प्रेमचंद के पत्र प्रवासीलाल वर्मा के नाम
premchand ke patr prvasilal varma ke naam
प्रेमचंद
Munshi Premchand
प्रेमचंद के पत्र प्रवासीलाल वर्मा के नाम
premchand ke patr prvasilal varma ke naam
Munshi Premchand
प्रेमचंद
और अधिकप्रेमचंद
(1)
माधुरी ऑफ़िस,लखलऊ
19.7.28
प्रिय प्रवासीलाल जी,
वंदे!
कृपा-पत्र मिला। मुझे यह जानकर बड़ा दुःख हुआ कि महाशक्ति औषधालय वालों ने आपके साथ विश्वासघात किया। मैंने आपकी पहली पुस्तक देखी थी और उसके रूप-रंग तथा विज्ञापन-कौशल से समझ गया था कि आप अबश्य सफल होंगे। आप अब भार्गव पुस्तकालय से कुछ सहायता चाहते हैं। मैं सहर्ष आपको पत्र लिख दूँगा, लेकिन वे लोग इस मामले में उदार नहीं है। क्यों न आप मेरे प्रेस को सँभालनेके प्रस्ताव पर विचार करे। मेरे पास इस समय चार पुस्तकें प्रकाशित रखी हुई है। दो-एक और छापी जा सकती है। प्रेस अपना है ही। भाई, आप कोई ऐसा ढंग सोचे जिससे हम और आप अपनी शक्तियों को मिलाकर काम कर सके, तो मुझे आशा है कि अबश्य सफलता होगी। पं० रामवृक्ष जी शर्मा बहुत जल्द ‘युवक’ नाम का मासिक पत्र हमारे प्रेस से निकालने जा रहे हैं। पुस्तकें भी प्रकाशित करेंगे। हम तीनों आदमी मिलकर पुस्तकें निकाले। मैं इस काम में कुछ रुपया लगाने को तैयार हूँ। बस, मुझमें दौड़-धूप और विज्ञापन बाज़ी की कमी है। यदि यह कमी आप पूरी कर सके और हमारे प्रेस में काम अच्छी तरह आने लगे तो आपको कही और जाने की ज़रूरत ही नहीं है। सच पूछिए तो हमें आप-जैसे एक सहकारी की सख़्त ज़रूरत थी। आप इस प्रश्न पर विचार करे। मैं अपनी पुस्तकें अपने रुपए से निकालूँगा, बेनीपुरी जी भी कुछ रुपए लगाएँगे। आपको केवल प्रेस का प्रबंध, काम का आयोजन और पुस्तकों की बिक्री का उद्योग करना पड़ेगा। जो कुछ लाभ होगा, उसे हम-आप मिलकर बाँट लेंगे। इस विषय पर विचार करके उत्तर दीजिए। मुझे अपना मित्र समझिए।
और क्या लिखूँ!
भवदीय,धनपतराय
(2)
माधुरी ऑफ़िस,लखनऊ
27-7-1928
प्रिय प्रवासीलाल जी,
पत्र के लिए धन्यवाद। मैं अपने प्रेस का थोड़ा-सा इतिहास सुना दूँ। इससे बड़ी सुविधा होगी। यह प्रेस मेरे चचेरे भाई मु० बलदेवलाल, मेरे एक सगे भाई वा० महताबराय, मेरे एक मित्र वा० रघुपतिसहाय और मेरी संयुक्त संपत्ति है। साढ़े 4 हज़ार मेरे, 2 हज़ार रघुपतिसहाय, सवा 2 हज़ार बलदेवलाल के और 2000 महताबराय के लगे हैं। कुल पूँजी 10750 समझिए। इसमें वह ख़र्च भी शामिल है जो पहले-पहल कई महीनों तक कुछ काम न मिलने के कारण हमें अपने पास से देना पड़ा था। सामान में लगभग 8500 ख़र्च हुए थे। सन् 23 में खुला। वा० महताबराय ज्ञानमंडल प्रेस के मैंनेजर थे। मैंने उन्हें वह नौकरी छुड़वा दी और अपने प्रेस में रखा। 2 साल उन्होंने प्रेस को चलाया मगर हमें कुछ फ़ायदा न हुआ। जो काग़ज़ी फ़ायदा हुआ वह बट्टेखाते में चला गया। तब 2 साल मैंने स्वयं उसे चलाया। मुझे केवल इतना फ़ायदा हुआ कि मैंने 1400 का जो टाइप मँगवाया उसकी क़ीमत निकल आई। बाबू महताबराय 60 रु० वेतन लेते थे। मैं कुछ न लेता था। तब मैं यहाँ चला आया और अब 1-2 साल से बलदेवलाल प्रेस को देख रहे हैं। उन्हें भी सिवाए प्रेस का ख़र्च चलाने के कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अगर आज सारा लेहना वसूल हो जाए तो 1000 रु० हमें मिल सकते हैं, पर लेहने कहाँ इतनी आसानी से वसूल होते है।
यह प्रेस की स्थिति है। प्रेस किसी तरह जी रहा है। अगर उसे 2 फ़ॉर्म काम रोज़ कोई 20-22 रु० का और 100 रु० मासिक टूडल का काम मिलता जाए तो उसकी आमदनी 600 रु० मासिक हो जाएगी। मैंने कितना मासिक काम किया है, यह रजिस्टरों से मालूम हो सकता है। हाँ, काम ऐसा होना चाहिए जो चाहे सस्ता हो पर नकद हो। यह नहीं कि बरसों का झमेंला। अच्छा, मान लीजिए प्रेस की आमदनी 600 रु० मासिक होने लगे, इसमें आप केवल 50 रु० सूद और केवल 4 रु० सैकड़ा घिसाई के निकाल दे तो 40 रु० हुए। प्रेस का मौजूद ख़र्चा 300 रु० के लगभग है। आप 350 रु० रख लीजिए। 350 रु० में 50 रु० सूद के और 40 रु० घिसाई के निकाल दीजिए तो 450 रु० के लगभग हुए। 150 रु० बचते हैं। इसमें हम दोनों आधा-आधा ले सकते हैं। आप जितना ही काम अधिक प्रेस को दे सकेंगे, उतना ही लाभ होगा। प्रेस सोलहो आने आपके हाथ में रहेगा। बड़े भाई साहब कभी-कभी, जब उनके जी में आवेगा, आ जाया करेंगे। बुढ़ापे में उन्हें इस दौड़-धूप से बड़ा कष्ट हो रहा है।
अच्छा, अब प्रकाशन का काम। मेरी एक पुस्तक ‘प्रेम तीर्थ’ छप रही है। 12 फ़ॉर्म छप रखी है। एक का नाम है ‘मुरली-माधुरी’। सूर के पदों का संग्रह है कोई 6 फ़ॉर्म की। दूसरा एक फ़्रांसीसी उपन्यास का अनुवाद है ‘अबतार’ बड़ा ही रोचक। ये चार पुस्तकें तो क़रीब-क़रीब तैयार है। हम अपनी, आपकी या और किसी मित्र की लिखी हुई पुस्तकें साल में 4-5 छाप लिया करेंगे। इसमें लागत और लेखक के 20 रु० सैकड़ा रॉयल्टी के उपरांत जो लाभ हो उसमें भी आधा साझा। रुपए मैं लगाऊँगा मगर अभी ज़्यादा नहीं लगा सकता।
इस तरह आप देखेंगे कि आपके और मेरे गुज़ारे का साधन प्रेस और प्रकाशन बन सकता है। मेरी दोनों पुस्तकें आप साल भर में निकाल सके तो उसमें ही काफ़ी मिल जाएगा। आप ख़ुद चलती हुई चीज़ें लिखिए या संग्रह कीजिए। शुरू में जब काम न जमें, आप मुझसे जो सहायता चाहे वह मैं मासिक करने को तैयार हूँ, पीछे से लाभ होने पर उसे मुजरा दे दीजिएगा। मैं केवल यही चाहता हूँ कि आपकी सहायता से हमारा कारोबार चलने लगे। आप मेरे प्रेस में जाइए। मैं भाई साहब को पत्र लिखे देता हूँ। वह आपको सब कुछ हिसाब-किताब दिखा देंगे। अगर आपका मन भरे और आपका मन कहे कि इस काम में कुछ कमाया जा सकता है तो राम का नाम लेकर शुरू कीजिए। अगर काम चल निकला तो पौ बारह है। नहीं तीन आने (ये शब्द अस्पष्ट है—(गोयनका) तो कहीं गए ही नहीं।
इस पत्र को आप अपने पास सनद के तौर पर रख लीजिएगा। हमारी लिखा-पढ़ी जो कुछ होगी, वह यही पत्र है।
प्रेम पर क़र्ज़ नहीं है। दूसरो पर उसका लेहना क़रीब 1000 रु० है। जो डूब गया वह गया।
अभी प्रेस की जगह अच्छी नहीं है। 18 रु० किराया देता हूँ। कुछ काम सँभल जावे तो दूसरी जगह ली जा सकती है।
शीघ्र उत्तर की प्रतीक्षा करूँगा।
भवदीय,धनपतराय
(3)
माधुरी ऑफ़िसलखनऊ
13-8-28
प्रिय प्रवासीलाल जी,
वंदे!
इधर मैं आपको पत्र ना लिख सका। हमारे और आपके बीच में अब सारी बाते तय हो चुकी—
1. आप प्रेस के मैंनेजर होंगे। रुपए का सूद और घिसाई और आपका 50 रु वेतन निकालकर जो कुछ बचे, उसमें 1/3 आपका और 2/3 प्रेस के हिस्सेदारों का।
2. प्रकाशन में सब ख़र्च—विज्ञापन, पुरस्कार, छपाई, विज्ञापन आदि—निकालकर ½ हमारा और ½ आपका।
3. प्रेस के लिए आपके उद्योग से इतना काम मिलेगा कि सब ख़र्च निकलेगा। हम 3 महीने तक आपको 50 रु० मासिक अपने पास से देंगे और इस बीच में आपको काम का प्रबंध करना पड़ेगा।
4. आपका नाम प्रिंटर में लिख जाएगा।
5. ‘गुरुग्राम जी’, प्रूफ़-रीडर रहेंगे।
इन शर्तों में अगर कुछ कसर रह गई हो तो आप लिख दीजिए। मैं हस्ताक्षर कर दूँगा। सारी लिखा-पढ़ी तो दिल की है। जब तक आप करना चाहेंगे करेंगे, न करना चाहेंगे, शर्ते कुछ काम नहीं देगी। इसलिए ईश्वर का नाम लेकर काम शुरू कीजिए। कोशिश कीजिए कि शहर से ही कुछ Job work मिलने लगे। Electoral Roll का काम बहुत जल्द आने वाला है, उसे हाथ से न जाने दीजिएगा।
आशा है, आप सानंद है। ऐसी कोई पुस्तक लिखिए जिसमें साहस और वीरता का वृत्तांत हो, या ऐसा जिसमें जंगली जानवरों के शिकार की घटनाएँ हो। ऐसी पुस्तकें शायद अधिक खपे।
शेष कुशल।
भवदीय,धनपतराय
(4)
नवलकिशोर प्रेस (बुकडिपो),लखनऊ
21-8-1928
प्रिय प्रवासीलाल जी,
पत्र के लिए धन्यवाद। आप प्रेस में काम करने को तैयार हो गए, बड़े हर्ष की बात है। विज्ञापन और कोड-पत्र जो चाहे छपवाइए। विज्ञापन ऐसे पत्रों में छपवाइए जिन्हें कोई बड़ी रक़म न देनी पड़े। मेरे नाम का भलीभाँति उपयोग कीजिए। ‘कर्मवीर’, ‘प्रताप’, ‘स्वदेश गोरखपुर’, ‘मतवाला’ आदि पत्रों में अबश्य आपको रियायती दर मिल जाएगा। कोड-पत्र भी सस्ते में बाँट देंगे।
मैं ‘प्रेम-तीर्थ’ शीघ्र समाप्त कर दूँगा। इसके बाद ‘प्रतिज्ञा’ का छपना शुरू हो जाएगा। इस वक़्त तो यही दो पुस्तकें है। संभव है, दिसंबर तक एक छोटा-सा उपन्यास और हो जाए। उसके बाद कहानियों का एक संग्रह और हो जाएगा। मेरी एक पुस्तक प्रेस में लगी रहेगी। आप शहर में रहते हैं। आप शहर के व्यापारियों से मिलकर जॉब का काम ला सकते हैं। बहरहाल प्रेस की सफलता इसी पर मुनहसर है कि अगले दो-तीन महीनों में प्रेस दो फ़ॉर्म का काम रोज़ होने लगे और जॉब-वर्क भी ख़ूब आने लगे। और सब कुशल है।
भवदीय,प्रेमचंद
(5)
अजंता सिनेटोम लि.,बंबई-12
9-9-1934
प्रिय बंधुवर,
आज दो दिन बाद स्टूडियो आया। आपका पत्र मिला। इस परिस्थिति में सिवा इसके कि प्रेस बंद कर दिया जाए, मैं और क्या सलाह दे सकता हूँ। बंद कर दीजिए। 3 महीने की मज़दूरी 1000 रु. से कम न होगी, उधर निर्जनलाल का तगादा आया, 900 रु. उनका भी बाक़ी है, 900 रु. काशी पेपर स्टोर का बाक़ी है। उसका भी तगादा आ चुका है। इस तरह आपके ऊपर 3000 रु. का देना है। स्टॉक भी लगभग 5-6 हज़ार का होगा। आपके पास जो 250 रु. उनमें से 200 रु. काग़ज़ वाले निर्जनलाल को दे दीजिए। उसने नालिश कर दी तो 2000 रु. की डिग्री हो जाएगी। ‘हंस’ किसी दूसरे प्रेस में छपवाकर चलता कीजिए। एक-दो महीने चाहे प्रेस बंद रहे। ‘हंस’ छपने की व्यवस्था न हो तो उसे भी बंद कीजिए। ‘जागरण’ भी बंद हो रहा है। इस खिट-खिट से लगभग 10 हज़ार की हानि हो गई। अब यह तमाशा ख़त्म हो जाए, यही अच्छा है। मकान का किराया भी मैं यहाँ से भेज दिया करूँगा। आप 200 रु. दे देगे और अबकी मै 200 रु. या 150 रु. दे दूँगा, तो काग़ज़ का 350 रु. पहुँच जाएगा। 500 रु. और रह जाएगे। वह मैं—पुस्तके बेचकर दे दूँगा। काशी पेपर स्टोर के रुपये भी पुस्तके बेचकर अदा करूँगा। आप भी अपने लिए कोई मार्ग निकालने का प्रयत्न कीजिए, क्योकि जब कोई काम ही नहीं रहेगा तो आप बैठे क्या करेगे? 'हंस' के ग्राहकों में मुश्किल से छः माही चंदा बाक़ी होगा। उसके बदले में पुस्तके दे देनी होगी। प्रेस मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी और उसके पीछे मुझे अपने समय और धन का बहुत नुक़सान उठाना पड़ा। यह अच्छा अबसर आया है। इससे लाभ उठाकर किनारे हट जाइए। आपके लिए कही-न-कही कोई स्थान मिल ही जाएगा। मैं किसी-न-किसी तरह अपनी रोज़ी कमा ही लूँगा। प्रेस न रहेगा तो निश्चित रह सकूँगा। रही मज़दूरों की मज़दूरी, वह तो अब अदालती फ़ैसले से ही दी जाएगी, जब वे कार्यालय की हानि का तावान भी देंगे। ऋषभचरण जैन मेरा सारा कार्यालय और प्रकाशन लेने को तैयार हैं। आपको भी रखना चाहते है। क्योंकि यह बखेड़ा सिर से टाल दिया जाए। उनसे कुछ रुपए मिल जाएँगे। वह काग़ज़ वालों को देकर गला छुड़ा लिया जाएगा। या कहिए तो 'चाँद' वालों से बातचीत करूँ? 'चाँद' वाले राज़ी हो जाए तो ज़्यादा अच्छा है। मगर कुछ भी हो, प्रेस तो बंद ही कर दीजिए और रुपए निर्जनलाल को देकर उसे ठंडा कीजिए, वरना जो थोड़ा-बहुत स्टॉक बचा है वह भी कुर्क हो जाएगा, और कौड़ियों के मोल। फिर सारा तावान मुझे मज़ूरी करके चुकाना पड़ेगा। अगर बाबू संपूर्णानंद कानपुर से कुछ तय करके आए तो शायद कुछ रुपए दे सके और मज़ूरी की मज़ूरी एकाध महीने की निकल आवे, लेकिन वह असफल हुए तो फिर मज़ूरों की मज़ूरी तभी मिलेगी जब पुस्तके किसी को दी जाएगी और उससे कुछ रुपए मिल सकेंगे।
शेष क्या लिखूँ- ‘हंस’, ‘जागरण’ और प्रेस में एक भी कार्य सफल न बन सका। दुर्भाग्य।
भवदीय,
धनपतराय
(6)
अजंता सिनेटोम लि.,बंबई-12
21-9-1934
प्रिय बंधु,
मुझे यह सुनकर हार्दिक ख़ुशी हुई कि हड़ताल समाप्त हो गई। आदमियों से ऐसा मित्रवत् व्यवहार रखिए कि अगर वेतन देर में भी मिले तब भी उनकी सहानुभूति आपके साथ बनी रहे। धुड़कियों का ज़माना अब नहीं रहा, यह तो आप समझते ही हैं। आदमियों से मेरी तरफ़ से कह दीजिए कि में उन सभी को अपना भाई समझता हूँ और उनकी तकलीफ़ देखकर मुझे दुःख होता है, लेकिन मजबूर हूँ कि काम जैसा चाहिए वैसा नहीं चल रहा है। अगर ईश्वर कभी वह समय लाया कि काम सफल हो गया तो में पेशगी दूँगा, बाक़ी रखने की बात ही क्या! हाँ, जब तक वह दिन नहीं आता तब तक लज्जित भी होना पड़ता है और गालियाँ भी खानी पड़ती है। मैंने हमेंशा इस हानि को इसी ख़याल से बरदाश्त किया है कि इतने भाइयों की रोटी का सवाल है। मुझे नहीं कुछ मिलता, न सही।
चेक सही करके भेज रहा हूँ। बाबू संपूर्णानंद से 'जागरण' की बातचीत तय हो गई? अगर आप एक दिन के लिए प्रयाग चले जाए तो सारा काम बन जाए। दो सौ रुपये अगर अभी दे दिए जाए तो मैं अक्टूबर में 200 रु. और दे दूँगा। मगर वे 900 रुपए बताते है। मुझे ख़याल आता है कि मई में 700 सात सौ रु. का लेखा आया था।
मैं अपनी और भुवनेश्वर की कहानी कल अबश्य भेज दूँगा। घर पर है। मैं अजंता में बैठा लिख रहा हूँ।
शेष कुशल!
भवदीय,प्रेमचंद
इस महीने मैंने 150) रघुपतिसहाय को और 50) मुंशी नंदकिशोर को भेजा है। यह सब प्रेस का क़र्ज़ है, यह आप जानते ही हैं।
(7)
अजंता सिनेटोन लि.,बंबई-12
23-9-1934
प्रिय बंधु,
पत्र का जवाब दे चुका हूँ। अभी आपका पत्र मिला। लाजपतराय ने एक ड्राफ़्ट 100 का भेजा है, उसे भेज रहा हूँ। निर्जनलाल को दे दीजिए 100) का चैक। मैंने 'चाँद' को पत्र लिखा है। आप वहाँ जाकर उनसे रुपए ले आ सके तो बड़ा उत्तम। कटरे में उनकी दुकान है।
'जागरण' में अगर ऐसी बातें छपे जिनसे प्रेस की और हमारी बदनामी हो तो उसको बंद कर देना ही अच्छा। हमने तो समझा था, बँधा हुआ काम मिल जाएगा, इससे संपूर्णानंद को उसे दे रहा था। अगर वह उसके द्वारा हमारी ही जड़ खोद रहे है तो उसे बंद ही कर दीजिए। हम ख़ुद तो उसे अब किसी तरह नहीं छाप सकते।
'हंस' का मैटर भेज रहा हूँ। हाँ, उसका कवर ज़रूर बदल दीजिए।
व्हीलर वालों का चैक अब भी बहुत थोड़ा रहा। हमें अब प्रकाशन पर ज़ोर देना है। अगले महीने मैं कुछ रुपए भेजूँगा। आप काग़ज़ लेकर 'काया-कल्प' शुरू कर दीजिएगा। इसके बाद मैं हर महीने अगर ज़रूरत हुई तो 100) काग़ज़ वालों को देता रहूँगा और आप 'मानसरोवर' कहानियों का संग्रह निकालिएगा। उसके पीछे 'गोदान' निकलेगा। तब तक तो शायद मैं आ ही जाऊँगा। मेरा स्वास्थ्य यहाँ कुछ ठीक नहीं रहता है।
झाँसी वालों पर नालिश करनी होगी। लाजपतराय ने बी 100) दिसंबर और दूसरे महीने में 200) देने का वायदा किया है। शायद उस पर अभी नालिश न करनी पड़े।
काशीप्रसाद सिंह जी ने ऑर्डर भेजा। कांग्रेस-सप्ताह में अच्छी बिक्री होने की आशा है। किताबें जल्द भेजने का प्रबंध कीजिए। शेष कुशल!
अगर ‘जागरण’ बंद किया गया तो कुछ आदमी भी हटाने पड़ेंगे। ये लोग यह तो न समझेंगे कि हम बदला ले रहे हैं और फिर हड़ताल कर बैठे। मगर जिसको जवाब दीजिए, उसकी पूरी मज़ूरी देकर और नोटिस के बाद।
आपका,धनपतराय
(8)
अजंता सिनेटोन लि.,
30, गवर्नमेंट गेट रोड, परेलबंबई-12
29-9-1934
कल लेखों का पुलिंदा मिला। 'हंस' भी मिले। यह अक लेखो के एतबार से बड़ा सुंदर है। अक्टूबर-अंक के लिए कुछ लेख और मँगाने की ज़रूरत है। मैंने जिन लेखों को छपने योग्य समझा है, उनको लौटा रहा हूँ। शेष फिर लौटा दूँगा। उषादेवी का उपन्यास अभी मैंने नहीं पढ़ा। नए अंक के लिए जयशंकर जी की एक कहानी होना बहुत ज़रूरी है। उन्हें घेर-घार कर लिखाइए, गौड़ से भी। दो-तीन लेखिकाओं से भी लिखाइए। चंद्रावती और सुशीला आगा और अन्य लेखिकाओं के पास पत्र भेजिए। हैटल अबश्य बदलिए। अक्टूबर-अक सुंदर होना चाहिए। नोटों के लिए मैंने मसाला जमा कर लिया है। यह ख़याल रखिए कि लेखों की पहुँच ज़रूर स्वीकारी जाए और शिकायती पत्रों का जवाब डाक-व्यय का ख़याल न करके अबश्य दिया जाए। तब आपकी पत्रिका का प्रचार बढ़ जाएगा।
आप पुरस्कार के लिए कहते है। मेरी समझ में अगर हम लोग दे सकेंगे तो 20 रु. महीना पुरस्कारों में ग़रीब लेखकों को देना चाहिए, जैसे प० आनंदराव जोशी, जैनेंद्र या श्यामनारायण कपूर या भुवनेश्वरप्रसाद अथवा राधा-कृष्ण। जैनेंद्र को हम 2 रु. पृष्ठ देते ही है। इन सज्जनों में जिसका लेख छपे, उसे एक रुपया पृष्ठ देना चाहिए। 50 रु. का एक पुरस्कार साल भर में 'हंस' की सबसे सुंदर कहानी पर देना चाहिए।
मुझे रुपए मिलते ही 100 रु. का चेक काग़ज़ के लिए भेजूँगा। ‘कायाकल्प’ शुरू कर दीजिएगा। ‘अछूत’, ‘ह्रदय की लहर’ और जनार्दनराय का उपन्यास ये तीन उपन्यास भी छापने योग्य है। जैसे-जैसे रुपए मिले, इन पुस्तकों को निकाले। जनार्दनराय की पुस्तक बहुत बड़ी है, यही भय है।
‘जागरण’ के लिए जैसा आपने फ़ैसला किया है, वह बिल्कुल ठीक है। हमारा स्वार्थ इतना ही है कि हमारे प्रेस में छपे और हमें ½ पेज का विज्ञापन मिले। लाभ होने पर जो कुछ वे दे दे, 1/2, 2/5 या 2/6 मुझे मंज़ूर होगा।
काशीप्रसाद सिंह की पुस्तकें भेजिएगा। शायद सुरेंद्र बालूपुरी अपनी ‘विद्या’ पत्रिका आपके प्रेस में छपाएँगे। नक़द सौदा रखिएगा, चाहे रेट कम ही हो। मगर इन्हें जाने न दीजिएगा। मैंने अभी जैनेंद्र जी को लेख के लिए लिखा है। प्रसाद जी को भी आप ठीक कीजिए।
भवदीय,धनपतराय
(9)
बंबई
5-11-1934
धनपतराय बी.ए.
(उर्फ़ प्रेमचंद)
प्रिय बंधुवर,
कहानी भेज रहा हूँ। टिप्पणियाँ 8 को भेजूँगा। 10 को पहुँचेगी और 15 तक आप पत्रिका रवाना कर सकेंगे। जब तक वी. पी. न वसूल हो, आप सबके पास भेज भी तो नहीं सकते। जिनके रुपए आ जाएँगे, उन्ही के पास तो भेजिएगा।
सहगल के पास बिल भेज दिया होगा। 75 रु. काटकर बाक़ी का तक़ाज़ा कीजिए। 75 रु. आपको मिल चुके है।
मगलसिंह से भी तक़ाज़ा कीजिए।
लाहौर के सहगल से भी सख़्त तक़ाज़ा हो। जौहरी के ज़िम्मे आपके रुपए आते है। 40 रुपए उन्होंने मेरे नाम काट लिए थे। इसकी रसीद दे चुके है। शेष का बिल उनसे वसूल कीजिए। बिल रन बना लेना चाहिए और वसूल करना चाहिए।
वासुदेवप्रसाद, बेटी—सब प.... गए।
पुस्तकों की बिक्री में इधर हमारे नियम कुछ अनिश्चित-से हो गए है। कांग्रेस के अबसर पर बंबई वालों को हमने 33% और भाड़ा दे दिया। आगे से ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि नक़द ख़रीदने वालों को विशेष सुविधा दी जाए। जो लोग साल भर में कम-से-कम 500 रु. की पुस्तकें उठा ले और नक़द ख़रीदते जाए उन्हें फ़्री डिलीवरी न देकर 35% दे सकते है। 500 रु से कम के ऑर्डर पर 30% से अधिक न दीजिए। यह शर्त रहे कि अभी आपको 30% देते है। अगर आप सालभर में 500 रुपए की पुस्तकें उठा लेंगे और नक़द ख़रीदते रहेंगे तो हम 35% के हिसाब से काट देंगे। कमीशन सेल पर किसी को मत दीजिए, हाँ, जिन पर विश्वास हो कि इनसे जब चाहे रुपए मिल सकते हैं, उन्हें दे सकते हैं और 25% कमीशन दे सकते हैं। जयनारायण, महावीर आदि को पुस्तकें देकर धोखा खाया। यहाँ अयोध्यासिंह जी आए थे। आपके पास भी जाएँगे। उनसे भी यही नियम रखना होगा।
मैंने जौहरी जी को अस्वीकृत लेखों का एक बंडल दे दिया है। आप उनसे मँगवा लीजिएगा। ग़लती से केसरीकिशोर का लेख और एक और लेख, जो मैंने पढ़ा नहीं था, उसमें चले गए हैं। केसरीकिशोर का पत्र भी उसी में है। वह पत्र और लेख मेरे पास भेज दीजिएगा। उन्हें जवाब देना है। शेष कुशल है!
भवदीय, धनपतराय
(10)
(तिथि एंव स्थान अंकित नहीं, संभवतः 1934)
प्रिय वर्मा जी,
मुझे मालूम नहीं, क्या समय है। दस से काम शुरू होता है और 5.30 पर ख़त्म होता है। यह मुझे याद है। एक बार कुछ यह तय हुआ था। अगर आपने 7 घंटे रखा है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। मैं यह भी नहीं चाहता कि 10 बजे ज़रूर ही आ जाएँ, लेकिन ऐसा कुछ होना चाहिए कि 10 बजे ठीक काम शुरू हो जाए। अगर आप अभी नहीं आ सकते तो चलने दीजिए कि रामप्रसाद से कह दीजिए या मुनीम को ताकीद कर दीजिए कि आपके यहाँ से 10 बजे के पहले, अर्थात् 9.30 पर, कुंजी ले लिया करे जिसमें 10 पर काम शुरू हो जाया करे। और जब तक मैं नहीं आ जाता, उस वक़्त तक यही इंतज़ाम चलने दीजिए। छते टपकने लगी है। उनकी मरम्मत करानी पड़ गई है। नहीं अब तो पानी खुल गया है। आ जाता। दो-तीन दिन और लग जाएँगे।
आपका धनपतराय
(11)
(तिथि व स्थान अंकित नहीं, संभवतः जुलाई, 1934)
प्रियवर,
‘वेश्या की बेटी’ फ़रवरी, 33 में छपी है। मेरे पास वह नंबर है, पर उसमें से वह कहानी मैंने काट ली है। मेरा ख़याल है कि उन्हीं कटिंग में होगी जो मैंने दी थी। ‘वफ़ा का जाल’ किसी और नाम से 35 में निकला है। तब से मेरी शायद कोई कहानी नहीं निकली। उसकी आप चिंता न कीजिए। वह 35 में है और अंत तक मिल जाएगी।
‘चमत्कार’ भेज रहा हूँ।
मकान का प्रश्न तय कर डालना चाहिए। शहर के अंदर दो-तीन साल से खोज रहा हूँ, कोई मकान नहीं मिलता। आपने कहा है, टाउन-हॉल के पीछे कोई मकान है, मगर मालूम नहीं कब तक ख़ाली हो। नतीजा यह होगा कि फिर इसी मकान में यह साल गुज़र जाएगा और इसकी नहूसत ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। लक्ष्मीपति का मकान ख़ाली हो गया है। आज रविवार है। आप उनसे बातचीत पक्की कर ले तो अच्छा हो। शर्त यही होगी कि कम-से-कम दो साल तक वह किराया बढ़ाएँगे नहीं और हमसे मकान नहीं ख़ाली कराएँगे।
हम अपनी तरफ़ से यही शर्त करेंगे कि सालभर तक हम मकान न छोड़ेंगे। मगर हमें किसी शेड की ज़रूरत हुई तो वह बनवा देंगे। पेशगी केवल एक महीने का किराया दिया जाएगा।
किराया वही 45 रु. या बिल्कुल न माने तो एकाघ रुपया और। बाम्हन है न!
धनपतराय
(12)
(संभवतः 1-7 अगस्त, 1934)
प्रियवर,
‘चमत्कार’ भेजता हूँ।
मकान अगर गोदोलिया और बुलानाला तक मिल जाए तो क्या पूछना, मगर कहीं है नहीं। रामसिंह वाला मकान एक-तला है, मालूम नहीं कब ख़ाली होगा, क्या किराया है, कितनी जगह है, रहने के लिए और प्रेस के लिए काफ़ी जगह है या नहीं और दूरी के लिहाज़ से दोनों मकान बराबर है। रामसिंह वाला ज़्यादा दूर है और जब अग्रवाल प्रेस और नेशनल प्रेस और भूखली बाज़ार तक में प्रेस चल रहे है तो लक्ष्मीपति का मकान तो कबीर-चौरा के पिछवाड़े है, और 1 को ख़ाली हो जाएगा। फिर उठ जाने पर यही परेशानी होगी। मुझे 25 रु. किराए के अगस्त से मिलेंगे उसे क्यो छोड़े! रह गई प्रेस उठाने की दिक़्क़त, यह तो आप जब प्रेस उठावेंगे तभी होगी। तो क्या हमेंशा इस डर से उसी सड़ियल मकान में पड़े रहे जो शायद बैठ भी जाए और जिसमें बैठना भी बुरा लगता है! मै समझता हूँ, मुस्तैदी से काम लिया जाए तो एक सप्ताह में असबाब—पहले कम्पोज़िग उठवाइए। नए मकान में कम्पोज़िग होती रहे। मशीन के फ़िट होने में जितने दिन लगे, लगने दीजिए। अगर फ़र्मे तैयार होंगे तो दूसरे प्रेस से छपवा लिए, जा सकते है। काग़ज़ का स्टॉक हफ़्ते भर के लिए रखा जा सकता है। रोज मँगवाने की ज़रूरत नहीं। महीने भर में जितना काग़ज़ ख़र्च होने का हिसाब हो, उतना एक दिन मँगवा लिया जाएगा। एक साइकिल रख ली जाएगी और उस पर आदमी डाकख़ाने आ-जा सकेगा। बैलगाड़ी रख ली जाएगी और उस पर सामान ढुलवा लिया जाएगा। अगर 'हंस' में आप 10 को भी हाथ लगावे तो 14 फ़ार्म अधिक से अधिक 16 दिन में छप जाएँगे और 1 सितंबर तक डिस्पैच हो जाएगा। दो साल तक इस नए मकान में रहने के बाद फिर आगे क्या होगा, कौन जाने! इसलिए अब ज़्यादा सोच-विचार में यह घर भी हाथ से न खोइए, नहीं, मैं शहर न आ सकूँगा और काम जितनी ख़ूबी से मैं चलाना चाहता हूँ, न चल सकेगा। गुरूराम भक्त को मैंने ‘हंस’ का हिसाब-किताब, प्रूफ़, पत्र-व्यवहार आदि में सहायता देने के लिए ता. 1 से रख लिया है। ‘हंस’ से 25 रु. इनको दिया जाएगा। ये 50 रु. मिलते हैं, तो क्यों न ले?
धनपतराय
(13)
(तिथि व स्थान अंकित नहीं, संभवतः अप्रैल, 1934)
बंधुवर,
मकान वाले मामले में—मुझे याद नहीं कि हमने उससे कोई किरायानामा लिखा है। वकील से सारी परिस्थिति बताइए—राय साहब को छपाई के रूप में किराया दिया जाता था। इस मालिक ने आकर यकबारगी किराया बढ़ा दिया और चूँकि हमें कोई दूसरा घर न मिला इसलिए हम ख़ाली न कर सके। यह भी बताइए कि आपने एक बार एक चैक भेजा था, पर उसने उसे नहीं लिया और यह कहा कि हम सब यकबारगी लेंगे। अदालत में भी यही कहना होगा। अगर मिलकर उससे मामला तय कर लीजिए तो अच्छा हो। प्रोनोट लिख दीजिए।
पाँच-छह महीने में शायद हमारी दशा सुधर जाए।
धनपतराय
(14)
22-5-1934
(स्थान अंकित नहीं)
बंधुवर,
मैं जल्दबाज़ी नहीं कर रहा हूँ। पाँच-छह महीने से विचार कर रहा हूँ। यहाँ 8 साल तक आपने जी-जान से काम किया, मगर उसका जो नतीजा निकलना चाहिए, वह न निकला। आपको ही क्या फ़ायदा हुआ? किसी तरह जीवन व्यतीत हुआ। मैं तो यह सारा झंझट इसीलिए कर रहा हूँ कि हम और आप दोनो जीविका की फ़िक्र से मुक्त हो जाए। आख़िर आदमी स्टॉक ही तो नहीं बढ़ाना चाहता, पैसे चाहता है जिससे उसकी गृहस्थी चले। स्टॉक का बढ़ना तो तब अच्छा लगता है जब कुछ पैसे भी मिलते जाए। मैं अब और क्या करूँगा? पत्र निकालना, पुस्तक लिखना, जब इनसे कुछ मिले ही नहीं, केवल स्टॉक बढ़े तो जिऊँ कैसे? मेरी और कौन-सी आमदनी है? इसी प्रेस और पत्र और पुस्तकों ही पर तो जीवन का आधार है। इसलिए अच्छे भविष्य की आशा में एक बार उद्योग करना पड़ेगा। अगर प्रयाग में भी यही दशा रही तो आप स्वयं यही निश्चय करेंगे कि इस खटखट को बंद कीजिए।
आप अप्रैल का वेतन दे ही रहे है। अभी कुछ आमदनी होगी ही। अगर मई का वेतन हम लोग प्रेस से देंगे तो फिर लादने-फाँदने का ख़र्च 500 रु. से अधिक न होगा। तख़मीना ठीक करना होगा।
मकान वाले मुआमले में यह कीजिए कि या तो कोर्ट से क़िस्त पर रुपए अदा करने का मुआमला हो जाए, या हैंडनोट लिखकर गला छूटे। यह नतीजा है काशीवास का कि मकान का किराया तक अदा करने की हममें सामर्थ्य नहीं। 500 रु. प्रेमी जी ने भेजे हैं, लेकिन इन्हें मकान वाले को दे दूँ तो प्रेस कैसे लदेगा? न हो, मकान वाले से मिलकर हैंडनोट का मामला तय कर लीजिए। मुंशी के नाम यह तार भेजिए, ‘हंस’ शायद चमके।
आपका,धनपतराय
(15)
1-6-1934
बंधुवर,
कल मेरी संपूर्णानंद जी से मुलाक़ात हुई। वह तैयार है। आप Declaration दाख़िल कीजिए। अगर बड़ी ज़मानत माँगी गई तो मुश्किल पड़ेगी। हल्की ज़मानत हुई तो शायद वह लोग कुछ प्रबंध करें। एडिटर का नाम बताने की ज़रूरत नहीं। आप कह सकते हैं शायद प्रेमचंद जी ख़ुद एडिट करेंगे, या किसी को अपना सहकारी बना लेंगे।
मकान के विषय में—परिपूर्णानंद जी वही बुला वाला मकान अपनी बीमा कंपनी के दफ़्तर के लिए ले रहे है। वह नीचे का पूरा हिस्सा देने को तैयार है। शायद 30 रु. में तय हो जाए। ऊपर तीसरे मंज़िल पर रहने की जगह भी है। सत्यनारायण जी ने मुझसे कहा था कि मैं वर्मा जी से कहला भेजूँगा कि कल आप मकान देख सकते हैं। उनका आदमी आपके पास आए तो आप उस मकान को देख लीजिए और मुझे सूचित कीजिएगा कि आपकी ज़रूरत के लिए काफ़ी है या नहीं, और ऊपर मेरे रहने के लिए कितनी जगह निकलेगी। तब मैं भी आकर उसे देख लूँगा। गुर्जर पाठशाला पीछे गिरा दी गई है और केवल आगे है। पीछे की दीवार म्युनिसिपलटी ने गिरा दी है। अभी वह दीवार बनी नहीं है। उसका किराया भी अब 40 रु. से ज़्यादा न होगा, लेकिन बुला वाला उससे बहुत अच्छा है मेरी तबीयत इसी पर जमती है।
लैटर पेपर और लिफ़ाफ़े छपवाने की फ़िक्र कीजिएगा। उस दिन आपने जो लैटर छापा था उसके लिए 200 लिफ़ाफ़े और भिजवा दे।
आपका,धनपतराय
(16)
16-7-1934
बंधुवर,
उस दिन मैं आपसे कहना भूल गया। मकान वाला डिग्री इजरा करावेगा तो दस-पाँच रुपए और ख़र्च पड़ेगे और वह हमारे सिर ठुकेंगे। इससे तो यही अच्छा है कि डिग्री को आने न दिया जाए। रोज़-रोज़ डिग्री का आना कोई गौरव की बात तो नहीं है। आपने 200 रु. काग़ज़ वाले को दिए है। 90 रु. टाइप वाले को। अभी उन 500 रु. में से हमारे पास 200 रु. बचे है। यह 200 रु मकान वाले को दे आइए और आगे से यह ख़याल रखिए कि इस तरह काम न चलेगा। मुझे कुछ न मिले, न सही, लेकिन प्रेस का ख़र्च तो निकलना ही चाहिए। अगर आप प्रेस को 8 साल तक चलाने के बाद मकान का किराया तक नहीं दे सकते तो यह दुर्भाग्य की बात है। दो बीमा कंपनियाँ है। इनसे ऐसा राह-रस्म रखिए कि फ़ुटकल काम आपके यही लगातार आता रहे। जब प्रेस दिवालिएपन की दशा में है तो हम निश्चिंत होकर नहीं बैठ सकते। यह तो वही कर सकते है जिनका कारोबार मज़े से चल रहा है और उन्हें काम की फ़िक्र नहीं है। अगर मकान का किराया चुकाने के लिए हमें किसी के द्वार पर दस बार दौड़ना भी पड़े तो दौड़ना चाहिए, रेट घटाकर भी काम करना पड़े तो कोई हर्ज़ नहीं। जब अपने पास काम रहेगा, तो हम ऊँचे रेट पर भी काम करेंगे, लेकिन इस दशा में तो सब-कुछ करना पड़ेगा। सोचिए, ये 500 रु. मैं न लाता तो आपको काग़ज़ न मिलता, मकान वाला डिग्री कराकर आपकी मशीने नीलाम करा लेता, बस, सारा उद्योग शांत हो जाता। ‘हंस’ को चलाने की यह आख़िरी कोशिश कर रहा हूँ। अगर अब भी न चला तो फिर प्रेस और ‘हंस’ सब-कुछ बंद करना पड़ेगा। आख़िरी कब तक नुक़सान और अपमान और चिंता में प्राण देता रहूँगा?
मेरे पास थोड़े से सादे लिफ़ाफ़े भिजवाइए। यहाँ जो दो-चार प्रकाशक है उनसे बराबर मिलते रहिए, काम ठीक समय पर दीजिए। जिस रीति से अब तक काम हुआ है, उसमें सुधार होना ज़रूरी है, नहीं तो यह सब बैठ जाएगा।
प्रेमचंद
(17)
30-7-1934
बंधुवर,
हाँ, जगह तो जैसी चाहिए वैसी नहीं है, लेकिन सभी बातें तो बड़ी मुश्किल से मिलती है। देखिए, इरादा तो है टेलीफ़ोन भी लगा लिया जाए और रोशनी भी। इससे बड़ी सुविधा हो जाएगी। एक साईकल चढ़ने वाला आदमी दरकार होगा। साईकिल अभी नहीं है, मगर गुरूराम की रहेगी। उस पर चढ़कर डाकख़ाने या शहर जितनी बार चाहे, जाया जा सकता है। छपाई का काम तो अपने पास ही काफ़ी है। केवल किताबों की निकासी का प्रबंध करना पड़ेगा। इसके लिए कभी-कभी आपको, कभी मुझे, कभी गुरुराम को छोटे-छोटे दौरे करने पड़ेंगे। आप आज मालिक-मकान को किराया देकर रसीद ले लीजिए। 1 तारीख़ को चैक ले लीजिए। परसों गाड़ियों का प्रबंध कर लिया जाएगा। यहाँ से ईंटें लेकर जो गाड़ियाँ जाती है, वह बारह-एक बजे तक प्रेस में आ जाएगी। एक-एक गाड़ी दो-दो तीन खेप कर लेगी। मशीन ठेले पर लानी होगी। गाड़ी का किराया मैं दे दूँगा, और क्या ख़र्च होगा? पुराने मकान का किराया इधर कई महीने का बाक़ी है। उससे चाहे माहवार क़िस्त कर लेना होगा या वह चाहेगा तो प्रोनोट दे देंगे।
उर्दू में यह लेख भेजता हूँ। लेख पर पत्र का पता दर्ज है। रजिस्टर्ड भेज दीजिएगा। आज चला जाना चाहिए।
और तो कोई नई बात नहीं।
धनपतराय
(18)
15-12-19-34
प्रिय वर्मा जी,
आपने कोई जबाव नहीं दिया। इतने दिनों तक आप मेरे साथ रहे, मैंने आपके कारण बदनामी सही, हानि उठाई, लेकिन आप पर विश्वास किया। उसका मुझे यह पुरस्कार मिल रहा है! मैं अब भी नहीं चाहता कि शहर में आपकी बदनामी हो, मैं सारा मुआमला दबा रखूँगा, लेकिन आप मेरे एक हज़ार रुपए अदा कर दे, अन्यथा मुझे विवश होकर आपके साथ संबंध तोड़ना पड़ेगा और उसके साथ ही आपको और भी हानि उठानी पड़ेगी। मैं नहीं चाहता, आपका अपमान हो और अपने मातहतों की नज़र में गिरे। लेकिन जब मैंने प्रेस से कभी एक पैसा नहीं पाया तो मैं यह सहन नहीं कर सकता कि मेरे एक हज़ार रुपए मुझे बेवक़ूफ़ बनाकर ले लिए जाए। आपके पास रुपए है। यह रुपए आपने जमा कर रखे हैं। मैं आपको कल तक का समय देता हूँ। सोच लीजिए और मुझे बे-मुरौवती करने के लिए मजबूर न कीजिए।
भवदीय,धनपतराय
(19)
16-12-1934
प्रिय वर्मा जी,
आपका पत्र पढ़ा। मैं यह कब कहता हूँ कि आपने कोशिश और दिलचस्पी से काम नहीं किया, लेकिन जहाँ तक नफ़े का सवाल है, वहाँ तक तो आपकी कोशिश मेरे किसी काम न आयी। आपकी कोशिश ने कुछ-न-कुछ तो आपको दिया। मैंने प्रेस से या प्रकाशन से क्या पाया? जब प्रेस में वेतन न मिलने पर हड़ताल हो, जब वेतन न देने पर दावे हो और डिग्रियाँ हो, जब मकान या काग़ज़ का दाम न देने पर नालिश और डिग्री हो और मुझे ख़र्च के साथ भरना पड़े और आपके हाथ में रुपए हो, तो मैं किस धैर्य से शांत हो जाऊँ? प्रेस की आमदनी वही लिखी गई है जो हुई। ज़्यादा नहीं लिखी जा सकती। ख़र्च भी आप रोज़-का-रोज़ देख लेते है। फिर यह रक़म क्यो दबी? जब मैंने बंबई से काग़ज़ के लिए रुपए भेजे तब भी आपके पास 500 रु. से अधिक थे। मई, 33 में आपके पास 12 रु. थे। मई, 34 में आपके रोकड़ में 700 रु. से अधिक थे। साल भर में इतने रुपए क्या ख़र्च में कमी दर्ज होने के कारण हुए? एक महीने में यह भूल हो सकती थी, मगर लगातार तो ऐसी ग़लती नहीं हो सकती। मैं उस भ्रम में पड़ा हुआ हूँ कि प्रेस में एक पैसा भी नहीं है। अपनी किताब दूसरों को बेचकर प्रेस के लिए रुपए लाता हूँ और प्रेस के पास रुपए बचत में पढ़े हुए है तो कैसे मुझे बुरा न लगे? मैंने क्यो प्रेमी जी को 'मानसरोवर' में साझीदार बनाया? इसीलिए कि मैं जानता था प्रेस में रुपए नहीं है। और आपके पास रुपए थे। यह बात मेरी समझ में नहीं आती। आपकी बे-एहतियाती हो सकती थी; मगर बे-एहतियाती मान लूँ तो आमदनी के दर्ज करने में भी बे-एहतियाती माननी पड़ेगी और मैं उस भ्रम को और बढ़ाना नहीं चाहता। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि व्यापार में हिसाब पाई-पाई का साफ़ रहना चाहिए। आपकी ईमानदारी किस काम की जब उसका यह नतीजा हो? आख़िर ईमानदारी न होती तो इसके सिवा क्या होता? कितने दुख की बात है कि मैं भाई साहब की विधवा स्त्री को 10 रु. माहवार भी न दे सका जिसके 2000 रु. प्रेस में लगे। और प्रेस में एक हज़ार रुपे बट्टे खाते में चले जाए! सोचिए, मुझे दुख होता है तो क्या आश्चर्य की बात है। अगर प्रेस से मैंने आपके पुरुषार्थ से दस-पाँच हज़ार पाया होता तो समझता, एक हज़ार यों ही सही। मगर प्रेस से पाने का तो क्या ज़िक्र, मैंने 34 और 35 में प्रेस को 600 रु. अपने पास से दिए। ऐसी दशा में प्रेस की एक पाई रक़म भी कहीं दब जाए तो मेरी दृष्टि में वह अक्षम्य है। इसी साल मैंने बाबू रघुपतिसहाय के हिस्से के 244 रु. दिए जो मेरे चैकबुक में दर्ज है और आज भी उनका ख़त अपने बाक़ी 160 रु. रुपयों के लिए कल आया है जिसे आप देख सकते है। ऐसी दशा में प्रेस की एक-एक पाई का हिसाब मुझे मिलना चाहिए, और उसके न मिलने पर मुझे दुख भी होता है और संदेह भी होता है।
आप साझे की बात कहते है। साझे की व्यवस्था यही थी कि प्रेस का 50 रु. सूद निकालकर प्रकाशन और प्रेस कहाँ रही? मुझे 4200 रु. तो मिलने चाहिए। उतना सूद मिले जो आपको 7 साल में मिले। में आधा-आधा हम-आप ले लेंगे। वह बात 11 रु. सैकड़े सूद के हिसाब से सूद के ही तो ऊपर से 4000 रु. और मिलने चाहिए जो आपको 7 साल में मिले।
प्रकाशन में मुझे 3000 रु. तो 'ग़बन' और 'कर्म-भूमि' पर ही मिलना चाहिए। उनकी थोड़ी प्रतियाँ स्टॉक में रह गई है। 'प्रतिज्ञा' का एक एडीशन बिक गया। उस पर भी 400 रु. हुए। 'प्रेम-द्वादशी' 6 एडीशन हुई उस पर भी 1000 रु. से कम रॉयल्टी नहीं हुई। 'गल्प-समुच्चय', 'प्रेम-तीर्थ', 'पाँच फूल', 'प्रेरणा', 'गल्प-रत्न' आदि पर भी मुझे कम-से-कम 1500 रु. और मिलने चाहिए। इस तरह मेरी रॉयल्टी के 6000 रु. होते है। मुझे 14000 रु. मिल जाए तो प्रकाशन में मैं आधा नफ़ा देने को तैयार हूँ, लेकिन जब आप जानते है मुझे प्रकाशन से अभी तक 1000 रु. से ज़्यादा नहीं मिला और इतना मैं प्रेस को अपनी जेब से ऋण के रूप में दे चुका हूँ तो आप कैसे साझे की बात कह सकते है? वह तो ख़त्म हो गई और फिर तभी उठ सकती है जब मेरे घाटे पूरे करने का कोई ज़िम्मेदार हो। स्टॉक में कुल 14000 या 15 हज़ार की पुस्तकें होगी, जिनका इस समय अगर मुझे 5 हज़ार भी मिल जाए तो मैं देने को तैयार हूँ। इसी स्टॉक में मेरे प्रेस का सूद, प्रेस का नफ़ा और रॉयल्टी सब मिले हुए है अर्थात् अपने 14000 रु. में मुझे 14000 का स्टॉक मिलता है जिसकी मौजूदा क़ीमत 5000) से ज़्यादा नहीं। तब भी मुझे 6000) का घाटा है। इसलिए आप ज़्यादा से ज़्यादा 'वृक्ष-विज्ञान' की रॉयल्टी का मुतालवा कर सकते है। उसमें आप कुछ ले चुके है। जो अभी बचे, उसे आप अपने नाम ख़र्च में टलवा लीजिए। कुछ तो आपका भार कम हो।
आप कहते है आपके पास केवल 100) है। 100) उस दिन मैंने लिये थे। 1131) में 200) निकालकर 991) रह जाते है। इसमें से आप 'वृक्ष-विज्ञान' की रॉयल्टी, जितनी प्रतियाँ बिक चुकी हो, उसपर ले लीजिए। शेष आप 20 रु. महावार के हिसाब से अपने वेतन से कटवाते जाइए। जिस दिन मुझे प्रेस से 50 रु. सूद माहवार और पुस्तकों की बिक्री के पूरे रुपए मिलने लगेंगे, मैं आपको तरक़्क़ी दे दूँगा, लेकिन जब कारोबार में घाटा हो तो तरक़्क़ी का सवाल नहीं रहता। और आज से रोज़ाना शाम को आप मुनीम के हाथ रोज़ की आमदनी मेरे पास भेज दिया करे जिसमें भविष्य में ऐसी संभावना न रहे। नफ़ेया प्रकाशन में आपका साझा टूट गया, क्योंकि उसकी शर्ते पूरी नहीं हुई, और आपके ऊपर मैं वह भार न रखूँगा। आपका यह कहना कि प्रकाशन में लाभ हुआ है, ठीक नहीं है। प्रकाशन में लाभ यही हुआ है कि मेरे 14000 नक़द रुपए के बदले 14000) के छपे हुए फ़ार्म पड़े हुए है जिनमें से आधे कौड़ियों के मोल भी न बिकेंगे। इन परिस्थितियों में मैं इससे अच्छा और सम्मानपूर्ण समझौता नहीं कर सकता।
भवदीय,धनपतराय
हाँ,
1. ज़ुर्माने का तरीक़ा बंद कीजिए। (1 या 2) माहवार ज़ुर्माने की रक़म से प्रेस धनी नहीं होता। आदमियों को समझा दीजिए या मेरे पास भेज दीजिए।
2. जिस तारीख़ को वेतन का एंडवास देना हो, उसके एक दिन पहले हिसाब बनाकर मुझे दीजिए। मैं बैंक से रुपए मँगवाकर बाँट दिया करूँगा।
3. फुटकल ख़र्च के लिए मुनीम के पास 10) रख दीजिए। जब वे ख़र्च हो जाए तो मुझे दिखाकर और ले ले।
धनपतराय
(20)
18-12-1934
प्रिय वर्मा जी,
(1) ‘हंस’ के लिए मुझे कोई हिस्सा नहीं मिला। महात्मा जी (महात्मा गांधी—गोयनका) ने स्वीकार नहीं किया। मुझे बग़ैर मुआवज़े के ‘हंस’ पढ़ा। आप श्री मुंशी से पूछ सकते है।
(2) प्रेस पर हमारी लागत 10 हज़ार पड़ी। आपके हाथ में जिस वक़्त वह आया, 6 हज़ार उसका मूल्य आँका गया था। मैंने 10 हज़ार पर आठ आना का ब्याज लगाया है, इसलिए कि मूल्य वास्तव में ज़्यादा था। 6 हज़ार पर तो बारह आना का ब्याज लगाना पड़ेगा। आठ आना पर कोई व्यापारी रुपया नहीं लगाता। बारह आना भी कम-से-कम ब्याज है। इस हिसाब से 7 वर्ष का ब्याज लगभग 4 हज़ार होता है। घिसाई 5% के हिसाब से 3000) होती है। प्रेस में जो चीज़ें बढ़ी हैं, 3 हज़ार से ज़्यादा की किसी तरह नहीं। ट्रेडल 1200 रु. की ज़रूर आई है। दूसरे सामान कितने के है मैं नहीं कह सकता, मगर किसी तरह एक हज़ार से ज़्यादा का नहीं है। नफ़ा भी 4 हज़ार होता ही है। इस तरह प्रेस से मुझे 8000 मिलने चाहिए थे। उसके बदले मुझे क्या मिला? अगर यह 8 हज़ार प्रकाशन में समझ लूँ तो 'हंस' और 'जागरण' दोनों गए, अब केवल 12 हज़ार का अधिक-से-अधिक स्टॉक है जिसकी बाइडिंग में सैकड़ो ख़र्च करने पर भी वह रुपए के रूप में कब आएगा, कौन जाने। प्रेस से—
1700 गबन बिका 5200 रु.
1700 कर्मभूमि बिका 5200 रु.
1100 प्रतिज्ञा बिकी 1650 रु.
5000 प्रेम-द्वादशी 3750 रु.
1200 गल्प-समुच्चय 3000 रु.
2000 प्रेम-तीर्थ 3000 रु.
2000 गल्प-रत्न 2000 रु.
अन्य पुस्तकें भी 500 रु. से कम की न बिकी होगी। इस तरह कुल बिक्री 24000 रु. की हुई जिसमें से 1/4 कमीशन काट दीजिए, तब भी 18 हज़ार रुपए होते है। 18 हज़ार रुपए न रखकर आप 16 हज़ार रुपए भी रख ले तो मुझे 4 हज़ार रुपए रॉयल्टी देकर भी प्रेस के पास 12 हज़ार रुपए का नफ़ा होना चाहिए। मगर हमारे पास 12 हज़ार रुपए का स्टॉक है जो 5-6 साल में शायद पाँच-छः हज़ार रुपए दे सके। अभी तो रद्दी है। इसे आप नफ़ा समझते है!
प्रेस की इस हालत में आपको अपना गुज़ारा मिलता जाता था, वही बहुत था। आपको उस पर संतुष्ट होना चाहिए था, मगर आपने वह रक़म अपने ख़र्च में ले ली जो इस वक़्त काग़ज़ वालों की जेब में होनी चाहिए थी।
मैंने प्रेस से 1000 रुपए पाया है अबश्य, मगर 600 रुपए लौटा भी चुका हूँ। मेरे हाथ कुल 400 रुपए आए। प्रेस का लेना संभव है एक हज़ार हो, तो देना भी इससे कुछ ज़्यादा ही है।
अभी आप यहाँ है ही। जब मुझे 4000 रु. सूद के, 4000 रु. नफ़े के, 4000 रु. रॉयल्टी के मिल जाए तो प्रेस के पास जो नफ़ा होगा, उसमें आप शरीक हो सकते है। मगर इस 12 हज़ार रु. के घाटे के होते हुए केवल स्टॉक को, जो 12 हज़ार रु. से ज़्यादा का नहीं है, कैसे नफ़ा समझ लूँ?
साझे की जो भी बाते थी, वे पूरी नहीं हुई और मुझे अकेले ही सारी हानि उठानी पड़ी, फिर उसका ज़िक्र ही बेकार है।
मैंने आपके 'वृक्ष-विज्ञान' की रॉयल्टी पूरी 24% के हिसाब से दे दी है। शेष 20 रु. माहवार के हिसाब से आप लेते जाए। अगर मेरे जीवन में कभी मुझे प्रेस और प्रकाशन से 12 हज़ार रु. मिल जाएँगे तो मैं आपको एक हज़ार दे दूँगा।
26 ता० को आपके रोकड़ में 982 रु. थे। इससे 168 रु. 12 आने आपके 'वृक्ष-विज्ञान' की रॉयल्टी का शेषांश है। वह निकालकर आपके नाम 813 रु. साढ़े चार आना निकलता है। हिसाब को सीधा करने के लिए मैंने 13 रु. साढे चार आने आपके वेतन में डाल दिया है। यह 800 रु. किस तरह बही में दिखाया जाए, मेरी समझ में नहीं आता। अगर आप एक प्रोनोट 800 रु. का लिख दे, तो यह रक़म उधार-खाते दिखा दी जाए। दूसरी कोई सूरत आपको ठीक जँचे तो वह बताइए। बट्टेखाते में तो इतनी बड़ी रक़म डाली नहीं जा सकती और न फ़र्ज़ी रोकड़ दिखाने से कोई लाभ है। वह रक़म आपसे ख़र्च हुई है और आपको प्रोनोट लिख देने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। अगर यह रक़म बट्टेखाते में डाल दी जाए तो प्रेस में ही नहीं, प्रेस के हिस्सेदारों में कुहराम मच जाएगा जो अभी तक केवल इसलिए ख़ामोश हे कि प्रेस में कोई नफ़ा नहीं है, इसका उन्हें विश्वास है। अगर यह खुलेगा कि 800 की रक़म यो ही उड़ गई, तो मेरी आबरू ख़तरे में पड़ेगी। बाहर भी और प्रेस में भी मैं तो बदनाम हो चुका, लेकिन घर के लोग मुझे ईमानदार समझते है। तब तो सभी मुझ पर संदेह करने लगेंगे और यह तो मोटी-सी बात है कि जो फ़र्म मज़दूरों की मज़ूरी नहीं दे सकता, काग़ज़ के दाम नहीं दे सकता, मकान का किराया नहीं दे सकता, दूसरों के देने नहीं चुका सकता, वह घाटे में है। ऐसे कार्यालय में एक पैसे का भी गड़बड़ न होना चाहिए। अगर आपने मुझे सूद और नफ़े के 8 हज़ार की जगह 6 हज़ार भी दिए होते, तो वह मेरे पास 30000 रु. के रटॉक के रूप में होते और उस पर मुझे साढ़े 6 हज़ार मिलते और कोई 15 हज़ार का स्टॉक नफ़े में होता जिसमें आप भी शरीक होते। मगर जब वह सब-कुछ न हुआ और मुझे दस-बारह हज़ार के बदले यही स्टॉक मिला जो पाँच-छ हज़ार से ज़्यादा का नहीं और वह आज से पाँच-छः साल में, हालाँकि शायद 'कर्मभूमि' और 'गबन' बिक जाने के बाद एक हजार को भी महँगा हो। ऐसी स्थिति में भी आप प्रेस में नफ़ा समझते है! दोष किसका है, यह कुछ नहीं कहा जा सकता। आपने मेहनत की ज़रूर, लेकिन भाग्य मेरा और आपका दोनों का दुश्मन निकला। मैं तो आपको एक तरह से प्रेस की माली ज़िम्मेदारी से आज़ाद किए देता हूँ। प्रेस की हालत आप 8 साल देख चुके। आगे भी वह इससे अच्छी न होगी तो इस तरह में घाटे-नफ़े का हिसाब क्यो लगाता रहूँ? हमने एक काम मिलकर किया। वह फ़ेल हो गया। मैंने ज़्यादा नुक़सान उठाया, आपने कम। झगड़ा पाक हुआ। अब आप निर्द्वंद्व होकर रह सकते है। मैं प्रकाशन कर ही रहा हूँ। आप अनुवाद या संग्रह से अपनी आमदनी बढ़ा सकते है। गुजराती या मराठी की पुस्तके अनुवाद करते जाइए, वही जो सर्वश्रेष्ठ हो। मैं छापूँगा और आपकी मज़दूरी दूँगा। मगर यह 800 रु. की रक़म तो हिसाब ठीक रखने के लिए कही-न-कही दिखानी होगी और प्रोनोट के सिवा मुझे कोई उपाय नहीं सूझता।
भवदीय धनपतराय
(21)
(संभवतः दिसंबर, 1934)
बंधुवर,
हिसाब-किताब सब-कुछ आप देख लीजिए। मैं तो इतना जानता हूँ कि प्रेस से आज तक मुझे कुछ नहीं मिला। अब मैं हिसाब देखकर क्या करूँ? मुझे प्रेस से अब तक बड़ी रक़म मिल जानी चाहिए थी, मिला कुछ नहीं। प्रेस से कुछ मिल तो सकता नहीं। काग़ज़ को देखकर क्या होगा? मैंने प्रेस से जो लिया है वह मुझे जवान पर है। काग़ज़ कुछ पड़ा हुआ है, उसका कोई भरोसा नहीं। पाँच-छः साल में शायद कुछ मिले।
आपने परिश्रम किया, मैंने भी किया; मगर प्रेस इस योग्य है कि 60 रु. प्रतिमास दे सके? प्रेस आपके कथनानुसार अब 8 हज़ार का है क्योंकि आपने 3 हज़ार रु. लगाया है कमाकर, अर्थात् जो सूद था, वह उसमें लग गया। ठीक, तो मुझे उस पर आठ आने का ब्याज मिलेगा। 40 रु. यों हुए। 60 रु. आपको और 60 रु. मुझे। 120 रु. यों हुए। प्रेस से अगर आप प्रतिमास 160 रु. निकाल सके तो निकालिए, मुझे कोई आपत्ति नहीं। मै ख़ुश हूँगा अगर आप 160 रु. मासिक निकालते रहेंगे। वहुत ख़ुश और आपका एहसान मानूँगा। प्रेस में मज़दूरी देने के बाद जो कुछ बचे, उस पर 160० रु. निकल जाए तो क्या कहना! बुक-डिपो से आपका कोई संबंध नहीं। आपकी जो पुरतक छपे, उस पर आप रॉयल्टी के हक़दार है। अगर किसी महीने में मज़दूरी आदि देने के बाद 50 रु. बचे, तो उसी पर हमें और आपको संतुष्ट होना पड़ेगा।
उसके साथ ही ज़ुर्माना वग़ैरा से मुझे चिढ़ है। हम सब मज़दूर है और सबके साथ प्रेम से काम लेना चाहिए। मुझे तो भय है कि आप प्रेस को इस सफलता पर पहुँचा सकेंगे। जब अभी तक केवल आपने किसी तरह अपना गुज़र किया हो तो अब कहाँ से आएगा? लेकिन मैं यह कब चाहता हूँ कि आप रहे ही नहीं? अब तक मैंने प्रेस से कुछ नहीं लिया। अब उसी पर मेरी गुज़र-बसर भी है। सूद के बाद आधा-आधा। बुक-डिपो से मतलब नहीं। वेतन का कोई प्रश्न नहीं।
आपका धनपतराय
(22)
(संभवतः दिसंबर, 1934)
बंधुवर,
आप स्वार्थी नहीं कहलाना चाहते, न सही। जिसकी हानि होती है वह कुछ-न-कुछ कटु हो ही जाता है।
मैंने आपसे जो-जो प्रस्ताव किए, आपने एक भी स्वीकार नहीं किया। फिर मेरे लिए आप कौन-सा मार्ग छोड़ते हैं? मैंने कहा, 40 रुपए मासिक लीजिए और 20 रुपए कटवाइए। आमदनी की कमी को अनुवाद से पूरा कीजिए। आपने स्वीकार नहीं किया।
मैंने कहा, प्रेस को 30 फ़ॉर्म दीजिए। आपने कहा, 30 फ़ॉर्म पर तो आप कही से भी 75 रुपए कमा सकते है। तो फिर आप क्या चाहते है? मैं कह चुका है, प्रेस की स्थिति जो इस वक़्त है वह 60 रुपए मासिक देने की नहीं है। इस वक़्त जो आमदनी है वह ख़र्च भर को मुश्किल से काफ़ी है। प्रेस का पावना शायद 400 या 500 रुपए होगा। देना है कम-से-कम 1200 रुपया, वह सब कहाँ से आएगा? अगर आप अपने लिए कोई मार्ग नहीं निकाल सकते तो प्रेस को इतना काम दीजिए कि आपका वेतन निकल सके। 60 रुपए वेतन के लिए कम-से-कम 25 फ़ॉर्म काम हर महीने बाहर से आना चाहिए। अगर आप इसका ज़िम्मा ले और परिश्रम करके काम लाए तो ठीक है। बुक-डिपो की आमदनी से में प्रेस नहीं चला सकता, जैसा अब तक हुआ है।
अगर यह भी स्वीकार न हो तो फिर और मैं क्या करूँ, मेरी समझ में नहीं आता। मैंने तो यहाँ तक कह दिया कि आप स्टॉक में भी जो कुछ हिसाब से निकले वह ले लीजिए। जो कुछ है वह तो स्टॉक ही है। मैंने तो कुछ नहीं छिपाकर रख लिया है।
आपकी जो दशा है वही तो मेरी है। मैं किससे फ़रियाद करूँ? घाटे में और होता क्या है? यह तो प्रेस का दीवाला है।
अगर आपको इन शर्तों में कोई मंज़ूर हो तो काम कीजिए। साझे-बाझे का झगड़ा मैं नहीं पाल सकता। उसका निहायत कटु अनुभव हुआ।
अगर कोई शर्त मंज़ूर न हो तो जैसी आपकी ख़ुशी!
आपका धनपतराय
(23)
(संभवतः दिसंबर, 1934)
बंधुवर,
मेरी समझ में नहीं आता कि आप मुझसे पिछला हिसाब क्या देखना चाहते है? आप उसे देखिए। मैं उसे देख चुका। लेना-देना तो आप इस तरह कहते है कि गोया मुझे भी कुछ देना है। आपने अभी तक परिस्थिति को शांत मन से समझने की चेष्टा नहीं की और लेने-देने के फेर में पडे हुए है। मेरे दृष्टिकोण से भी तो देखिए! आप न तो लज्जित है, न दुःखी है। बस, कि अपने कामों का औचित्य साबित किए जाते है। प्रश्न है कि हिसाब सही है या ग़लत? अगर ग़लत है तो ग़लत हिसाब लिखने का जाल क्यों किया गया? सही है तो रुपए रहते हुए, मकान के किराए की डिग्री क्यो कराई गई, काग़ज़ की डिग्री क्यों कराई गई, हड़ताल क्यों कराई गई? मेरी बदनामी क्यों कराई गई है?
'हंस' निकला, 'जागरण' निकला—प्रेस के, मेरे और आपके लाभ के लिए। एक भी न चला। तो वह नुक़सान मेरे ही ऊपर क्यों डाला जाए? मैंने माना, आपने प्रेस को 3000 रुपए दिए। प्रेस की घिसाई भी तो कुछ हुई। आज आपके पास केवल वही टाइप है जो मेरे सामने आया। दूसरा टाइप नहीं। मशीन में 200 रुपए ख़र्च होंगे तब चलेगी। घिस-घिसकर बेकार हो गई। केवल ट्रेडल नई आई। बॉर्डर वग़ैरा आपने कितने का मँगाया है, यह मैं नहीं जानता। मुझे सूद कुछ मिलना चाहिए या नहीं? पुस्तकों की आमदनी कुछ मिलनी चाहिए या नहीं? यह सब 'हंस' और 'जागरण' खा गए। आपका इससे कोई संबंध नहीं था। यही सही! मगर यह तो आपको मालूम था कि जो आदमी 7 साल से बराबर पत्र निकाल रहा है, पुस्तकें लिख-लिख दे रहा है वह किसलिए? इसीलिए कि 'हंस' निकाला जाए? 'हंस' निकालना ही उसका उद्देश्य है? यह सब हम दोनो के नफ़े के ख़याल से निकला। यह जानते हुए कि जिस व्यक्ति ने इतना सब किया, वह कुछ नहीं पा रहा है, आपको प्रेस की एक-एक पाई की एक-एक अशर्फ़ी की तरह रक्षा करनी चाहिए थी। कारोबार में घाटा हो रहा हो, डिग्रियाँ हो रही हो, मैं बराबर अपने पास से रुपए दे रहा हूँ, तो भी आप नफ़ा ही कहे जाएँगे? अच्छा, सूद छोड़िए, आपने जो कुछ पाया वह तो मुझे मिलना ही चाहिए। पुस्तको की रॉयल्टी तो मिलनी ही चाहिए। इन दोनो का ठीक-ठीक हिसाब निकलवाइए। फिर स्टॉक का ठीक-ठीक हिसाब निकलवाइए। स्टॉक के सिवा तो मेरे पास और कुछ नहीं है। 'मानसरोवर' को छोड़ दीजिए, क्योंकि वह दूसरे की चीज़ है। जितने का स्टॉक निकले उसमें मुझे प्रेस का नफ़ा और रॉयल्टी की रक़म देकर बाक़ी जो बचे उसमें आधा आप ले लीजिए, आधा मुझे दे दीजिए, और अपने लिए कोई दूसरा स्थान तलाश कर लीजिए।
मैंने आपकी मनोवृत्ति जैसी समझी है, वह स्वार्थपरता की ओर झुकी हुई मालूम होती है। मालिक को धेला न मिले, वह पत्र में भी लिखे, पुस्तकें भी लिखे, अपने पास से रुपए भी दे, फिर भी आप इस ख़याल में ख़ुश रहें कि नफ़ा हुआ है और हज़ार-पाँच सौ रुपए ख़र्च करने का आपको अधिकार है। मैं इस अधिकार को स्वीकार नहीं करता हूँ। हमारे-आपके बीच में शर्त थी कि प्रेस की लागत का सूद निकालकर, प्रकाशन पर रॉयल्टी देकर जो कुछ बचे, उसमें आधा-आधा। इसमें कोई भूल तो नहीं है? तो—
1. आपने अब तक क्या लिया, इसका हिसाब लगाइए।
2. मैंने क्या लिखा?
3. मैंने प्रेस को क्या दिया?
4. स्टॉक कितने का है?
5. प्रेस के ज़िम्मे क्या बाक़ी है?
6. प्रेम को कितना पाना है?
यह साफ़ करके आपका जो कुछ निकले ले लीजिए, मेरा जो कुछ निकले दे दीजिए और झगड़ा ख़त्म। ऐसी मनोवृत्ति के साथ मेरा सहयोग कठिन है। आप के लिए इससे बहुत अवसर मिल सकते हैं।
मुझे जान पड़ता है कि आपके साथ मेरा साझा न चल सकेगा। साझा तो तब चलता जब आपने मेरे हित का ध्यान रखा होता। आपने मेरे हित का ध्यान न रखकर अपने लाभ का ही ध्यान रखा। ख़ैर, अब तो मुआमला साफ़ है। आप दो-चार दिन में हिसाब ठीक-ठाक कर लीजिए और यह चिठियाव ख़त्म कीजिए। आपको भी मानसिक कष्ट होता है और मुझे भी। हाँ, स्टॉक में इस बात का ख़याल रखिएगा कि केवल उसकी लिखी हुई क़ीमत पर न जाइए। उसमें अभी तैयारी में भी ख़र्चा पड़ेगा और 2/3 कमीशन निकालना पड़ेगा, अर्थात् 40 प्रतिशत बाद कर दीजिएगा।
‘रस-रंग’, ‘ज्वालामुखी’ आदि पुस्तकें आप यों ही ले जाइएगा और लेखकों से अपना हिसाब-किताब समझते रहिएगा।
आपका,धनपतराय
(24)
(संभवतः दिसंबर, 35)
‘हंस’हंस कार्यालय,बनारस
प्रिय वर्मा जी,
आप न मेरी बात समझते है, न मै आपकी बात समझता हूँ। मुझे इसका दुःख है कि आपके इंतिज़ाम में मेरी इतनी दिनों की सारी साहित्यिक तपस्या, जहाँ तक अर्थ का संबंध है, व्यर्थ हो गई। अगर मुझे शर्तों के अनुसार प्रेस का सूद और नफ़ा देते जाते तो मै न 'हंस' निकालता, न 'जागरण', न प्रकाशन करता। यह सब-कुछ इसलिए किया गया कि आप प्रेस को नहीं चला सके और मैंने आपका भार हलका करने के लिए सब-कुछ किया। 'हंस' में मैंने पाँच साल काम किया। आपको मैंने 10 रु. मासिक दिया। मुझे अपनी कहानियों और रचनाओ के लिए कम-से-कम 30 रु. महीना तो मिलना ही चाहिए था! पाँच वर्ष में वह भी 2000 रु. के ऊपर हो जाता है। जब 'हंस' से आपने कोई हानि नहीं उठाई तो फिर आपको दु.ख किस बात का? जब मैंने देख लिया कि 'हंस' के कारण मुझे दिन-दिन घाटा हो रहा है तो बया उसे चलाया ही जाता? कब तक चलाया जाता? कैसे चलाए जाता? घर बेचकर? या बाज़ार वालों की डिग्री लेकर और जेल में सड़कर? 'हंस' मैंने दूसरो को दे दिया। मुफ़्त। मुझे कोई लाभ नहीं हुआ। 'जागरण' भी हम दोनो ने निकाला, उसकी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही नहीं। अगर आप कह देते, मत निकालिए तो मैं कभी न निकालता। आपने उसके लिए मुझसे ज़्यादा मेहनत नहीं की। आपको मेरे लाभ-ही-लाभ नज़र आते है, मैं इसे क्या कहूँ? अगर प्रेस 5 हज़ार रु. का हो और ब्याज आठ आने ही हो हालँकि आप कोई महाजन खड़ा कर दे तो उससे आठ आने दर पर कुछ रुपए उधार लेकर प्रकाशन करने को तैयार हूँ, और यह आपका भ्रम है—अच्छी-से-अच्छी ज़मानत पर आपको या किसी राजा को मी 6 रु. से कम पर रुपए नहीं मिल सकते, लेकिन ख़ैर आठ आने ही सही, तब भी 8 साल में 2400 हो जाते है। आपने जो कुछ पाया वह इसमें मिलाइए। आपने यह एक-एक हज़ार मिलाकर 5 हज़ार पाए। यों 7400 हो जाते है। है। मेरी रॉयल्टी के कम-से-कम 4 हज़ार मिलाइए तो 11400 रु. होते है। यह आप मुझे किसी तरह दे दीजिए, नहीं दस ही दे दीजिए, 6 हज़ार दीजिए, 8 हज़ार दीजिए, 7 हज़ार दीजिए नक़द, और ले जाइए, और इस रुपए पर जो साल-ब-साल मुझे मिलते तो अब तकं मुझे कितना ब्याज मिला होता, इसे भी याद रख लीजिएगा। पहले साल में अगर आप मुझे 600 रु. दे देते तो दूसरे साल इसके आठ आने सैकड़े से 50 रु. सूद हो जाते। इस तरह रॉयल्टी और सब-कुछ मिलाकर इस वक्त मेरे पास कम-से-कम 15 हज़ार होते। मैं इसे पाई-पाई हिसाब करके दिखा सकता हूँ। मै उसके बदले सारा स्टॉक 7 हज़ार में देने को तैयार हूँ। आप किसी प्रकाशक या बुकसेलर को ठीक कर सके तो कर लीजिए, आज ही। जब मेरी और पुस्तकें छप जाएगी तो स्टॉक बढ़ जाएगा। मैं तो इस वक़्त की बात करता हूँ। 15000 रु. की जमा पर मैं 7 हज़ार लेने को तैयार हूँ। यह आठ हज़ार की हानि, और आप क्या चाहते है? अगर आप ऐसा कर सके तो कीजिए, नहीं तो साझे के विचार को दिल से निकाल डालिए। ये मेरी पुस्तकें थी, जिनसे यह बिक्री हो गई और प्रेस इतने दिनों चला, नहीं तो अब तक जहन्नुम में पहुँच गया होता।
अब रही आगे की बात। प्रेस में 60 रु. माहवार वेतन देने की सामर्थ्य नहीं है। 'हंस' आज यहाँ छपता है, कल को वह बंबई चला जा सकता है। उस दशा में मैं 60 रु. वेतन आपको दूँगा तो ख़ुद मुँह ताकता रहूँगा, और दूसरे रिश्तेदार भी मुँह ताकते रहेंगे। मैं ख़ुद इसे इस तरह चलाऊँगा कि एक फ़ॉर्म रोज़ छापने का इंतिज़ाम करूँगा और अपनी पुस्तकों से जैसे होगा, चलाऊँगा। हाँ, आप कमीशन पर काम करना चाहे तो करे। उस दशा में आप जितने फ़ॉर्म छापे, उस पर मुझसे 1 रु० लेते जाइए। उसमें 'हंस' भी शामिल है। जब तक वह यहाँ है, मेरी पुस्तकें भी शामिल है, किराया का काम भी शामिल है। अगर आप महीने में 60 फ़ॉर्म छाप ले 60 लीजिए, 50 छापे 50 लीजिए, 70 छापें 70 लीजिए। मगर यह ज़रूरी है कि बाहर का काम कम-से-कम 30 फ़ॉर्म होता रहे। अगर आप घर का काम ही 60 फ़ॉर्म का चाहेंगे, तो मैं कहाँ से लाऊँगा? या कुछ प्रतिशत रख लीजिए। जैसा आप सोचे जिसमें आपकी गुज़र हो और मेरा नुक़सान न हो। अगर आपका इस तरह सुभीता न हो तो आप स्वाधीन है, जहाँ जो चाहे कर सकते है। तब मैं ये रुपए बट्टेखाते में डलवा दूँगा और समझ लूँगा कि जैसे 7, 8 हज़ार गया वैसे यह भी गया। मैंने 8 साल केवल इसलिए दूसरों की ग़ुलामी की कि मेरे पास अपनी पुस्तकों से कुछ जमा हो जाए और बुढ़ापे के लिए कुछ निकल आवे। मगर वह ग़ुलामी करने पर भी मैं आज ख़ाली हाथ हूँ। यही पुस्तकें दूसरो को दे देता तो इस वक़्त ज़्यादा नहीं तो 5 हज़ार मेरे बैंक में होते और मैं आराम की साँस लेता। अब मेरे पास शायद 4, 5 हज़ार का स्टॉक हो जिसे मैं 5, 6 साल में दीमक से बचने पर वसूल कर सकूँ। मैं तो समझता हूँ वह सब डूब गया। बिकने वाली किताबों में 'प्रतिज्ञा' है और 'कायाकल्प' है, 'प्रेम-तीर्थ' भी है। बस! 'कर्मभूमि' और 'गबन' ग़ायब हो गए है। ख़ैर, इतने दिनों के अनुभव से अब मालूम हुआ कि प्रेस में 60 रु. वेतन देने की सामर्थ्य नहीं है और साझा, जो अब तक बरायनाम चलता था चल नहीं सकता, क्योंकि मैं बहुत जल्द एक कंपनी बनाकर प्रेस और प्रकाशन उसके मत्थे पटक कर आज़ाद हो जाना चाहता हूँ। इसके लिए प्रयत्न भी कर रहा हूँ। कमीशन वाली व्यवस्था आप सोचकर मुझे बताइए, उसके लिए मैं तैयार हूँ, जब तक प्रेस मेरे पास है। बाद की कुछ नहीं कह सकता। अगर आप कही और अच्छी जगह पा सके तो मुझसे ज़्यादा ख़ुशी और किसी को न होगी।
भवदीय, धनपतराय
(25)
2-1-36
बंधुवर,
मुझसे अब और आप क्या चाहते है? स्टॉक तो मैं कह चुका, कोई 5 हज़ार पर भी ले ले आप आज ही इसी दम दे दे और मुझे वह रुपए दे दे। इससे ज़्यादा आप मुझसे कितना त्याग करने को कहते है? मेरे हिसाब से जो रक़म 15 हज़ार होनी चाहिए थी, वह केवल 5 हज़ार पर टूट रही है। मुझे 5 सहस देकर शेष आप ले जाइए। अब तो आप ख़ुश है? मैं सूद, ब्याज, नफ़ा, रॉयल्टी सबको जहन्नुम भेजता हूँ।
रही गुज़र-बसर की बात। अगर मेरे कारोबार में उन्नति हुई, मुझे प्रेस से कुछ मिला तो मैं अकेला खाने वाला व्यक्ति नहीं हूँ। इस वक़्त प्रेस का ख़र्च मेरे सामने है—265+27= 282 तो मज़दूरी है, किराया 21 रु., बिजली 15 रु., आपका 40 रु., ब्याज 30 रु., घिसाई 40 रु., फुटकर ख़र्च 30 रु.। यह तो 415 रु. ख़र्च हुए। इसमें मेरा केवल 30 रु. ब्याज है, अर्थात् 420 रु. माहवार आमदनी हो तो काम चले। मैं गया जहन्नुम में। 'हंस' से केवल 150 रु. ही तो मिलते है। 170 रु. तो केवल ख़र्च पूरा करने को चाहिए। अब पिछला देना है। जब तक 200 रु. प्रति मास नक़द न मिले गाड़ी रुक जाएगी। मुझे कही और से कुछ नहीं मिलता। पुस्तकों से जो कुछ मिलेगा, वही मेरी जीविका। जो कुछ फ़र्मे मेरे छपेंगे, वही मेरा नफ़ा है। अगर मैं और आप मिलकर प्रेस को 200 रु. का काम न दे सकेंगे तो आप ही सोचिए, प्रेस कैसे चलेगा और यह प्रश्न क्यो न उठेगा कि उसे बंद क्यो न किया जाए? जैसे अब तक वह चला है, यानी मुझे 10 हज़ार का घाटा देकर, उस तरह तो भविष्य में न चल सकेगा। इससे तो बंद करना कही अच्छा होगा।
आपने जो अपने गुज़र की बात कही है, आपकी कठिनाई में समझता हूँ, लेकिन मेरे लिए तो भी वही परिस्थिति है। मैं तो कुछ भी नहीं ले रहा हूँ। बुकडिपो से जो सौ-पचास मिलेंगे, वही मेरे गुज़र का माधन है। वहाँ भी तो बिकने वाली पुस्तकें नहीं रही। फिर से छपाने में घन ही तो लगेगा। जब तक प्रेस में 500 रु. का कम-से-कम काम न होगा, कहाँ से आप रहेंगे, कहाँ में मज़ूर रहेंगे, और कहाँ से मैं रहूँगा? प्रेस से ज़्यादा आमदनी कीजिए, ख़र्च में बच जाए, मैं नफ़ा लेने लगूँगा तो आपको भी दे दूँगा। पुस्तकें अनुवाद कीजिए, संग्रह कीजिए, मगर वह भी तो तभी छपेगी जब प्रेस के पाग धन होगा। नफ़ा तो पीछे होगा, इस वक़्त तो धन लगाने को चाहिए। इसी महीने में जब तक 200 रु. न मिले, काम न चलेगा। टाइप कहाँ से आएगा? काग़ज़ का कैसे जाएगा? परिश्रम से अपनी आमदनी बढ़ाइए। सभी ऐसा करते है। मैं भी तो रात-दिन पेट की चिंता में ही रहता हूँ। आपने जिस परिस्थिति में प्रेस को ला दिया है, वह बड़ी भयावह है। पास एक पैसा नहीं, काम राम-आसरे! ख़र्च 450 रु, क़र्ज़ हज़ार-बारह से ऊपर। स्टॉक वह जो मेरे 15 हज़ार के एवज मिला है, जिसे मैं 5 हज़ार पर देने को तैयार हूँ। अगर आप यह चाहे कि मैं पुस्तकें लिखे जाऊँ और प्रेस किसी तरह रो-धोकर चलता रहे और मैं मुँह ताकता रहूँ, तो अब तो मेरे लिए, और कही नौकरी भी नहीं है। मुझे ख़ेद यही होता है कि आप मेरी हानि का अंदाज़ न करके स्टॉक-स्टॉक कहे जाते है। आप उस स्टॉक कोन जाने क्या समझे हुए है। मै उसे रद्दी का ढेर समझता हूँ, जब तक वह रुपए के रूप में न आ जाए।
भवदीय, धनपतराय
(26)
दि हंस लिमिटेड
बनारस
10-1-1836
बंधुवर,
पचासों चिट्ठियों के बाद भी आर वहीं है, जहाँ से चले थे। यह लिखा-पढ़ी व्यर्थ हुई।
मैंने स्पष्ट लिख दिया, आपको 40 रु मिलेंगे, 30 रु मुजरा होगे। साझा कोई नहीं रहेगा। आपको काम की फ़िक़्र रखनी होगी, जिससे मुझे जेब से न देने पड़े।
हिसाब क्या बाकी है मैं नहीं समझा। अगर आप स्टॉक देखना चाहते हैं तो मुझे लिख भेजिए कि किस पुस्तक की कितनी प्रतियाँ बाकी है और उस पर मुझे क्या मिलना है। मेरा देना चुकाकर उस स्टॉक में आधा ले लीजिए।
इसके उपरांत मैं और क्या कर सकता हूँ? 8 साल का अनुभव है कि प्रेस में 60 रु या 50 की गुंजाइश बनी नहीं है। 40 रु की भी इसलिए है कि आपने इतने दिन काम किया है।
भवदीय,
धनपतराय
(27)
11-1-1934
दि हंस लिमिटेडएडिटर्स :प्रेमचंद एंड कन्हैयालाल मुंशी
प्रियवर,
मेरे जान में तो आपने मेरे साथ काफ़ी बुराई की है, नहीं आज यह नौबत ही क्यों होती! रुपए रहते हड़ताल कराना, अदालत से डिग्रियाँ कराना बुराई नहीं है तो भलाई भी नहीं है।
आप अपना ख़र्च 60 रु. माहवार लिखते है। आपको 60 रु. मिलते थे, वह भी वेतन-स्वरूप नहीं, केवल भावी नफ़े की आशा पर। जो आदमी अपनी आमदनी से ज़्यादा ख़र्च करना रहे वह इस योग्य नहीं कि उससे सहयोग किया जाए।
मैं हिसाब करने से क्यों भागू? आप लिखते हे आप टाल रहे है। मैंने तो पहले भी लिखा, पिछले पत्र में भी लिखा और अब फिर लिखता हूँ कि आप जैसे हिसाब चाहे कर लीजिए। काग़ज़ पत्र सब नीचे रखे है। हिसाब कीजिए कि प्रेस की क्या घिसाई हुई और उसमें आपने कितना लगाया। कितना सूद हुआ और उसमें आपने कितना दिया। कितनी किताबें बिकी और उन पर मेरी रॉयल्टी के सिवा क्या नफ़ा हुआ। फिर मेरी रॉयल्टी लगाइए, और जो कुछ आपने पाया है और जो कुछ मैंने पाया है, उसे निकालकर बताइए कि मुझे कितना मिलना चाहिए और आपको कितना मिलना चाहिए। फिर स्टॉक रखा है, उसमें से जितना आपका निकलता हो आप ले लीजिए। जितना मेरा निकलता हो मुझे दे दीजिए। यह भी लिखिए कि प्रेस को कितना किससे पाना है और कितना किसको देना।
आप या तो प्रेस के कर्मचारी है या साझेदार नफ़े के। कर्मचारी है तो एक महीने का नोटिस कायदे के अनुसार लीजिए और मुझसे वेतन लीजिए 60 रु.। साझेदार है तो आपको मुझसे कुछ लेने का हक़ नहीं है। केवल हिसाब करने का हक है और उस हिसाब से जो कुछ निकले उसे ले लेने का हक़ है। उससे आपको भी संतोष हो जाएगा, मुझे भी।
आप कहते है मैंने नफ़ा समझकर ज़्यादा ख़र्च किया। अच्छी दिल्लगी है! मकान का किराया तो आप दे नहीं सकते और आपको नफ़ा हो रहा था! ठीक भी है। आपका नफ़ा हो रहा होगा, मुझे तो घाटा ही हो रहा था। ऐसा साझा, जिसमें एक को घाटा हो दूसरे को नफ़ा, असंगत है।
मैं आज प्रयाग जाता हूँ। 14 को लौटूँगा। तब तक आप हिसाब-किताब कर रखिए। मै इस रोज़-रोज़ की लिखा-पढ़ी से तंग आ गया हूँ। बँटवारे के सिवा कोई उपाय नहीं है।
अगर आप इस पर राज़ी न हो तो पंचायत कर लीजिए। जिसे चाहे पंच बना लीजिए। उसके सामने अपना हिसाब रख दीजिए। जो वह दिला दे वह लेकर आप भी ख़ुश हो जाइए, मैं भी।
भवदीय, धनपतराय
(28)
25-2-1934
प्रियवर,
जहाँ आप चाहें और जब चाहें। मुझे किसी पंच की ज़रूरत नहीं। मेरे पंच वही होंगे जो आपके होंगे।
धनपतराय
- पुस्तक : प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य खंड-2 (पृष्ठ 58)
- संपादक : कमलकिशोर गोयनका
- रचनाकार : प्रेमचंद
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