ॥
उदाहरनि उज्ज्वल दियौ जग की वियन अनूप।
पावन जस दस दिसि छयौ, उनको सुकृत सरूप॥
पाइ विद्या-बलै॥
नारी-सिच्छा निरादरत जे लोग अनारी।
ते स्वदेस-अवनति-प्रचंड-पातक अधिकारी॥
निरखि हाल मेरी प्रथम, लेउ समुझि सब कोइ।
विद्याबल लहि मति परम, अबला सबला होइ॥
लखौ अजमाइकैं॥
कौनै भेजौं दूत, सपूत सों विथा सुनावै।
बातन मैं बहराइ, जाइ ताकों यहँ लावै॥
त्यागि मधुपुरी सों गयो, छाँड़ि सबन कौ साथ।
सात समुन्दर पै भयौ, दूरि द्वारिकानाथ॥
जाइगो को वहाँ॥
नास सोइ अक्रूर क्रूर तेरो बजमारे।
बातन में दै सबनि, लै गयौ प्रान हमारे॥
क्यों न दिखावत लाइ कोउ, सूरति ललित ललाम।
कह मूरति रमनीय दोउ, स्याम और बलराम॥
रही अकुलाइ मैं॥
अति उदास, दिन आस सबै तन-सुरति भुलानी।
पूत-प्रेम सों भरी परम, दरसन-ललचानी॥
बिलपति कलपति अति जबै, लखि जननी निज स्याम।
भगत-भगत आये तबै, भाये मन अभिराम॥
भ्रमर के रूप में॥
ठिठक्यो, अटक्यो भ्रमर देखि जसुमति महरानी।
निज-दुख सों अति दुखी ताहिं, मन में अनुमानी॥
तिहि दिसि चितवत चकित चित, सजल जुगल परि नैन।
हरि वियोग कातर स्रमित, आरत गदगद नैन॥
कहन तासौं लगी॥
तेरो तन घनस्याम, स्याम घनस्याम उतै सुनि।
तेरी गुंजन सुरलि मधुप, उत मधुर मुरलि धुनि॥
पीत रेख तव कटि बसति, उत पीतांबर चारु।
बिपिनबिहारी दोउ लसत, एकरूप सिंगार॥
जुगुल रस के चखा॥
याही कारज निज प्यारे ढिग तोहिं पठाऊँ।
कहियो वासों बिथा सबै जो अबै सुनाऊँ॥
जैयो षटपद, धायकैं, कहि निज कृपा विसेस।
लैयो काम बनायकै, दैयौ यह संदेस॥
सिदौसी लौटियौ॥
जननी जन्मभूमि सुनियत स्वर्गहुँ तें प्यारी।
सो तजि सबरो मोह साँवरे, तुमनि बिसारी॥
का तुम्हरी गति-मति भई, जो ऐसो बरताव।
किधौ नीति बदली नई, ताकौ पर्यो प्रभाव॥
कुटिल विष को भयौ॥
माखन कर पौंछन सों चिक्कन चारु सुहावत।
निधुबन स्याम तमाल, रह्यौ जो हिय हरसावत॥
लागत ताके लखन सों, मति चलि वाकी ओर।
बात लगावत सखन सों, आवत नन्दकिसोर॥
कितहुसों भाजिकैं॥
वही कलिंदी-कूल-कदंबन के बन छाये।
बरन-बरन के लता भवन मनहरन सुहाये॥
जुही कुन्द की कुञ्ज ये, परम प्रमोद-समाज।
पै मकुन्द बिन विषमये, सारे सुखमा साज॥
चित्त वाँही धर्यो॥
लगत पलास उदास, असोक सोक में भारी।
बौरे बने रसाल, माधवी लता दुखारी॥
तजि-तजि निज प्रफुलितपनौ, बिरह-बिथित अकुलात।
जड़ हूँ ह्वै चेतन मनों, दीन मलीन लखात॥
एक माधौ बिना॥
नित नूतन तृन डारि सघन बंसीवट छैयाँ।
फेरि–फेरि कर-कमल चराई जो हरि गैयाँ॥
ते तित सुधि अति ही करत, सब तन रही झुराय।
नयन स्रवत जल, नहिं चरत, व्याकुल उदर अघाय॥
उठाये म्हौं फिरें॥
बचन-हीन ये दीन गऊ दुख सो दिन बितवति।
दरस-लालसा लगी चकित-चित इत-उत चितवति॥
एक संग तिनको तजत, अलि कहियो ऐ लाल।
क्यों न हीय निज तुम लजत जग कहाय गोपाल॥
मोह ऐसौ तज्यौ॥
नील कमल-दल स्याम जासु तन सुंदर सोहै।
नीलांबर बसनाभिराम विद्युत, मन मोहै॥
भ्रम में परि घनस्याम के, लखि घनस्याम अगार।
नाचि-नाचि ब्रजधाम के, कूकत मोर अपार॥
भरे आनन्द में॥
यह कौ नव नवनीत मिल्यौ मिसरी अति उत्तम।
भला सकै मिलि कहाँ सहर में सद याके सम॥
रहै यही लालो अजहुँ, काढ़त यहिं जब भोर।
भूखो रहत न होइ कहूँ, मेरो माखन चोर॥
बँध्यौ निज टेव कौ॥
वा बिनु गो-ग्वालनु को हित की बात सुझावै।
अरु स्वतंत्रता समता, सहभ्रातृता सिखावै॥
जदपि सकल बिधि ये सहत, दारुन अत्याचार।
पै नहिं कछु मुख सौं कहत, कोरे बने गँवार॥
कोउ अगुआ नहीं॥
भये संकुचित हृदय भीरु अब ऐसे भय में।
काऊ कौ विस्वास न निज जातीय उदय में॥
लखियत कोऊ रीति ना भली, नहिं पूरब-अनुराग॥
अपनी-अपनी ढापुली, अपनो-अपनो राग॥
अलापै जोर सों॥
नहिं देसीय भेष-भावनु की आसा कोऊ।
लखियत जौ ब्रजभाषा, जाति हिरानी सोऊ॥
आस्तिक बुधि-बंधन नसे, बिगरी सब मरजाद।
सब काऊ के हिय बसे, न्यारे-न्यारे स्वाद॥
अनोखे ढंग के॥
बेलि नवेली अलबेली दोउ नम्र सुहावैं।
तिनके कोमल सरल भाव कौ सब जस गावैं॥
अबकी गोपी मदभरी, अधर चलै इतराय।
चार दिना की छोहरी, गई ऐसी गरवाय॥
जहाँ देखौ तहाँ॥
गोबरधन कर-कमल धारि जो इन्द्र लजायौ।
तुम बिनु सो तिहिं को बदलौ चहत चुकायौ॥
नहिं बरसावत सुघन अब, नियम पूर्वक नीर।
जासों गोकुल होत सब, दिन-दिन परम अधीर॥
नीर सपनों भयौ॥
गोरी को गोरे लागत अतिही प्यारे।
मो कारी को कारे तुम नयननु के तारे॥
उनको तो संसार सब, मो दुखिया कों कौन।
कहिए काह विचार है, जो तुम साधी मौन॥
बने अपस्वारथी॥
पहले को सो अब न तिहारो यह वृन्दावन।
याके चारों ओर भये बहुबिधि परिवर्तन॥
बने खेत चौरस नये, कोटि घने बनपुञ्ज।
देखन कों बसि रह गये, निधुबन सेवाकुञ्ज॥
कहाँ चरिहैं गऊ॥
पहली-सी नहिं जमुनाहू में अब गहराई।
जल कौ थल, अरु थल को जल अब परत लखाई॥
कालीदह कौ ठौर जहँ, चमकत, उज्ज्वल रेत।
काछी माली करत तहँ, अपने-अपने खेत॥
घिरे झाऊनि सौ॥
नित वन परत अकाल, काल कौ चलत-चक्र चहुँ।
जीवन कौ आनन्द न देख्यौ जात यहाँ कहुँ॥
बढ्यौ यथेच्छाचार-कृत जहँ देखौ तहँ राज।
होत जात दुर्बल विकृत, दिन-दिन आर्य-समाज॥
दिनन के फेर सों॥
जे तजि मातृभूमि सों ममता होत प्रवासी।
तिन्हें बिदेसी तंग करत, दै बिपदा खासी॥
नहिं आये निरदय दई, आये गौरव जाय।
साँप-छछूंदर-गति भई, मन-ही-मन अकुलाय॥
रहे सब-के-सबै॥
टिमटिमाति जातीय जोति जो दीपसिखा-सी।
लगत बाहिरी ब्यारि बुझन चाहत अबला-सी॥
सेष न रह्यौ सनेह कौ, काहू हिय में लेस।
कासों कहिए ते कौ, देसहि में परदेस॥
भयौ अब जानिए॥
- पुस्तक : ब्रजमाधुरी सार (पृष्ठ 372)
- संपादक : वियोगी हरि
- रचनाकार : सत्यनारायण कविरत्न
- प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
- संस्करण : 2002
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