इम तवियउ बहु गिंभु कठ्ठि मइ बोलियउ,
पहिय! पत्तु पुण पाउसु धिट्ठु ण पत्तु पिउ।
चउदिसि घोरंधारु पवन्नउ गरुयभर,
गयणिगुहिरु घुरहुरइ सरोसउ अंबुहरु॥
पउदंडउ पेसिजइ झाल झलकंतियइ,
भयभेसिय अइरावइ गयणि खिवंतियइ।
रसहि सरस बब्बीहिय णिरु तिप्पंति जंलि,
बयह रेह णहि रेहइ घवघण जंतितलि॥
गिंभ तविण खर ताविय बहु किरणुक्करिहिँ,
पउ पडंतु पुक्खरहु ण मावइ पुक्खरिहिँ।
पयहत्थिण किय पहिय पहिहि पवंहतियहि,
पइ पइ पेसइ करलउ गयणि खिवंतयहि॥
णिवड लहरि घण अंतरि संगिहिँ दुत्तरिहिँ,
करि कलयलु कल्लोलिहि गज्जिउ वरसरिहिँ।
दिसि पावासुय थक्किय णियकज्जागमिहिँ,
गमियइ णाविहिँ मग्गु पहिय ण तुरंगमिहिँ॥
कद्दमलुल धवलंग विहाविह सज्झरिहि,
तडिनएवि पय भरिणं अलक्ख सलज्जरिहि।
हुउ तारायणु अलखु वियंभिउ तम पसरु,
छन्नउ इन्दोएहि निरंतर घर सिहर॥
बगु मिल्हवि सलिलद्दहु तरुसिहरिहि चडिउ,
तंडवु करिवि सिंहडिहि वर सिहरिहि रडिउ।
सलिल निवहि सालूरिहि फरसिउ रसिउ सरि,
कलयलु किउ कलयंठिहि चडि चूयह सिहरि॥
णाय णिवड पहरुद्ध फणिदिहिँ दह दिसिहिँ,
हुइय असंचर मग्ग महंत महाविसिहिँ।
पाडलदलपरिखंडणु नीरतरंग भरि,
ओरुन्नउ गिरि सिहरिहि हंसिहि करुण सरि॥
मच्छरभय संचडिउ रन्नि गोयंगणिहि,
मणहर रमियइ नाहु रंगि गोयंगणिहि।
हरियाउल धरवलउ कयंबिण मंहमहिउ,
कियउ भंगु अंगंगि अणंगिण मह अहिउ॥
बिसमसिज्ज विलुलंतिय अइदुक्खिन्नियइ,
अलिउलमाल विणग्गय सरपडिभिन्नियइ।
अणिमिसनयणुव्विन्निय णिसि जागंतियइ,
वत्थु गाह किउ दोहउ णिँद अलहंतियइ॥
झंपवि तम बद्दलिण दसह दिसि छायउ अंबरु,
उन्नवियउ घुरहुरइ घोरु घणु किसणाडंबरु।
णहह मग्गि णहवल्लि तरल तडयडिवि तडक्कइ,
दद्दुर रडणु रउद्दु कुवि सहवि ण सक्कइ॥
निवड निरंतर नीरहर दुद्धर धरधारोहभरु,
किम सहउ पहिय सिहरट्ठियइ दुसहउ कोइल रसइ सरु।
उल्हवियं गिम्हहवी धाराणिवहेण पाउसे पत्ते,
अच्चरियं मह हियए विरहग्गी तवइ अहिअयरं॥
गुणणिहि जल बिदुब्भविय ण गलत्थिय लज्जंति।
पहिया जं थोरंसुइहि थण थड्ढा डज्झंति॥
दोहउ एहु पढेवि विरहखेआलसिहि,
ओ आगइ अइखिन्नी मोहपरावसिहि।
सुविणंतरि चिरु पवसिउ जं जोइअउ पिउ,
संजाणिवि कर गहिवि ताम भइ भणिउ इहु॥
किं जुत्तं सुकुलग्गयाण मुत्तूण जंचि इह समए।
तडतडण तिव्व-घण घडणसंकुले दइय वंचंति॥
णवमेहमालमालिय णहम्मि सुरचाव रत्तदिसि पसरो।
घणछन्न जम्म इंदोइएहि पिय पावस दुसहं॥
रायरुद्ध कंठग्गि विउद्धी जं सिवणि,
कह हउँ कह पिउ पत्थरंगि जु न मुइय खणि।
जइ णहु णिग्गउ जीउ पावबंधिहि जडिउ,
हियउ न किण करि फुट्ट णाइ वज्जिह घडिउ॥
ईसरसरि सालूरि कुणंती करण सरि,
इहु दोहउ मइ पढ़िय निसह पच्छिमपहरि॥
जामिणि जं वयणिज्ज तुअ तं तिहुयणि णहु माइ।
दुक्खिहि होइ चउग्गणी झिज्झइ सुहसंगाइ॥
इस प्रकार ग्रीष्म बहुत तपा जिसे मैंने कष्टपूर्वक बिताया। हे पथिक! फिर पावस आ पहुँचा किंतु धृष्ट प्रिय नहीं आया। चारों दिशाओं में घोर अंधकार छा गया। मेघ गगन में रोषपूर्वक घुमड़ने लगे। गगन में डरावनी, भीषण विद्युत के चमकने से पगडंडी दिखाई पड़ती है। जल से नितांत प्यासे पपीहे सरस शब्द करते हैं। नव मेघों के नीचे जाती हुई बकुल-पंक्ति शोभा देती है। ग्रीष्मताप से तप्त किरणों के संपर्क के कारण बादलों से झरता हुआ पानी पोखरियों में समा नहीं रहा है। ये पोखरियाँ रास्तों पर बढ़ते हुए पथिकों को जूते हाथ में लेने को मजबूर कर रही हैं। पग-पग पर आसमान को जलाने वाली बिजली रास्ता दिखा रही है। घनी लहरों के सघन संयोग से दुस्तर बनी हुई नदियाँ कल-कल शब्द करती हुई गरजती हैं। प्रवासी दिशाओं में रुक गए। अपने कार्यवश लोग नाव से जाते हैं, घोड़ो से नहीं।
पृथ्वी कीचड़ से लिपटी हुई धवलांगिनी बनी है जो चंदन लिप्त धवलांगिनी नायिका के समान है। विविध भाँति से सज्झरी बनी हुई है। विद्युत की हल्की झाँकी से पानी भरे हुए मेघ के द्वारा न देखने वाली लज्जावती वधू के समान बन गई है, जिससे तारे दिखाई नहीं देते। चारों और अंधकार फैल गया है। इंद्र गोंपियों आच्छादित है और इस प्रकार वह समांगमोत्कंठा से सिहर रही है। बगुले जलाशयों को छोड़कर वृक्षों पर चढ़ गए। तांडव करते हुए मोर शिखरों पर बोलने लगे। मेंढ़क जलाशयों में कर्कश स्वर करने लगे। आम के शिखर पर चढ़कर कोकिलों ने कुहू-कुहू शब्द किया।
नागों से दसों दिशाओं के पथ रुद्ध हो गए। अत्यधिक जल के कारण मार्गों पर आवागमन बंद हो गया। जल भार से बादल फट गए। पर्वत की चोटियों पर हंसों ने करण स्वर से रोदन किया। मच्छरों के भय से गौओं का समूह ऊँचे स्थल पर चढ़ गया। युवतियाँ अपने पतियों के साथ मनोहर कीड़ाएँ करती हैं। धरती हरे-भरे कदंबों से सुगंधित हो गई। कामदेव ने मेरे अंग-अंग को और अधिक भंग कर दिया। विषम शय्या पर लोटती हुई, अति दुःखिनी, भौरों के समूह द्वारा किए जाने वाले स्वरबाणों से विद्ध, निद्रालाभ न कर पाने के कारण रात भर पलक न गिराकर जागती हुई मुझ उद्विग्ना ने वस्तु, गाथा और दोहा रचा। दसों दिशाओं में बादलों ने आकाश को अंधकार से आच्छन्न कर लिया। घोर गर्जन करने हुए घने काले मेघ उमड़ आए। आकाश मार्ग में 'तड़तड़' करके चंचल बिजली कड़क रही है। दादुरों का रौद्र शब्द कोई सह नहीं पाता है। बादलों की पंक्तियाँ रूई के छोटे-छोटे फाहों के समूह की भाँति लगता है। पथिक! ऐसे समय में, मैं शिखरस्थित कोयल की दुःसह कूक कैसे सहूँ! ग्रीष्म की अग्निवर्षा के आने पर वर्षा धारा बुझा दी गई किंतु आश्चर्य की बात है कि मेरे हृदय की विरहाग्नि और अधिक तपती है। यह दोहा पढ़कर विरह के कष्टों के कारण आलसी और मोह से परवश अति खिन्ना मैंने पिय को स्वप्न में देखा। स्वप्न को सत्य जानकर मैंने उस समय उनका हाथ पकड़कर यह कहा-प्रिय क्या उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्तियों के लिए 'तड़तड़’ शब्द करते हुए बादलों की घटा छाने के इस समय में अपनी स्त्री को छोड़कर जाना उचित है?
नव मेघ-मालों से सजे आकाश में इंद्रधनुष और पृथ्वीतल को सघन आच्छादित किए हुए इंद्रगोपों से दिशाओं का प्रसार आरक्त हो गया है। प्रिय! ऐसा पावस दुःसह है। अनुराग से रुँधे हुए कंठवाली मैं जब स्वप्न से जगी तो कहाँ मैं और कहाँ प्रिय! मैं पत्थर की बनी थी जो उसी क्षण मर नहीं गई। यदि पापबंध से भरा जीव नहीं निकला तो हृदय ही क्यों नहीं फूट गया। मानों यह भी वज्र का बना हुआ है। कामोद्दीपक स्वर में तालाब में मेढ़की स्वर कर रही थी, उस समय मैंने यह दोहा पढ़ा। हे यामिनी! तुम्हारी जो वचनीयता है वह तीनों, भुवनों में नहीं समा सकती। तुम दुख में चौगुनी बढ़ती हो और सुख संग के समय में क्षीण होती हो।
- पुस्तक : संदेश रासक (पृष्ठ 175)
- रचनाकार : अब्दुल रहमान
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1991
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