सैसव जौवन दुहु मिलि गेल
saisav jauvan duhu mili gel
सैसव जौवन दुहु मिलि गेल। स्रवनक पथ दुहु लोचन लेल॥
वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिये चाँद कएल परगास॥
मुकुर हाथ लए करए सिंगार। सखि पूछए कइसे सुरत-बिहार॥
निरजन उरज हेरत कत बेरि। बिहुँसए अपन पयोधर हेरि॥
पहिलें बदरि सम पुन नवरंग। दिन-दिन अनंग अगोरल अंग॥
माधव पेखल अपरूब बाला। सैसव जौवन दुहु एक भेला॥
विद्यापति कह तोहें अगेआनि। दुहु एक जोग एह के कह सयानी॥
बचपन और जवानी दोनों मिल गए। आँखों ने कानों की राह पकड़ ली। बातों में चतुराई आ गई। हँसी मंद हो गई। चंद्रमा ने धरा को प्रकाशित कर दिया।
हाथ में आईना लेकर तरुणी बनाव-सिंगार रचाने लगी। सहेली से पूछना चाहती है—'कामकेलि क्या होती है?' अकेले में आप ही अपना सीना देखती है, अपने कुचों की ओर देख-देखकर आप ही मुस्कराती है। वे पहले बेर की तरह के थे, फिर नारंगी जैसे होने लगे। कन्हाई ने उस अपरूप बाला को देखा—यह अद्भुत है, बचपन और जवानी दोनों इसी में आकर मिले हैं।
कवि विद्यापति ने तरुणी से कहा—“तुम तो बहुत नादान हो! बचपन और जवानी दोनों एक जगह मिलते हैं तो लड़की सयानी कहलाती है।”
- पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 11)
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2011
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