ब्रज सम और कोउ नहिं धाम
braj sam aur kou nahin dham
ब्रज सम और कोउ नहिं धाम।
या ब्रज में परमेसुरहूँ, के सुधरे सुंदर नाम॥
कृष्ण नाँव यह सुन्यो गर्ग ते, कान्ह-कान्ह कहि बोलैं।
बाल-केलि-रस-मगन भये सब, आनन्द-सिन्धु-कलोलैं॥
जसुदानंदन दामोदर, नवनीत-प्रिय, दधिचोर।
चोर-चोर, चित-चोर, चिकनिया, चातुर नवलकिसोर॥
राधा-चंद-चकोर-साँवरो, गोकुलचन्द, दधिदानी।
श्रीबृन्दाबन-चंद चतुर चित, प्रेमरूप अभिमानी॥
राधारमन, सु राधावल्लभ, राधाकांत रसाल।
वल्लभ-सुत,गोपीजन-वल्लभ गिरिवर-धर, छबि-जाल॥
रासबिहारी, रसिकबिहारी, कुंजबिहारी, स्याम।
विपिनबिहारी बंकबिहारी', अटलबिहारऽभिराम॥
छैलबिहारी, लालबिहारी, बनवारी, रसकन्द।
गोपीनाथ, मदनमोहन, पुनि बंसीधर, गोविन्द॥
ब्रजलोचन, ब्रजरमन, मनोहर, ब्रजउत्सव, ब्रजनाथ।
ब्रजजीवन, ब्रजवल्लभ सबके, ब्रजकिशोर सुभगाथ॥
ब्रजभूषण, ब्रजमोहन, सोहन, ब्रजनायक ब्रजचंद।
ब्रजनागर, ब्रजछैल, छबीले, ब्रजवर श्रीनंदनंद॥
ब्रज-आनंद, ब्रजदूलह, नितही, अति सुंदर ब्रजलाल।
ब्रज-गउवन के पाछै आछै, सोहत ब्रजगोपाल॥
ब्रज-संबंधी नाम लेत ये, ब्रज की लीला गाव।
‘नागरिदासहिं' मुरलीवारो, ब्रज कौ ठाकुर भाव॥
- पुस्तक : ब्रजमाधुरी सार (पृष्ठ 198)
- संपादक : वियोगी हरि
- रचनाकार : नागरीदास
- प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
- संस्करण : 2002
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