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सुंदरकाण्ड

sunderkaand

तुलसीदास

तुलसीदास

सुंदरकाण्ड

तुलसीदास

और अधिकतुलसीदास

     

     

                                                                 

    भगवान् श्री जानकी नाथ जी की आरती

    ॐ जय जानकिनाथा, हो प्रभु जय श्री रघुनाथा।

    दोऊ कर जोड़े विनवौं, प्रभु मेरी सुनो बाता॥ॐ॥

     

    तुम रघुनाथ हमारे, प्राण पिता माता।

    तुम हो सजन सँगाती, भक्ति मुक्ति दाता॥ॐ॥

     

    चौरासी प्रभु फंद छुड़ावो, मेटो यम त्रासा।

    निश दिन प्रभु मोहि राखो, अपने संग साथा॥ॐ॥

     

    सीताराम लक्ष्मण भरत शत्रुहन, संग चारौं भैया।

    जगमग ज्योति विराजत, शोभा अति लहिया॥ॐ॥

     

    हनुमत नाद बजावत, नेवर ठुमकाता।

    कंचन थाल आरती, करत कौशल्या माता॥ॐ॥

     

    किरिट मुकुट कर धनुष विराजत, शोभा अति भारी।

    मनीराम दरशन कर, तुलसिदास दरशन कर, पल-पल बलिहारी॥ॐ॥

     

    जय जानकिनाथा, हो प्रभु जय श्री रघुनाथा।

    हो प्रभु जय सीता माता, हो प्रभु जय लक्ष्मण भ्राता॥ॐ॥

     

    हो प्रभु जय चारौं भ्राता, हो प्रभु जय हनुमत दासा।

    दोऊ कर जोड़े विनवौं, प्रभु मेरी सुनो बाता॥ॐ॥


    ॥श्रीहरिः॥

    पारायण–विधि

    विधिपूर्वक पाठ करने वाले महानुभावों को पाठारंभ के पूर्व श्री तुलसीदास जी, श्री वाल्मीकि जी, श्री शिवजी तथा श्री हनुमान् जी का आवाहन-पूजन करने के पश्चात् तीनों भाइयों सहित श्री सीताराम जी का आवाहन, षोडशोपचार पूजन और ध्यान करना चाहिए। तदनंतर पाठ का आरंभ करना चाहिए। सबके आवाहन, पूजन और ध्यान के मंत्र क्रमशः नीचे लिखे जाते हैं—

    अथ आवाहनमन्त्रः

    तुलसीक नमस्तुभ्यमिहागच्छ शुचिव्रत।

    नैर्ऋत्य उपविश्येदं पूजनं प्रतिगृह्यताम्॥1॥

    ॐ तुलसीदासाय नमः।

     

    श्रीवाल्मीक नमस्तुभ्यमिहागच्छ शुभप्रद।

    उत्तरपूर्वयोर्मध्ये तिष्ठ गृह्णीष्व मेऽर्चनम्॥2॥

    ॐ वाल्मीकाय नमः।


    गौरीपते नमस्तुभ्यमिहागच्छ महेश्वर।

    पूर्वदक्षिणयोर्मध्ये तिष्ठ पूजां गृहाण मे॥3॥

    ॐ गौरीपतये नमः।

     

    श्रीलक्ष्मण नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रियः।

    याम्यभागे समातिष्ठ पूजनं संगृहाण मे॥4॥

    ॐ श्रीसपत्नीकाय लक्ष्मणाय नमः।

     

    श्रीशत्रुघ्न नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रियः।

    पीठस्य पश्चिमे भागे पूजनं स्वीकुरुष्व मे॥5॥

    ॐ श्रीसपत्नीकाय शत्रुघ्नाय नमः।

     

    श्रीभरत नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रियः।

    पीठकस्योत्तरे भागे तिष्ठ पूजां गृहाण मे॥6॥

    ॐ श्रीसपत्नीकाय भरताय नमः।

     

    श्रीहनुमन्नमस्तुभ्यमिहागच्छ कृपानिधे।

    पूर्वभागे समातिष्ठ पूजनं स्वीकुरु प्रभो॥7॥

    ॐ हनुमते नमः।

     

    अथ प्रधानपूजा च कर्तव्या विधिपूर्वकम्।

    पुष्पाञ्जलिं गृहीत्वा तु ध्यानं कुर्यात्परस्य च॥8॥

    रक्ताम्भोजदलाभिरामनयनं पीताम्बरालङ्कृतं

    श्यामाङ्गं द्विभुजं प्रसन्नवदनं श्रीसीतया शोभितम्।

    कारुण्यामृतसागरं प्रियगणैर्भ्रात्रादिभिर्भावितं

    वन्दे विष्णुशिवादिसेव्यमनिशं भक्तेष्टसिद्धिप्रदम्॥9॥

    आगच्छ जानकीनाथ जानक्या सह राघव।

    गृहाण मम पूजां च वायुपुत्रादिभिर्युतः॥10॥

    इत्यावाहनम्

     

    सुवर्णरचितं राम दिव्यास्तरणशोभितम्।

    आसनं हि मया दत्तं गृहाण मणिचित्रितम्॥11॥

    इति षोडशोपचारैः पूजयेत्

     

    ऊँ अस्य श्रीमन्मानसरामायण श्रीरामचरितस्य

    श्रीशिवकाकभुशुण्डियाज्ञवल्क्यगोस्वामितुलसीदासा

    ऋषयः श्रीसीतारामो देवता श्रीरामनाम बीजं भवरोगहरी

    भक्तिः शक्तिः मम नियन्त्रिताशेषविघ्नतया श्रीसीताराम-

    प्रीतिपूर्वकसकलमनोरथसिद्ध्यर्थं पाठे विनियोगः।

     

    अथ आचमनम्

    श्रीसीतारामाभ्यां नमः। श्रीरामचंद्राय नमः। श्रीरामभद्राय नमः।

    इति मन्त्रत्रितयेन आचमनं कुर्यात्।

    श्रीयुगलबीजमंत्रेण प्राणायामं कुर्यात्॥


    अथ करन्यासः

    जग मंगल गुनग्राम राम के।

    दानि मुकुति धन धरम धाम के॥

    अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।

     

    राम राम कहि जे जमुहाहीं।

    तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥

    तर्जनीभ्यां नमः।

     

    राम सकल नामन्ह ते अधिका।

    होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥

    मध्यमाभ्यां नमः।

     

    उमा दारु जोषित की नाईं।

    सबहि नचावत रामु गोसाईं॥

    अनामिकाभ्यां नमः।

     

    सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।

    जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

    कनिष्ठिकाभ्यां नमः।

     

    मामभिरक्षय रघुकुल नायक।

    धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥

    करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

     

    इति करन्यासः

     

    अथ हृदयादिन्यासः

    जग मंगल गुनग्राम राम के।

    दानि मुकुति धन धरम धाम के॥

    हृदयाय नमः।

     

    राम राम कहि जे जमुहाहीं।

    तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥

    शिरसे स्वाहा।

     

    राम सकल नामन्ह ते अधिका।

    होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥

    शिखायै वषट्।

     

    उमा दारु जोषित की नाईं।

    सबहि नचावत रामु गोसाईं॥

    कवचाय हुम्।

     

    सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।

    जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

    नेत्राभ्यां वौषट्।

     

    मामभिरक्षय रघुकुल नायक।

    धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥

    अस्त्राय फट्।

     

    इति हृदयादिन्यासः

     

    अथ ध्यानम्

    मामवलोकय पंकज लोचन।

    कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन॥

    नील तामरस स्याम काम अरि।

    हृदय कंज मकरंद मधुप हरि॥

    जातुधान बरूथ बल भंजन।

    मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन॥

    भूसुर ससि नव बृंद बलाहक।

    असरन सरन दीन जन गाहक॥

    भुज बल बिपुल भार महि खंडित।

    खर दूषन बिराध बध पंडित॥

    रावनारि सुखरूप भूपबर।

    जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर॥

    सुजस पुरान बिदित निगमागम।

    गावत सुर मुनि संत समागम॥

    कारुनीक ब्यलीक मद खंडन।

    सब बिधि कुसल कोसला मंडन॥

    कलि मल मथन नाम ममताहन।

    तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन॥

     

    इति ध्यानम्


    ॥ॐ श्रीपरमात्मने नमः॥

    प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।

    जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥

     

    किष्किन्धाकाण्ड

    (दोहा 29)


    बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ।

    उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥

    अंगद कहइ जाउँ मैं मैं पारा।

    जियँ संसय कछु फिरती बारा॥

    जामवंत कह तुम्ह सब लायक।

    पठइअ किमि सब ही कर नायक॥1॥

    कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।

    का चुप साधि रहेहु बलवाना॥

    पवन तनय बल पवन समाना।

    बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥2॥

    कवन सो काज कठिन जग माहीं।

    जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥

    राम काज लगि तव अवतारा।

    सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥3॥

    कनक बरन तन तेज बिराजा।

    मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥

    सिंहनाद करि बारहिं बारा।

    लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥4॥

    सहित सहाय रावनहि मारी।

    आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥

    जामवंत मैं पूँछउँ तोही।

    उचित सिखावनु दीजहु मोही॥5॥

    एतना करहु तात तुम्ह जाई।

    सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥

    तब निज भुज बल राजिवनैना।

    कौतुक लागि संग कपि सेना॥6॥

     

    (छंद)

    कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं।

    त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं॥

    जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई।

    रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥


    (दोहा 30 [क])

    भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।

    तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥


    (सोरठा 30 [ख])

    नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।

    सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥

     


    ॥श्रीगणेशाय नमः॥

    श्रीजानकीवल्लभो विजयते

    श्रीरामचरितमानसपञ्चम सोपान

    सुंदरकांड

     

    श्लोक

    शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं

    ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम्।

    रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं

    वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्॥1॥

     

    नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

    सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।

    भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे

    कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥

     

    अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

    दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।

    सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

    रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥

     

    जामवंत के बचन सुहाए।

    सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥

    तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।

    सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥

     

    जब लगि आवौं सीतहि देखी।

    होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥

    यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।

    चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥

     

    सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।

    कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥

    बार बार रघुबीर सँभारीतरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥

     

    जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।

    चलेउ सो सो गा पाताल तुरंता॥

    जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।

    एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥

     

    जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।

    तैं मैनाक होहि श्रमहारी॥5॥


    (दोहा 1)

    हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।

    राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥

     

    जात पवनसुत देवन्ह देखा।

    जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥

    सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।

    पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥

     

    आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।

    सुनत बचन कह पवनकुमारा॥

    राम काजु करि फिरि मैं आवौं।

    सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥2॥

     

    तब तव बदन पैठिहउँ आई।

    सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥

    कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।

    ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥3॥

     

    जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।

    कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥

    सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।

    तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥4॥

     

    जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।

    तासु दून कपि रूप देखावा॥

    सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।

    अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥5॥

     

    बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।

    मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥

    मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।

    बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥6॥


    (दोहा 2)

    राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।

    आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान्॥

     

    निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।

    करि माया नभु के खग गहई॥

    जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।

    जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥

     

    गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।

    एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥

    सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।

    तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥

     

    ताहि मारि मारुतसुत बीरा।

    बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥

    तहाँ जाइ देखी बन सोभा।

    गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥3॥

     

    नाना तरु फल फूल सुहाए।

    खग मृग बृंद देखि मन भाए॥

    सैल बिसाल देखि एक आगें।

    ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥4॥

     

    उमा न कछु कपि कै अधिकाई।

    प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥

    गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी।

    कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥

     

    अति उतंग जलनिधि चहु पासा।

    कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥

     

    (छंद 1)

    कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।

    चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥

    गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।

    बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥

     

    (छंद 2)

    बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।

    नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥

    कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।

    नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥

     

    (छंद 3)

    करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।

    कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥

    एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।

    रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥

     

    (दोहा 3)

    पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।

    अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार॥

     

    मसक समान रूप कपि धरी।

    लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

    नाम लंकिनी एक निसिचरी।

    सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥

     

    जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।

    मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥

    मुठिका एक महा कपि हनी।

    रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥

     

    पुनि संभारि उठी सो लंका।

    जोरि पानि कर बिनय ससंका॥

    जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।

    चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा॥3॥

     

    बिकल होसि तैं कपि के मारे।

    तब जानेसु निसिचर संघारे॥

    तात मोर अति अति पुन्य बहूता।

    देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥

     

    (दोहा 4)

    तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।

    तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥

     

    प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।

    हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

    गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।

    गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥

     

    गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।

    राम कृपा करि चितवा जाही॥

    अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।

    पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥

     

    मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।

    देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥

    गयउ दसानन मंदिर माहीं।

    अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥

     

    सयन किएँ देखा कपि तेही।

    मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥

    भवन एक पुनि दीख सुहावा।

    हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥

     

    (दोहा 5)

    रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।

    नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ॥

     

    लंका निसिचर निकर निवासा।

    इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥

    मन महुँ तरक करैं कपि लागा।

    तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

     

    राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।

    हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

    एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी।

    साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥

     

    बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।

    सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥

    करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।

    बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥

     

    की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।

    मोरें हृदय प्रीति अति होई॥

    की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।

    आयहु मोहि करन बड़भागी॥4॥

     

    (दोहा 6)

    तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।

    सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥

     

    सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।

    जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥

    तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।

    करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥

     

    तामस तनु कछु साधन नाहीं।

    प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥

    अब मोहि भा भरोस हनुमंता।

    बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥2॥

     

    जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।

    तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥

    सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।

    करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥3॥

     

    कहहु कवन मैं परम कुलीना।

    कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥

    प्रात लेइ जो नाम हमारा।

    तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥4॥

     

    (दोहा 7)

    अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।

    कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥

     

    जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।

    फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥

    एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।

    पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥

     

    पुनि सब कथा बिभीषन कही।

    जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥

    तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।

    देखी चहउँ जानकी माता॥2॥

     

    जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।

    चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥

    करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।

    बन असोक सीता रह जहवाँ॥3॥

     

    देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा।

    बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥

    कृस तनु सीस जटा एक बेनी।

    जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥4॥

     

    (दोहा 8)

    निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।

    परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥

     

    तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई।

    करइ बिचार करौं का भाई॥

    तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।

    संग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥

     

    बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।

    साम दान भय भेद देखावा॥

    कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।

    मंदोदरी आदि सब रानी॥2॥

     

    तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।

    एक बार बिलोकु मम ओरा॥

    तृन धरि ओट कहति बैदेही।

    सुमिरि अवधपति परम सनेही॥3॥

     

    सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।

    कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥

    अस मन समुझु कहति जानकी।

    खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥4॥

     

    सठ सूनें हरि आनेहि मोही।

    अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥5॥

     

    (दोहा 9)

    आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।

    परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन॥

     

    सीता तैं मम कृत अपमाना।

    कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥

    नाहिं त सपदि मानु मम बानी।

    सुमुखि होति न त जीवन हानी॥1॥

     

    स्याम सरोज दाम सम सुंदर।

    प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥

    सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।

    सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥2॥

     

    चंद्रहास हरु मम परितापं।

    रघुपति बिरह अनल संजातं॥

    सीतल निसित बहसि बर धारा।

    कह सीता हरु मम दुख भारा॥3॥

     

    सुनत बचन पुनि मारन धावा।

    मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥

    कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।

    सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥4॥

     

    मास दिवस महुँ कहा न माना।

    तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥5॥

     

    (दोहा 10)

    भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।

    सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद॥

     

    त्रिजटा नाम राच्छसी एका।

    राम चरन रति निपुन बिबेका॥

    सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।

    सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥

     

    सपनें बानर लंका जारी।

    जातुधान सेना सब मारी॥

    खर आरूढ़ नगन दससीसा।

    मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥2॥

     

    एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।

    लंका मनहुँ बिभीषन पाई॥

    नगर फिरी रघुबीर दोहाई।

    तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥3॥

     

    यह सपना मैं कहउँ पुकारी।

    होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥

    तासु बचन सुनि ते सब डरीं।

    जनकसुता के चरनन्हि परीं॥4॥

     

    (दोहा 11)

    जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।

    मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥

     

    त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।

    मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥

    तजौं देह करु बेगि उपाई।

    दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥1॥

     

    आनि काठ रचु चिता बनाई।

    मातु अनल पुनि देहि लगाई॥

    सत्य करहि मम प्रीति सयानी।

    सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥2॥

     

    सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।

    प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥

    निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।

    अस कहि सो निज भवन सिधारी॥3॥

     

    कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।

    मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥

    देखिअत प्रगट गगन अंगारा।

    अवनि न आवत एकउ तारा॥4॥

     

    पावकमय ससि स्त्रवत न आगी।

    मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥

    सुनहि बिनय मम बिटप असोका।

    सत्य नाम करु हरु मम सोका॥5॥

     

    नूतन किसलय अनल समाना।

    देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥

    देखि परम बिरहाकुल सीता।

    सो छन कपिहि कलप सम बीता॥6॥

     

    (सोरठा 12)

    कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।

    जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥

     

    तब देखी मुद्रिका मनोहर।

    राम नाम अंकित सुंदर॥

    चकित चितव मुदरी पहिचानी।

    हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥

     

    जीति को सकइ अजय रघुराई।

    माया तें असि रचि नहिं जाई॥

    सीता मन बिचार कर नाना।

    मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥2॥

     

    रामचंद्र गुन बरनैं लागा।

    सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥

    लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।

    आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥

     

    श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।

    कही सो प्रगट होति किन भाई॥

    तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।

    फिर बैठीं मन बिसमय भयऊ॥4॥

     

    राम दूत मैं मातु जानकी।

    सत्य सपथ करुनानिधान की॥

    मुद्रिका मातु मैं आनी।

    दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥5॥

     

    नर बानरहि संग कहु कैसें।

    कही कथा भइ संगति जैसें॥6॥

     

    (दोहा 13)

    कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।

    जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥

     

    हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।

    सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥

    बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।

    भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥

     

    अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।

    अनुज सहित सुख भवन खरारी॥

    कोमलचित कृपाल रघुराई।

    कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥2॥

     

    सहज बानि सेवक सुखदायक।

    कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥

    कबहुँ नयन मम सीतल ताता।

    होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥3॥

     

    बचनु न आव नयन भरे बारी।

    अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥

    देखि परम बिरहाकुल सीता।

    बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥4॥

     

    मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।

    तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥

    जनि जननी मानहु जियँ ऊना।

    तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥5॥

     

    (दोहा 14)

    रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।

    अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥

     

    कहेउ राम बियोग तव सीता।

    मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥

    नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।

    कालनिसा सम निसि ससि भानू॥1॥

     

    कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।

    बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥

    जे हित रहे करत तेइ पीरा।

    उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥2॥

     

    कहेहू तें कछु दुख घटि होई।

    काहि कहौं यह जान न कोई॥

    तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।

    जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥3॥

     

    सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।

    जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

    प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।

    मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥4॥

     

    कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।

    सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥

    उर आनहु रघुपति प्रभुताई।

    सुनि मम बचन तजहु कदराई॥5॥

     

    (दोहा 15)

    निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।

    जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥

     

    जौं रघुबीर होति सुधि पाई।

    करते नहिं बिलंबु रघुराई॥

    राम बान रबि उएँ जानकी।

    तम बरूथ कहँ जातुधान की॥1॥

     

    अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।

    प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥

    कछुक दिवस जननी धरु धीरा।

    कपिन्ह सहित सहित अइहहिं रघुबीरा॥2॥

     

    निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।

    तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥

    हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।

    जातुधान अति भट बलवाना॥3॥

     

    मोरें हृदय परम संदेहा।

    सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥

    कनक भूधराकार सरीरा।

    समर भयंकर अतिबल बीरा॥4॥

     

    सीता मन भरोस तब भयऊ।

    पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥5॥

     

    (दोहा 16)

    सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।

    प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥

     

    मन संतोष सुनत कपि बानी।

    भगति प्रताप तेज बल सानी॥

    आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।

    होहु तात बल सील निधाना॥1॥

     

    अजर अमर गुननिधि सुत होहू।

    करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥

    करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।

    निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥

     

    बार बार नाएसि पद सीसा।

    बोला बचन जोरि कर कीसा॥

    अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।

    आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥

     

    सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।

    लागि देखि सुंदर फल रूखा॥

    सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।

    परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥

     

    तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।

    जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥

     

    (दोहा 17)

    देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।

    रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥

     

    चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।

    फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥

    रहे तहाँ बहु भट रखवारे।

    कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥

     

    नाथ एक आवा कपि भारी।

    तेहिं असोक बाटिका उजारी॥

    खाएसि फल अरु बिटप उपारे।

    रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥2॥

     

    सुनि रावन पठए भट नाना।

    तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥

    सब रजनीचर कपि संघारे।

    गए पुकारत कछु अधमारे॥3॥

     

    पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।

    चला संग लै सुभट अपारा॥

    आवत देखि बिटप गहि तर्जा।

    ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥

     

    (दोहा 18)

    कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।

    कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥

     

    सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।

    पठएसि मेघनाद बलवाना॥

    मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।

    देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥

     

    चला इंद्रजित अतुलित जोधा।

    बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥

    कपि देखा दारुन भट आवा।

    कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥2॥

     

    अति बिसाल तरु एक उपारा।

    बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥

    रहे महाभट ताके संगा।

    गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा॥3॥

     

    तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।

    भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥

    मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।

    ताहि एक छन मुरुछा आई॥4॥

     

    उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।

    जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥5॥

     

    (दोहा 19)

    ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।

    जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥

     

    ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा।

    परतिहुँ बार कटकु संघारा॥

    तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।

    नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥

     

    जासु नाम जपि सुनहु भवानी।

    भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥

    तासु दूत कि बंध तरु आवा।

    प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥2॥

     

    कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।

    कौतुक लागि सभाँ सब आए॥

    दसमुख सभा दीखि कपि जाई।

    कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥3॥

     

    कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।

    भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥

    देखि प्रताप न कपि मन संका।

    जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥4॥

     

    (दोहा 20)

    कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।

    सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद॥

     

    कह लंकेस कवन तैं कीसा।

    केहि के बल घालेहि बन खीसा॥

    की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।

    देखउँ अति असंक सठ तोही॥1॥

     

    मारे निसिचर केहिं अपराधा।

    कहु सठ तोहि न प्रान कई बाधा॥

    सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।

    पाइ जासु बल बिरचति माया॥2॥

     

    जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।

    पालत सृजत हरत दससीसा॥

    जा बल सीस धरत सहसानन।

    अंडकोस समेत गिरि कानन॥3॥

     

    धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।

    तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥

    हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।

    तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥4॥

     

    खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।

    बधे सकल अतुलित बलसाली॥5॥

     

    (दोहा 21)

    जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।

    तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥

     

    जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।

    सहसबाहु सन परी लराई॥

    समर बालि सन करि जसु पावा।

    सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥1॥

     

    खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।

    कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥

    सब कें देह परम प्रिय स्वामी।

    मारहिं मोहि कुमारग गामी॥2॥

     

    जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।

    तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥

    मोहिन कछु बाँधे कइ लाजा।

    कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥3॥

     

    बिनती करउँ जोरि कर रावन।

    सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥

    देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।

    भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥4॥

     

    जाकें डर अति काल डेराई।

    जो सुर असुर चराचर खाई॥

    तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।

    मोरे कहें जानकी दीजै॥5॥

     

    (दोहा 22)

    प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।

    गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥

     

    राम चरन पंकज उर धरहू।

    लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥

    रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।

    तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥1॥

     

    राम नाम बिनु गिरा न सोहा।

    देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥

    बसन हीन नहिं सोह सुरारी।

    सब भूषन भूषित बर नारी॥2॥

     

    राम बिमुख संपति प्रभुताई।

    जाइ रही पाई बिनु पाई॥

    सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।

    बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥3॥

     

    सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।

    बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥

    संकर सहस बिष्नु अज तोही।

    सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥4॥

     

    (दोहा 23)

    मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।

    भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥

     

    जदपि कही कपि अति हित बानी।

    भगति बिबेक बिरति नय सानी॥

    बोला बिहसि महा अभिमानी।

    मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥1॥

     

    मृत्यु निकट आई खल तोही।

    लागेसि अधम सिखावन मोही॥

    उलटा होइहि कह हनुमाना।

    मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥2॥

     

    सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।

    बेगि न हरहु मूढ़ कर  प्राना॥

    सुनत निसाचर मारन धाए।

    सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥3॥

     

    नाइ सीस करि बिनय बहूता।

    नीति बिरोध न मारिअ दूता॥

    आन दंड कछु करिअ गोसाँई।

    सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥4॥

     

    सुनत बिहसि बोला दसकंधर।

    अंग भंग करि पठइअ बंदर॥5॥

     

    (दोहा 24)

    कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।

    तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥

     

    पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।

    तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥

    जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।

    देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥

     

    बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।

    भइ सहाय सारद मैं जाना॥

    जातुधान सुनि रावन बचना।

    लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥2॥

     

    रहा न नगर बसन घृत तेला।

    बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥

    कौतुक कहँ आए पुरबासी।

    मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥

     

    बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।

    नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥

    पावक जरत देखि हनुमंता।

    भयउ परम लघुरूप तुरंता॥4॥

     

    निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।

    भईं सभीत निसाचर नारीं॥5॥

     

    (दोहा 25)

    हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।

    अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास॥

     

    देह बिसाल परम हरुआई।

    मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥

    जरइ नगर भा लोग बिहाला।

    झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥

     

    तात मातु हा सुनिअ पुकारा।

    एहिं अवसर को हमहि उबारा॥

    हम जो कहा यह कपि नहिं होई।

    बानर रूप धरें सुर कोई॥2॥

     

    साधु अवग्या कर फलु ऐसा।

    जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥

    जारा नगरु निमिष एक माहीं।

    एक बिभीषन कर गृह नाही॥3॥

     

    ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।

    जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥

    उलट पलट लंका सब जारी।

    कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥4॥

     

    (दोहा 26)

    पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।

    जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥

     

    मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।

    जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥

    चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।

    हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥

     

    कहेहु तात अस मोर प्रनामा।

    सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥

    दीन दयाल बिरिदु संभारी।

    हरहु नाथ मम संकट भारी॥2॥

     

    तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।

    बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥

    मास दिवस महुँ नाथु न आवा।

    तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥3॥

     

    कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।

    तुम्हहू तात कहत अब जाना॥

    तोहि देखि सीतलि भइ छाती।

    पुनि मो कहूँ सोइ दिनु सो राती॥4॥

     

    (दोहा 27)

    जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।

    चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥

     

    चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।

    गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥

    नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।

    सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥

     

    हरषे सब बिलोकि हनुमाना।

    नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥

    मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।

    कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥2॥

     

    मिले सकल अति भए सुखारी।

    तलफत मीन पाव जिमि बारी॥

    चले हरषि रघुनायक पासा।

    पूँछत कहत नवल इतिहासा॥3॥

     

    तब मधुबन भीतर सब आए।

    अंगद संमत मधु फल खाए॥

    रखवारे जब बरजन लागे।

    मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥4॥

     

    (दोहा 28)

    जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।

    सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज॥

     

    जौं न होति सीता सुधि पाई।

    मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥

    एहि बिधि मन बिचार कर राजा।

    आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥

     

    आइ सबन्हि नावा पद सीसा।

    मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥

    पूँछी कुसल कुसल पद देखी।

    राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥2॥

     

    नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।

    राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥

    सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।

    कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥3॥

     

    राम कपिन्ह जब आवत देखा।

    किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥

    फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।

    परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥4॥

     

    (दोहा 29)

    प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।

    पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥

     

    जामवंत कह सुनु रघुराया।

    जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥

    ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।

    सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥

     

    सोइ बिजई बिनई गुन सागर।

    तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥

    प्रभु की कृपा भयउ सबु काजू।

    जन्म हमार सुफल भा आजू॥2॥

     

    नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।

    सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥

    पवनतनय के चरित सुहाए।

    जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥3॥

     

    सुनत कृपानिधि मन अति भाए।

    पुनि हनुमान् हरषि हियँ लाए॥

    कहहु तात केहि भाँति जानकी।

    रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4॥

     

    (दोहा 30)

    नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।

    लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥

     

    चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।

    रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥

    नाथ जुगल लोचन भरि बारी।

    बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥

     

    अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।

    दीन बंधु प्रनतारति हरना॥

    मन क्रम बचन चरन अनुरागी।

    केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥2॥

     

    अवगुन एक मोर मैं माना।

    बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥

    नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।

    निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥

     

    बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।

    स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥

    नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।

    जरैं न पाव देह बिरहागी॥4॥

     

    सीता कै अति बिपति बिसाला।

    बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥5॥

     

    (दोहा 31)

    निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।

    बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥

     

    सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।

    भरि आए जल राजिव नयना॥

    बचन कायँ मन मम गति जाही।

    सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥

     

    कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।

    जब तव सुमिरन भजन न होई॥

    केतिक बात प्रभु जातुधान की।

    रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥

     

    सुनु कपि तोहि समान उपकारी।

    नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥

    प्रति उपकार करौं का तोरा।

    सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥3॥

     

    सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।

    देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥

    पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।

    लोचन नीर पुलक अति गाता॥4॥

     

    (दोहा 32)

    सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।

    चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥

     

    बार बार प्रभु चहइ उठावा।

    प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥

    प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।

    सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥

     

    सावधान मन करि पुनि संकर।

    लागे कहन कथा अति सुंदर॥

    कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा।

    कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥

     

    कहु कपि रावन पालित लंका।

    केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥

    प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।

    बोला बचन बिगत अभिमाना॥3॥

     

    साखामृग कै बड़ि मनुसाई।

    साखा तें साखा पर जाई॥

    नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।

    निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥4॥

     

    सो सब तव प्रताप रघुराई।

    नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥5॥

     

    (दोहा 33)

    ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।

    तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥

     

    नाथ भगति अति सुखदायनी।

    देहु कृपा करि अनपायनी॥

    सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।

    एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥

     

    उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।

    ताहि भजनु तजि भाव न आना॥

    यह संबाद जासु उर आवा।

    रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥2॥

     

    सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।

    जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥

    तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।

    कहा चलैं कर करहु बनावा॥3॥

     

    अब बिलंबु केहि कारन कीजे।

    तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे॥

    कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।

    नभ तें भवन चले सुर हरषी॥4॥

     

    (दोहा 34)

    कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।

    नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥

     

    प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।

    गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥

    देखी राम सकल कपि सेना।

    चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥

     

    राम कृपा बल पाइ कपिंदा।

    भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥

    हरषि राम तब कीन्ह पयाना।

    सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥2॥

     

    जासु सकल मंगलमय कीती।

    तासु पयान सगुन यह नीती॥

    प्रभु पयान जाना बैदेहीं।

    फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥3॥

     

    जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।

    असगुन भयउ रावनहि सोई॥

    चला कटकु को बरनैं पारा।

    गर्जहिं बानर भालु अपारा॥4॥

     

    नख आयुध गिरि पादपधारी।

    चले गगन महि इच्छाचारी॥

    केहरिनाद भालु कपि करहीं।

    डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥5॥

     

    (छंद 1)

    चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।

    मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥

    कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।

    जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥

     

    (छंद 2)

    सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।

    गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई॥

    रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।

    जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥

     

    (दोहा 35)

    एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।

    जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥

     

    उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।

    जब तें जारि गयउ कपि लंका॥

    निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।

    नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥1॥

     

    जासु दूत बल बरनि न जाई।

    तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥

    दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।

    मंदोदरी अधिक अकुलानी॥2॥

     

    रहसि जोरि कर पति पग लागी।

    बोली बचन नीति रस पागी॥

    कंत करष हरि सन परिहरहू।

    मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥3॥

     

    समुझत जासु दूत कइ करनी।

    स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥

    तासु नारि निज सचिव बोलाई।

    पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥4॥

     

    तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।

    सीता सीत निसा सम आई॥

    सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।

    हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥5॥

     

    (दोहा 36)

    राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।

    जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥

     

    श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।

    बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥

    सभय सुभाउ नारि कर साचा।

    मंगल महुँ भय मन अति काचा॥1॥

     

    जौं आवइ मर्कट कटकाई।

    जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥

    कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा।

    तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥2॥

     

    अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।

    चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥

    मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।

    भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥3॥

     

    बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।

    सिंधु पार सेना सब आई॥

    बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।

    ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥4॥

     

    जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।

    नर बानर केहि लेखे माहीं॥5॥

     

    (दोहा 37)

    सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।

    राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥

     

    सोइ रावन कहुँ बनी सहाई।

    अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥

    अवसर जानि बिभीषनु आवा।

    भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥

     

    पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।

    बोला बचन पाइ अनुसासन॥

    जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।

    मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥2॥

     

    जो आपन चाहै कल्याना।

    सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥

    सो परनारि लिलार गोसाईं।

    तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥3॥

     

    चौदह भुवन एक पति होई।

    भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥

    गुन सागर नागर नर जोऊ।

    अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥4॥

     

    (दोहा 38)

    काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।

    सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥

     

    तात राम नहिं नर भूपाला।

    भुवनेस्वर कालहु कर काला॥

    ब्रह्म अनामय अज भगवंता।

    ब्यापक अजित अनादि अनंता॥1॥

     

    गो द्विज धेनु देव हितकारी।

    कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥

    जन रंजन भंजन खल ब्राता।

    बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥2॥

     

    ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।

    प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥

    देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।

    भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥

     

    सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।

    बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥

    जासु नाम त्रय ताप नसावन।

    सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥4॥

     

    (दोहा 39 [क])

    बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।

    परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥

     

    (दोहा 39 [ख])

    मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।

    तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात॥

     

    माल्यवंत अति सचिव सयाना।

    तासु बचन सुनि अति सुख माना॥

    तात अनुज तव नीति बिभूषन।

    सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥1॥

     

    रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।

    दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥

    माल्यवंत गृह गयउ बहोरी।

    कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥2॥

     

    सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।

    नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥

    जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।

    जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥

     

    तव उर कुमति बसी बिपरीता।

    हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥

    कालराति निसिचर कुल केरी।

    तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥4॥

     

    (दोहा 40)

    तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।

    सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार॥

     

    बुध पुरान श्रुति संमत बानी।

    कही बिभीषन नीति बखानी॥

    सुनत दसानन उठा रिसाई।

    खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥1॥

     

    जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।

    रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥

    कहसि न खल अस को जग माहीं।

    भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥2॥

     

    मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।

    सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥

    अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।

    अनुज गहे पद बारहिं बारा॥3॥

     

    उमा संत कइ इहइ बड़ाई।

    मंद करत जो करइ भलाई॥

    तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।

    रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥4॥

     

    सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।

    सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥5॥

     

    (दोहा 41)

    रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।

    मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि॥

     

    अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।

    आयू हीन भए सब तबहीं॥

    साधु अवग्या तुरत भवानी।

    कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥

     

    रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।

    भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥

    चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।

    करत मनोरथ बहु मन माहीं॥2॥

     

    देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।

    अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥

    जे पद परसि तरी रिषिनारी।

    दंडक कानन पावनकारी॥3॥

     

    जे पद जनकसुताँ उर लाए।

    कपट कुरंग संग धर धाए॥

    हर उर सर सरोज पद जेई।

    अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥4॥

     

    (दोहा 42)

    जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।

    ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥

     

    एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।

    आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा॥

    कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।

    जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥1॥

     

    ताहि राखि कपीस पहिं आए।

    समाचार सब ताहि सुनाए॥

    कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।

    आवा मिलन दसानन भाई॥2॥

     

    कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।

    कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥

    जानि न जाइ निसाचर माया।

    कामरूप केहि कारन आया॥3॥

     

    भेद हमार लेन सठ आवा।

    राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥

    सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।

    मम पन सरनागत भयहारी॥4॥

     

    सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।

    सरनागत बच्छल भगवाना॥5॥

     

    (दोहा 43)

    सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।

    ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥

     

    कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।

    आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥

    सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।

    जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥

     

    पापवंत कर सहज सुभाऊ।

    भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥

    जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।

    मोरें सनमुख आव कि सोई॥2॥

     

    निर्मल मन जन सो मोहि पावा।

    मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥

    भेद लेन पठवा दससीसा।

    तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥

     

    जग महुँ सखा निसाचर जेते।

    लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥

    जौं सभीत आवा सरनाईं।

    रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥4॥

     

    (दोहा 44)

    उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।

    जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत॥

     

    सादर तेहि आगें करि बानर।

    चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥

    दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।

    नयनानंद दान के दाता॥1॥

     

    बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।

    रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥

    भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।

    स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥2॥

     

    सिंघ कंध आयत उर सोहा।

    आनन अमित मदन मन मोहा॥

    नयन नीर पुलकित अति गाता।

    मन धरि धीर कही मृदु बाता॥3॥

     

    नाथ दसानन कर मैं भ्राता।

    निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥

    सहज पापप्रिय तामस देहा।

    जथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥

     

    (दोहा 45)

    श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।

    त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥

     

    अस कहि करत दंडवत देखा।

    तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥

    दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।

    भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥

     

    अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।

    बोले बचन भगत भयहारी॥

    कहु लंकेस सहित परिवारा।

    कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥

     

    खल मंडली बसहु दिनु राती।

    सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥

    मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।

    अति नय निपुन न भाव अनीती॥3॥

     

    बरु भल बास नरक कर ताता।

    दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥

    अब पद देखि कुसल रघुराया।

    जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥4॥

     

    (दोहा 46)

    तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।

    जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥

     

    तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।

    लोभ मोह मच्छर मद माना॥

    जब लगि उर न बसत रघुनाथा।

    धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥

     

    ममता तरुन तमी अँधिआरी।

    राग द्वेष उलूक सुखकारी॥

    तब लगि बसति जीव मन माहीं।

    जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥2॥

     

    अब मैं कुसल मिटे भय भारे।

    देखि राम पद कमल तुम्हारे॥

    तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।

    ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥3॥

     

    मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।

    सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥

    जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।

    तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥4॥

     

    (दोहा 47)

    अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।

    देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥

     

    सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।

    जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥

    जौं नर होइ चराचर द्रोही।

    आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥

     

    तजि मद मोह कपट छल नाना।

    करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥

    जननी जनक बंधु सुत दारा।

    तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥

     

    सब कै ममता ताग बटोरी।

    मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥

    समदरसी इच्छा कछु नाहीं।

    हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥

     

    अस सज्जन मम उर बस कैसें।

    लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥

    तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।

    धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥

     

    (दोहा 48)

    सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।

    ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥

     

    सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।

    तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥

    राम बचन सुनि बानर जूथा।

    सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥

     

    सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।

    नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥

    पद अंबुज गहि बारहिं बारा।

    हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥

     

    सुनहु देव सचराचर स्वामी।

    प्रनतपाल उर अंतरजामी॥

    उर कछु प्रथम बासना रही।

    प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥

     

    अब कृपाल निज भगति पावनी।

    देहु सदा सिव मन भावनी॥

    एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।

    मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥4॥

     

    जदपि सखा तव इच्छा नाहीं।

    मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥

    अस कहि राम तिलक तेहि सारा।

    सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥5॥

     

    (दोहा 49 [क])

    रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।

    जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड॥

     

    (दोहा 49 [ख])

    जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।

    सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥

     

    अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।

    ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥

    निज जन जानि ताहि अपनावा।

    प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥1॥

     

    पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।

    सर्बरूप सब रहित उदासी॥

    बोले बचन नीति प्रतिपालक।

    कारन मनुज दनुज कुल घालक॥2॥

     

    सुनु कपीस लंकापति बीरा।

    केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥

    संकुल मकर उरग झष जाती।

    अति अगाध दुस्तर सब भाँती॥3॥

     

    कह लंकेस सुनहु रघुनायक।

    कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥

    जद्यपि तदपि नीति असि गाई।

    बिनय करिअ सागर सन जाई॥4॥

     

    (दोहा 50)

    प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।

    बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥

     

    सखा कही तुम्ह नीकि उपाई।

    करिअ दैव जौं होइ सहाई॥

    मंत्र न यह लछिमन मन भावा।

    राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥

     

    नाथ दैव कर कवन भरोसा।

    सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥

    कादर मन कहुँ एक अधारा।

    दैव दैव आलसी पुकारा॥2॥

     

    सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।

    ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥

    अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।

    सिंधु समीप गए रघुराई॥3॥

     

    प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।

    बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥

    जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।

    पाछें रावन दूत पठाए॥4॥

     

    (दोहा 51)

    सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।

    प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥

     

    प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।

    अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥

    रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।

    सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥

     

    कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।

    अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥

    सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।

    बाँधि कटक चहु पास फिराए॥2॥

     

    बहु प्रकार मारन कपि लागे।

    दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥

    जो हमार हर नासा काना।

    तेहि कोसलाधीस कै आना॥3॥

     

    सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।

    दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥

    रावन कर दीजहु यह पाती।

    लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥4॥

     

    (दोहा 52)

    कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।

    सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥

     

    तुरत नाइ लछिमन पद माथा।

    चले दूत बरनत गुन गाथा॥

    कहत राम जसु लंकाँ आए।

    रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥

     

    बिहसि दसानन पूँछी बाता।

    कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥

    पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी।

    जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥

     

    करत राज लंका सठ त्यागी।

    होइहि जव कर कीट अभागी॥

    पुनि कहु भालु कीस कटकाई।

    कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥

     

    जिन्ह के जीवन कर रखवारा।

    भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥

    कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।

    जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥

     

    (दोहा 53)

    की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।

    कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर॥

     

    नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।

    मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥

    मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।

    जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥

     

    रावन दूत हमहि सुनि काना।

    कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना॥

    श्रवन नासिका काटैं लागे।

    राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥2॥

     

    पूँछिहु नाथ राम कटकाई।

    बदन कोटि सत बरनि न जाई॥

    नाना बरन भालु कपि धारी।

    बिकटानन बिसाल भयकारी॥3॥

     

    जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।

    सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥

    अमित नाम भट कठिन कराला।

    अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥4॥

     

    (दोहा 54)

    द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।

    दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥

     

    ए कपि सब सुग्रीव समाना।

    इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥

    राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।

    तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥

     

    अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।

    पदुम अठारह जूथप बंदर॥

    नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।

    जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

     

    परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।

    आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥

    सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।

    पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

     

    मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।

    ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥

    गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।

    मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥4॥

     

    (दोहा 55)

    सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।

    रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥

     

    राम तेज बल बुधि बिपुलाई।

    सेष सहस सत सकहिं न गाई॥

    सक सर एक सोषि सत सागर।

    तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

     

    तासु बचन सुनि सागर पाहीं।

    मागत पंथ कृपा मन माहीं॥

    सुनत बचन बिहसा दससीसा।

    जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

     

    सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।

    सागर सन ठानी मचलाई॥

    मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।

    रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

     

    सचिव सभीत बिभीषन जाकें।

    बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥

    सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।

    समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥

     

    रामानुज दीन्ही यह पाती।

    नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥

    बिहसि बाम कर लीन्ही रावन।

    सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

     

    (दोहा 56 [क])

    बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।

    राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥

     

    (दोहा 56 [ख])

    की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।

    होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥

     

    सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।

    कहत दसानन सबहि सुनाई॥

    भूमि परा कर गहत अकासा।

    लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥

     

    कह सुक नाथ सत्य सब बानी।

    समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥

    सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।

    नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥

     

    अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।

    जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥

    मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।

    उर अपराध न एकउ धरिही॥3॥

     

    जनकसुता रघुनाथहि दीजे।

    एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥

    जब तेहिं कहा देन बैदेही।

    चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥

     

    नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।

    कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥

    करि प्रनामु निज कथा सुनाई।

    राम कृपाँ आपनि गति पाई॥5॥

     

    रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।

    राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥

    बंदि राम पद बारहिं बारा।

    मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥

     

    (दोहा 57)

    बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

    बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥

     

    लछिमन बान सरासन आनू।

    सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू॥

    सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती।

    सहज कृपन सन सुंदर नीती॥1॥

     

    ममता रत सन ग्यान कहानी।

    अति लोभी सन बिरति बखानी॥

    क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा।

    ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

     

    अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।

    यह मत लछिमन के मन भावा॥

    संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।

    उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥3॥

     

    मकर उरग झष गन अकुलाने।

    जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥

    कनक थार भरि मनि गन नाना।

    बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥

     

    (दोहा 58)

    काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।

    बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥

     

    सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।

    छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥

    गगन समीर अनल जल धरनी।

    इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥

     

    तव प्रेरित मायाँ उपजाए।

    सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥

    प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।

    सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥

     

    प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।

    मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥

    ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।

    सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥

     

    प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।

    उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥

    प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।

    करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥4॥

     

    (दोहा 59)

    सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।

    जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥

     

    नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।

    लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥

    तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।

    तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥

     

    मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।

    करिहउँ बल अनुमान सहाई॥

    एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।

    जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥2॥

     

    एहिं सर मम उत्तर तट बासी।

    हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥

    सुनि कृपाल सागर मन पीरा।

    तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥

     

    देखि राम बल पौरुष भारी।

    हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥

    सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।

    चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥4॥

     

    (छंद)

    निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।

    यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥

    सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।

    तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

     

    (दोहा 60)

    सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।

    सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥

     

    मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम

    इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः।

    (सुंदरकाण्ड समाप्त)

     

     

    ॥ श्रीहनूमते नमः॥

    श्री हनुमान चालीसा

     

    (दोहा)

    श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।

    बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥

    बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।

    बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥

     

    (चौपाई)

    जय हनुमान् ज्ञान गुन सागर।

    जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥

    राम दूत अतुलित बल धामा।

    अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥

     

    महाबीर बिक्रम बजरंगी।

    कुमति निवार सुमति के संगी॥

    कंचन बरन बिराज सुबेसा।

    कानन कुंडल कुंचित केसा॥

     

    हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।

    काँधे मूँज जनेऊ साजै॥

    संकर सुवन केसरीनंदन।

    तेज प्रताप महा जग बंदन॥

     

    बिद्यावान गुनी अति चातुर।

    राम काज करिबे को आतुर॥

    प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।

    राम लषन सीता मन बसिया॥

     

    सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।

    बिकट रूप धरि लंक जरावा॥

    भीम रूप धरि असुर सँहारे।

    रामचंद्र के काज सँवारे॥

     

    लाय सजीवन लखन जियाये।

    श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥

    रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।

    तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

     

    सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।

    अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥

    सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।

    नारद सारद सहित अहीसा॥

     

    जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।

    कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥

    तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।

    राम मिलाय राज पद दीन्हा॥

     

    तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।

    लंकेस्वर भए सब जग जाना॥

    जुग सहस्र जोजन पर भानू।

    लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥

     

    प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।

    जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं॥

    दुर्गम काज जगत के जेते।

    सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

     

    राम दुआरे तुम रखवारे।

    होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥

    सब सुख लहै तुम्हारी सरना।

    तुम रच्छक काहू को डर ना॥

     

    आपन तेज सम्हारो आपै।

    तीनों लोक हाँक तें काँपै॥

    भूत पिसाच निकट नहिं आवै।

    महाबीर जब नाम सुनावै॥

     

    नासै रोग हरै सब पीरा।

    जपत निरंतर हनुमत बीरा॥

    संकट तें हनुमान् छुड़ावै।

    मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥

     

    सब पर राम तपस्वी राजा।

    तिन के काज सकल तुम साजा॥

    और मनोरथ जो कोई लावै।

    सोइ अमित जीवन फल पावै॥

     

    चारों जुग परताप तुम्हारा।

    है परसिद्ध जगत उजियारा॥

    साधु संत के तुम रखवारे।

    असुर निकंदन राम दुलारे॥

     

    अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।

    अस बर दीन जानकी माता॥

    राम रसायन तुम्हरे पासा।

    सदा रहो रघुपति के दासा॥

     

    तुम्हरे भजन राम को पावै।

    जनम जनम के दुख बिसरावै॥

    अंत काल रघुबर पुर जाई।

    जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥

     

    और देवता चित्त न धरई।

    हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥

    संकट कटै मिटै सब पीरा।

    जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥

     

    जै जै जै हनुमान् गोसाईं।

    कृपा करहु गुरु देव की नाईं॥

    जो सत बार पाठ कर कोई।

    छूटहि बंदि महा सुख होई॥

     

    जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा।

    होय सिद्धि साखी गौरीसा॥

    तुलसीदास सदा हरि चेरा।

    कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥

     

    (दोहा)

     

    पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

    राम लषन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

    ॥इति॥



    संकटमोचन हनुमानाष्टक

    मत्तगयन्द छंद

    बाल समय रवि भक्ष लियो तबतीनहुँ लोक भयो अँधियारो।

    ताहि सों त्रास भयो जग कोयह संकट काहु सों जात न टारो॥

    देवन आनि करी बिनती तबछाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो।

    को नहिं जानत है जगमें कपिसंकटमोचन नाम तिहारो॥1॥

     

    बालि की त्रास कपीस बसै गिरिजात महाप्रभु पंथ निहारो।

    चौंकि महा मुनि साप दियो तबचाहिय कौन बिचार बिचारो॥

    कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभुसो तुम दास के सोक निवारो।

    को नहिं जानत है जगमें कपिसंकटमोचन नाम तिहारो॥2॥

     

    अंगद के सँग लेन गए सियखोज कपीस यह बैन उचारो।

    जीवत ना बचिहौ हम सो जुबिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो॥

    हेरि थके तट सिंधु सबै तब लायसिया-सुधि प्रान उबारो।

    को नहिं जानत है जगमें कपिसंकटमोचन नाम तिहारो॥3॥

     

    रावन त्रास दई सिय को सबराक्षसि सों कहि सोक निवारो।

    ताहि समय हनुमान् महाप्रभुजाए महा रजनीचर मारो॥

    चाहत सीय असोक सों आगि सुदै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो।

    को नहिं जानत है जगमें कपिसंकटमोचन नाम तिहारो॥4॥

     

    बान लग्यो उर लछिमन के तबप्रान तजे सुत रावन मारो।

    लै गृह बैद्य सुषेन समेततबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो॥

    आनि सजीवन हाथ दई तबलछिमन के तुम प्रान उबारो।

    को नहिं जानत है जगमें कपिसंकटमोचन नाम तिहारो॥5॥

     

    रावन जुद्ध अजान कियो तबनाग कि फाँस सबै सिर डारो।

    श्रीरघुनाथ समेत सबै दलमोह भयो यह संकट भारो॥

    आनि खगेस तबै हनुमान् जुबंधन काटि सुत्रास निवारो।

    को नहिं जानत है जगमें कपिसंकटमोचन नाम तिहारो॥6॥

     

    बंधु समेत जबै अहिरावनलै रघुनाथ पताल सिधारो।

    देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलिदेउ सबै मिलि मंत्र बिचारो॥

    जाए सहाय भयो तब हीअहिरावन सैन्य समेत सँहारो।

    को नहिं जानत है जगमें कपिसंकटमोचन नाम तिहारो॥7॥

     

    काज किए बड़ देवन के तुमबीर महाप्रभु देखि बिचारो।

    कौन सो संकट मोर गरीब कोजो तुमसों नहिं जात है टारो॥

    बेगि हरो हनुमान महाप्रभुजो कछु संकट होय हमारो।

    को नहिं जानत है जग में कपिसंकटमोचन नाम तिहारो॥8॥

     

    दो0—लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लँगूर।

    बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर॥

     

    ॥इति संकटमोचन हनुमानाष्टक संपूर्ण॥

     


    श्री रामायण जी की आरती

    आरती श्रीरामायनजी की। कीरति कलित ललित सिय पी की॥

    गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीक बिग्यान बिसारद॥

    सुक सनकादि सेष अरु सारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी॥1॥

    गावत बेद पुरान अष्टदस। छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस॥

    मुनि जन धन संतन को सरबस। सार अंस संमत सबही की॥2॥

    गावत संतत संभु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी॥

    ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुसुंडि गरुड के ही की॥3॥

    कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की॥

    दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब बिधि तुलसी की॥4॥



    श्री हनुमान् जी की आरती


    आरती कीजै हनुमान् लला की। दुष्टदलन रघुनाथ कला की॥ टेक॥

    जाके बल से गिरिवर काँपै। रोग-दोष जाके निकट न झाँपै॥1॥

    अंजनि पुत्र महा बलदाई। संतन के प्रभु सदा सहाई॥2॥

    दे बीरा रघुनाथ पठाये। लंका जारि सीय सुधि लाये॥3॥

    लंका सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥4॥

    लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज सँवारे॥5॥

    लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आनि सजीवन प्रान उबारे॥6॥

    पैठि पताल तोरि जम-कारे। अहिरावन की भुजा उखारे॥7॥

    बायें भुजा असुर दल मारे। दहिने भुजा संतजन तारे॥8॥

    सुर नर मुनि आरती उतारे। जै जै जै हनुमान् उचारे॥ 9॥

    कंचन थार कपूर लौ छाई। आरति करत अंजना माई॥10॥

    जो हनुमान् (जी) की आरति गावै। बसि बैकुंठ परमपद पावै॥11॥



    श्रीराम-स्तुति


    श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं।

    नवकंज लोचन, कंज- मुख, कर-कंज,पद कंजारुणं॥

     

    कंदर्प अगणित अमित छबि,नवनील–नीरद सुंदरं।

    पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं॥

     

    भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश-निकंदनं।

    रघुनंद आनंदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं॥

     

    सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग बिभूषणं।

    आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं॥

     

    इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।

    मम हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं॥

     

    मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।

    करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥

     

    एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।

    तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

     

    सो०-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।

    मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥

     

    ॥सियावर रामचंद्र की जय॥

    शांत, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परम शांति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेष जी से निरंतर सेवित, वेदांत के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दीखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में  श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि, राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

    हे रघुनाथ जी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुल श्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥

    अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु)-के समान कांतियुक्त शरीरवाले, दैत्यरूपी वन (-को ध्वंस करने-के लिए अग्निरूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन पुत्र श्री हनुमान् जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥

    जाम्बवान् के  सुंदर वचन सुनकर हनुमान् जी के हृदय को बहुत ही भाये। (वे बोले—) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कंद-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥

    जब तक मैं सीता जी को देखकर (लौट) आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथ जी को धारण करके हनुमान् जी हर्षित होकर चले2॥

    समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान् जी खेल से ही(अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान् हनुमान् जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥

    जिस पर्वत पर हनुमान् जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथ जी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान् जी चले॥4॥

    समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात् अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)॥5॥

    (दोहा 1)

    हनुमान् जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा—भाई! श्री रामचंद्र जी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ?॥1॥

    देवताओं ने पवन पुत्र हनुमान् जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान् जी से यह बात कही—॥1॥

    आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवन कुमार हनुमान् जी ने कहा—श्री राम जी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीता जी की खबर प्रभु को सुना दूँ,॥2॥

    तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान् जी ने कहा—तो फिर मुझे खा ले॥3॥

    उसने योजनभर (चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान् जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान् जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए॥4॥

    जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान् जी  उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान् जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥

    और वे उसके मुख में घुसकर (तुरंत) फिर बाहर निकल और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। (उसने कहा—) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था॥6॥

    (दोहा 2)

    तुम श्री रामचंद्र जी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भण्डार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान् जी  हर्षित होकर चले॥1॥

    समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जन्तु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर,॥1॥

    उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे (और जल में गिर पड़ते थे)। इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान् जी से भी किया। हनुमान् जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया॥2॥

    पवन पुत्र धीर बुद्धि वीर श्री हनुमान् जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहाँ जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु(पुष्परस)—के लोभ से भौरे गुञ्जार कर रहे थे॥3॥

    अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में (बहुत ही) प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान् जी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े॥4॥

    (शिवजी कहते हैं—) हे उमा! इसमें वानर हनुमान् की  कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लङ्का देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता॥5॥

    वह अत्यंत ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोटे (चहार दीवारी)—का परम प्रकाश हो रहा है॥6॥

    (छंद 1)

    विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत-से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियाँ हैं; सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है? अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती॥1॥

    (छंद 2)

    वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गन्धर्वों की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मनों को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीरवाले बड़े ही बलवान् मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥2॥

    (छंद 3)

    भयंकर शरीरवाले करोड़ों योद्धा यत्न करके (बड़ी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं में (सब ओर से) रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोड़ी-सी कही है कि ये निश्चय ही श्री रामचंद्र जी के बाणरूपी तीर्थ में शरीरों को त्यागकर परमगति पावेंगे॥3॥

    (दोहा 3)

    नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान् जी ने मन में  विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3॥

    हनुमान् जी  मच्छर के समान (छोटा-सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान् श्री रामचंद्र जी का स्मरण करके लङ्का को चले। (लङ्का के द्वार पर) लङ्किनी नामकी एक राक्षसी रहती थी। वह बोली—मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥1॥

    हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना? जहाँ तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमान् जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर लुढ़क पड़ी॥2॥

    वह लङ्किनी फिर अपने को सँभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। (वह बोली—) रावण को जब ब्रह्मा जी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि—॥3॥

    जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचंद्र जी के दूत (आप)—को नेत्रों से देख पाई॥ 4॥

    (दोहा 4)

    हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण)—मात्र के सत्सङ्ग से होता है॥4॥

    अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथ जी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता जाती है॥1॥

    और हे गरुड़ जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्र जी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान् जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान् का  स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥2॥

    उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए। वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥3॥

    हनुमान् जी ने उस (रावण)—को शयन किए देखा; परंतु महल में जानकी जी नहीं दिखाई दीं। फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहाँ (उसमें) भगवान्‌ का एक अलग मंदिर बना हुआ था॥4॥

    (दोहा 5)

    वह महल श्री राम जी के आयुध (धनुष-बाण)—के चिह्नों से अङ्कित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमान् जी  हर्षित हुए॥5॥

    लङ्का तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष)—का निवास कहाँ? हनुमान् जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषण जी जागे॥1॥

    उन्होंने (विभीषण ने) राम-नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनुमान् जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान् जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥

    ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान् जी ने उन्हें वचन सुनाए (पुकारा)। सुनते ही विभीषण जी उठकर वहाँ आए। प्रणाम करके कुशल पूछी (और कहा कि) हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिए॥3॥

    क्या आप हरि भक्तों में से कोई हैं? क्योंकि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है। अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री राम जी ही हैं, जो मुझे बड़भागी बनाने (घर बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं?॥4॥

    (दोहा 6)

    तब हनुमान् जी ने श्री रामचंद्र जी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्री राम जी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन (प्रेम और आनंद में) मग्न हो गए॥6॥

    (विभीषण जी ने कहा—) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ, जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्र जी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥1॥

    मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और मन में श्री रामचंद्र जी के चरण कमलों में प्रेम ही है। परंतु हे हनुमान्! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री राम जी की मुझ पर कृपा है; क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥2॥

    जब श्री रघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके(अपनी ओर से) दर्शन दिए हैं। (हनुमान् जी ने कहा—) हे विभीषण जी! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं॥3॥

    भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ? (जाति का) चञ्चल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ। प्रातः काल जो हम लोगों (बंदरों)—का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन मिले॥4॥

    (दोहा 7)

    हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ; पर श्री रामचंद्र जी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान्‌ के गुणों का स्मरण करके हनुमान् जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥7॥

    जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथ जी)—को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दु:खी क्यों हों? इस प्रकार श्री राम जी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय (परम) शांति प्राप्त की॥1॥

    फिर विभीषण जी ने, श्री जानकी जी जिस प्रकार वहाँ (लङ्का में) रहती थीं, वह सब कथा कही। तब हनुमान् जी ने कहा—हे भाई! सुनो, मैं जानकी माता को देखना चाहता हूँ॥2॥

    विभीषण जी ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियाँ (उपाय) कह सुनाईं। तब हनुमान् जी  विदा लेकर चले। फिर वही (पहले का मसक-सरीखा) रूप धरकर वहाँ गए, जहाँ अशोक वन में (वन के जिस भाग में) सीता जी रहती थीं॥3॥

    सीता जी को देखकर हनुमान् जी ने उन्हें मन ही में प्रणाम किया। उन्हें बैठे-ही-बैठे रात्रि के चारों पहर बीत जाते हैं। शरीर दुबला हो गया है, सिर पर जटाओं की एक वेणी (लट) है। हृदय में श्री रघुनाथ जी के गुणसमूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं॥4॥

    (दोहा 8)

    श्री जानकी जी नेत्रों को अपने चरणों में लगाए हुए हैं (नीचे की ओर देख रही हैं) और मन श्री राम जी के चरण कमलों में लीन है। जानकी जी को दीन (दु:खी) देखकर पवन पुत्र हनुमान् जी बहुत ही दुःखी हुए॥8॥

    हनुमान् जी  वृक्ष के पत्तों में छिपे रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत-सी स्त्रियों को साथ लिए सज-धजकर रावण वहाँ आया॥1॥

    उस दुष्ट ने सीता जी को बहुत प्रकार से समझाया। साम, दान, भय और भेद दिखलाया। रावण ने कहा—हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो। मंदोदरी आदि सब रानियों को—॥2॥

    मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्र जी का स्मरण करके जानकी जी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं—॥3॥

    हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकी जी फिर कहती हैं—तू ( अपने लिए भी) ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है॥4॥

    रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?॥5॥

    (दोहा 9)

    अपने को जुगनू के समान और रामचंद्र जी को सूर्य के समान सुनकर और सीता जी के कठोर वचनों को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला—॥9॥

    सीता! तूने मेरा अपमान किया है। मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा। नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले। हे सुमुखि! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा!॥1॥

    (सीता जी ने कहा—) हे दशग्रीव! प्रभु की भुजा जो श्याम कमल की माला के समान सुंदर और हाथी की सूँड़ के समान (पुष्ट तथा विशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कण्ठ में पड़ेगी या तेरी भयानक तलवार ही। रे शठ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है॥2॥

    सीता जी कहती हैं—हे चन्द्रहास (तलवार)! श्री रघुनाथ जी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले। हे तलवार! तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है (अर्थात् तेरी धारा ठंढी और तेज है), तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले॥3॥

    सीता जी के ये वचन सुनते ही वह मारने दौड़ा। तब मय दानव की पुत्री मंदोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया। तब रावण ने सब राक्षसियों को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ॥4॥

    यदि महीने भर में यह कहा माने तो मैं इसे तलवार निकालकर मार डालूँगा॥5॥

    (दोहा 10)

    (यों कहकर) रावण घर चला गया। यहाँ राक्षसियों के समूह बहुत-से बुरे रूप धरकर सीता जी को भय दिखलाने लगे॥10॥

    उनमें एक त्रिजटा नामकी राक्षसी थी। उसकी श्री रामचंद्र जी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान)—में निपुण थी। उसने सबों को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा—सीता जी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो॥1॥

    स्वप्न में (मैंने देखा कि) एक बंदर ने लङ्का जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई। रावण नंगा है और गदहे पर सवार है। उसके सिर मुँड़े हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं॥2॥

    इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लङ्का विभीषण ने पाई है। नगर में श्री रामचंद्र जी की दुहाई फिर गई। तब प्रभु ने सीता जी को बुला भेजा॥3॥

    मैं पुकारकर (निश्चय के साथ) कहती हूँ कि यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा। उसके वचन सुनकर सब राक्षसियाँ डर गईं और जानकी जी के चरणों पर गिर पड़ीं॥4॥

    (दोहा 11)

    तब (इसके बाद) वे सब जहाँ-तहाँ चली गईं। सीता जी मन में सोच करने लगीं कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा॥11॥

    सीता जी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं—हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूँ। विरह असह्य हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता॥1॥

    काठ लाकर चिता बनाकर सजा दे। हे माता! फिर उसमें आग लगा दे। हे सयानी! तू मेरी प्रीति को सत्य कर दे। रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने?॥2॥

    सीता जी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकड़कर उन्हें समझाया और प्रभु का प्रताप, बल और सुयश सुनाया। (उसने कहा—) हे सुकुमारी! सुनो, रात्रि के समय आग नहीं मिलेगी। ऐसा कहकर वह अपने घर चली गई॥3॥

    सीता जी (मन-ही-मन) कहने लगीं—(क्या करूँ) विधाता ही विपरीत हो गया। आग मिलेगी, पीड़ा मिटेगी। आकाश में अंगारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता॥4॥

    चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन! मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर॥5॥

    तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह-रोग का अंत मत कर (अर्थात् विरह-रोग को बढ़ाकर सीमा तक पहुँचा)। सीता जी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान् जी को कल्प के समान बीता॥6॥

    (सोरठा 12)

    तब हनुमान् जी ने हृदय में विचार कर (सीता जी के सामने) अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिया। (यह समझकर) सीता जी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया॥12॥

    तब उन्होंने राम-नाम से अङ्कित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीता जी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं॥1॥

    (वे सोचने लगीं—) श्री रघुनाथ जी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीता जी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान् जी मधुर वचन बोले—॥2॥

    वे श्री रामचंद्र जी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीता जी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान् जी ने आदि से लेकर सारी कथा कह सुनाई॥3॥

    (सीता जी बोलीं—) जिसने कानों के लिए अमृतरूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान् जी पास चले गए। उन्हें देखकर सीता जी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं; उनके मन में आश्चर्य हुआ॥4॥

    (हनुमान् जी ने कहा—) हे माता जानकी! मैं श्री राम जी का दूत हूँ। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ। हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ। श्री राम जी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान)दी है॥5॥

    (सीता जी ने पूछा—) नर और वानर का सङ्ग कहो कैसे हुआ? तब हनुमान् जी ने जैसे सङ्ग हुआ था, वह सब कथा कही॥6॥

    (दोहा 13)

    हनुमान् जी के  प्रेमयुक्त वचन सुनकर सीता जी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया। उन्होंने जान लिया कि यह मन, कर्म और वचन से कृपासागर श्री रघुनाथ जी का दास है॥13॥

    भगवान् का  जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया। (सीता जी ने कहा—) हे तात हनुमान्! विरह सागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए॥1॥

    मैं बलिहारी जाती हूँ, अब छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मङ्गल कहो। श्री रघुनाथ जी तो कोमल हृदय और कृपालु हैं। फिर हे हनुमान्! उन्होंने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है?॥2॥

    सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बान है। वे श्री रघुनाथ जी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल साँवले अङ्गों को देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे?॥3॥

    (मुँह से) वचन नहीं निकलता, नेत्रों में (विरह के आँसुओं का) जल भर आया। (बड़े दुःख से वे बोलीं—) हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीता जी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमान् जी कोमल और विनीत वचन बोले—॥4॥

    हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मण जी के सहित (शरीर से) कुशल हैं, परंतु आपके दुःख से दुःखी हैं। हे माता! मन में ग्लानि मानिये (मन छोटा करके दुःख कीजिए)। श्री रामचंद्र जी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है॥5॥

    (दोहा 14)

    हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथ जी का संदेश सुनिए। ऐसा कहकर हनुमान् जी प्रेम से गद्गद हो गए। उनके नेत्रों में(प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥14॥

    (हनुमान् जी  बोले—) श्री रामचंद्र जी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं। वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चंद्रमा सूर्य के समान॥1॥

    और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप के श्वास के समान (जहरीली और गरम) हो गई है॥2॥

    मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दु:ख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥3॥

    और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का संदेश सुनते ही जानकी जी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की सुध रही॥4॥

    हनुमान् जी ने कहा—हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्री राम जी का स्मरण करो। श्री रघुनाथ जी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो॥5॥

    (दोहा 15)

    राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्री रघुनाथ जी के बाण अग्नि के समान हैं। हे माता! हृदयमें   धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो॥15॥

    श्री रामचंद्र जी ने यदि खबर पाई होती तो वे विलंब करते। हे जानकी जी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है?॥1॥

    हे माता! मैं आपको अभी यहाँ से लिवा जाऊँ; पर श्री रामचंद्र जी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन)—की आज्ञा नहीं है। (अतः) हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्री रामचंद्र जी वानरों सहित यहाँ आवेंगे॥2॥

    और राक्षसों को मारकर आपको ले जायँगे। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गावेंगे। (सीता जी ने कहा—) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हें-नन्हें-से) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान् योद्धा हैं॥3॥

    अतः मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!) यह सुनकर हनुमान् जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत ( सुमेरु)—के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान् और वीर था॥4॥

    तब (उसे देखकर) सीता जी के मनमें विश्वास हुआ। हनुमान् जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥

    (दोहा 16)

    हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती। परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को  खा सकता है (अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान को मार सकता है)॥16॥

    भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान् जी की वाणी सुनकर सीता जी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने श्री राम जी के प्रिय जानकर हनुमान् जी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥1॥

    हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथ जी तुम पर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान् जी पूर्ण प्रेम में  मग्न हो गए॥2॥

    हनुमान् जी ने बार-बार सीता जी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा—हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥3॥

    हे माता! सुनो, सुंदर फलवाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है। (सीता जी ने कहा—) हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं॥4॥

    (हनुमान् जी ने कहा—) हे माता! यदि आप मन में सुख मानें (प्रसन्न होकर आज्ञा दें) तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है॥5॥

    (दोहा 17)

    हनुमान् जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकी जी ने कहा—जाओ। हे तात! श्री रघुनाथ जी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥17॥

    वे सीता जी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए। फल खाये और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहाँ बहुत-से योद्धा रखवाले थे। उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार की—॥1॥

    (और कहा—) हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया है। उसने अशोक वाटिका उजाड़ डाली। फल खाये, वृक्षों को उखाड़ डाला और रखवालों को मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया॥2॥

    यह सुनकर रावण ने बहुत-से योद्धा भेजे। उन्हें देखकर हनुमान् जी ने गर्जना की। हनुमान् जी ने सब राक्षसों को मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गए॥3॥

    फिर रावण ने अक्षय कुमार को भेजा। वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर चला। उसे आते देखकर हनुमान् जी ने एक वृक्ष (हाथ में) लेकर ललकारा और उसे मारकर महाध्वनि (बड़े जोर)—से गर्जना की॥4॥

    (दोहा 18)

    उन्होंने सेना में कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड़-पकड़कर धूल में मिला दिया। कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान् है॥18॥

    पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे (ज्येष्ठ) पुत्र) बलवान् मेघनाद को भेजा। (उससे कहा कि—) हे पुत्र! मारना नहीं; उसे बाँध लाना। उस बंदर को देखा जाए कि कहाँ का है॥1॥

    इन्द्र को जीतने वाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला। भाई का मारा जाना सुन उसे क्रोध हो आया। हनुमान् जी ने देखा कि अबकी भयानक योद्धा आया है। तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े॥2॥

    उन्होंने एक बहुत बड़ा वृक्ष उखाड़ लिया और (उसके प्रहार से) लंकेश्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया (रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक दिया)। उसके साथ जो बड़े-बड़े योद्धा थे, उनको पकड़-पकड़कर हनुमान् जी अपने शरीर से मसलने लगे॥3॥

    उन सबको मारकर फिर मेघनाद से लड़ने लगे। (लड़ते हुए वे ऐसे मालूम होते थे) मानो दो गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड़ गए हों। हनुमान् जी उसे एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े। उसको क्षणभर के लिए मूर्च्छा गई॥4॥

    फिर उठकर उसने बहुत माया रची; परंतु पवन के पुत्र उससे जीते नहीं जाते॥5॥

    (दोहा 19)

    अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का संधान (प्रयोग) किया, तब हनुमान् जी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी॥19॥

    उसने हनुमान् जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े) परंतु गिरते समय भी उन्होंने बहुत-सी सेना मार डाली। जब उसने देखा कि हनुमान् जी मूर्च्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बाँधकर ले गया॥1॥

    (शिवजी कहते हैं—) हे भवानी! सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण)—के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में सकता है? किंतु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान् जी ने स्वयं अपनेको बँधा लिया॥2॥

    बंदर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक के लिए (तमाशा देखने के लिए) सब सभा में आए। हनुमान् जी ने जाकर रावण की सभा देखी। उसकी अत्यंत प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती॥3॥

    देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं। (उसका रुख देख रहे हैं।) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान् जी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ। वे ऐसे निःशङ्क खड़े रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड़ निःशङ्क (निर्भय) रहते हैं॥4॥

    (दोहा 20)

    हनुमान् जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा। फिर पुत्र-वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया॥20॥

    लङ्कापति रावण ने कहा—रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे (मेरा नाम और यश) कानों से नहीं सुना? रे शठ! मैं तुझे अत्यंत निःशङ्क देख रहा हूँ॥1॥

    तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है? (हनुमान् जी ने कहा—) हे रावण! सुन; जिनका बल पाकर माया संपूर्ण ब्रह्माण्डों के समूहों की रचना करती है;॥2॥

    जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं; जिनके बल से सहस्रमुख (फणों)—वाले शेष जी पर्वत और वन सहित समस्त ब्रह्माण्ड को सिर पर धारण करते हैं;॥3॥

    जो देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे-जैसे मूर्खो को शिक्षा देने वाले हैं; जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया॥4॥

    जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला, जो सब-के-सब अतुलनीय बलवान् थे;॥5॥

    (दोहा 21)

    जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम (चोरी से) हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ॥21॥

    मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ, सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था। हनुमान् जी के (मार्मिक) वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी॥1॥

    हे (राक्षसों के) स्वामी! मुझे भूख लगी थी, (इसलिए) मैंने फल खाये और वानर-स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े। हे (निशाचरों के) मालिक! देह सबको परम प्रिय है। कुमार्ग पर चलने वाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे॥2॥

    तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा। उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बाँध लिया। (किंतु) मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है। मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ॥3॥

    हे रावण! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोड़कर भक्तभयहारी भगवान्‌ को भजो॥4॥

    जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर करो और मेरे कहने से जानकी जी को दे दो॥5॥

    (दोहा 22)

    खर के शत्रु श्री रघुनाथ जी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं। शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे॥22॥

    तुम श्री राम जी के चरण कमलों को हृदय में  धारण करो और लङ्का का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्य जी का यश निर्मल चंद्रमा के समान है। उस चंद्रमा में तुम कलंक बनो॥1॥

    राम नाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोह को छोड़, विचारकर देखो। हे देवताओं के शत्रु! सब गहनों से सजी हुई सुंदरी स्त्री भी कपड़ों के बिना (नंगी) शोभा नहीं पाती॥2॥

    राम विमुख पुरुष की सम्पत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है (अर्थात् जिन्हें केवल बरसात का ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं॥3॥

    हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि राम विमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है। हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्री राम जी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नहीं बचा सकते॥4॥

    (दोहा 23)

    मोह ही जिसका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान् श्री रामचंद्र जी का भजन करो॥23॥

    यद्यपि हनुमान् जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान् अभिमानी रावण बहुत हँसकर (व्यंग से) बोला कि हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला!॥1॥

    रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट गई है। अधम! मुझे शिक्षा देने चला है। हनुमान् जी ने कहा—इससे उलटा ही होगा (अर्थात् मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नहीं)। यह तेरा मतिभ्रम (बुद्धि का फेर) है, मैंने प्रत्यक्ष जान लिया है॥2॥

    हनुमान् जी के वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया (और बोला—) अरे! इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौड़े। उसी समय मंत्रियों के साथ विभीषण जी वहाँ पहुँचे॥3॥

    उन्होंने सिर नवाकर और बहुत विनय करके रावण से कहा कि दूत को मारना नहीं चाहिए, यह नीति के विरुद्ध है। हे गोसाईं! कोई दूसरा दण्ड दिया जाए। सबने कहा—भाई! यह सलाह उत्तम है॥4॥

    यह सुनते ही रावण हँसकर बोला—अच्छा तो, बंदर को अंग-भंग करके भेज (लौटा) दिया जाए॥5॥

    (दोहा 24)

    मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बंदर की ममता पूँछ पर होती है। अत: तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फिर आग लगा दो॥24॥

    जब बिना पूँछ का यह बंदर वहाँ (अपने स्वामी के पास) जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा। जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूँ!॥1॥

    यह वचन सुनते ही हनुमान् जी मन में मुसकराए (और मन-ही-मन बोले कि) मैं जान गया, सरस्वती जी (इसे ऐसी बुद्धि देने में) सहायक हुई हैं। रावण के वचन सुनकर मूर्ख राक्षस वही (पूँछ में आग लगाने की) तैयारी करने लगे॥2॥

    (पूँछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि) नगर में कपड़ा, घी और तेल नहीं रह गया। हनुमान् जी ने ऐसा खेल किया कि पूँछ बढ़ गई (लंबी हो गई)। नगरवासी लोग तमाशा देखने आए। वे हनुमान् जी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी बहुत हँसी करते हैं॥3॥

    ढोल बजते हैं, सब लोग तालियाँ पीटते हैं। हनुमान् जी को नगर में  फिराकर, फिर पूँछ में आग लगा दी। अग्नि को जलते हुए देखकर हनुमान् जी तुरंत ही बहुत छोटे रूप में हो गए॥4॥

    बंधन से निकलकर वे सोने की अटारियों पर जा चढ़े। उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियाँ भयभीत हो गईं॥5॥

    (दोहा 25)

    उस समय भगवान् की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे। हनुमान् जी अट्टहास करके गर्जे और बढ़कर आकाश से जा लगे॥25॥

    देह बड़ी विशाल, परंतु बहुत ही हलकी (फुर्तीली)है। वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं। नगर जल रहा है, लोग बेहाल हो गए हैं। आग की करोड़ों भयंकर लपटें झपट रही हैं॥1॥

    हाय बप्पा! हाय मैया! इस अवसर पर हमें कौन बचावेगा? (चारों ओर) यही पुकार सुनाई पड़ रही है। हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं है, वानर का रूप धरे कोई देवता है!॥2॥

    साधु के अपमान का यह फल है कि नगर अनाथ के नगर की तरह जल रहा है। हनुमान् जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं जलाया॥3॥

    (शिवजी कहते हैं—) हे पार्वती! जिन्होंने अग्नि को  बनाया, हनुमान् जी  उन्हीं के दूत हैं। इसी कारण वे अग्नि से नहीं जले। हनुमान् जी ने उलट-पलटकर (एक ओर से दूसरी ओर तक) सारी लङ्का जला दी। फिर वे समुद्र में कूद पड़े॥4॥

    (दोहा 26)

    पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा-सा रूप धारण कर हनुमान् जी श्री जानकी जी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए॥26॥

    (हनुमान् जी ने कहा—) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथ जी ने मुझे दिया था। तब सीता जी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान् जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥1॥

    (जानकी जी ने कहा—) हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना—हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्णकाम हैं (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है), तथापि दीनों (दुःखियों)-पर दया करना आपका विरद है (और मैं दीन हूँ) अत: उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए॥2॥

    हे तात! इन्द्रपुत्र जयंत की कथा (घटना) सुनाना और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझाना (स्मरण कराना)। यदि महीनेभर में नाथ आए तो फिर मुझे जीती पाएँगे॥3॥

    हे हनुमान्! कहो, मैं किस प्रकार प्राण रखूँ! हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो। तुमको देखकर छाती ठंडी हुई थी। फिर मुझे वही दिन और वही रात!॥4॥

    (दोहा 27)

    हनुमान् जी ने जानकी जी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरण कमलों में  सिर नवाकर श्री राम जी के पास गमन किया॥27॥

    चलते समय उन्होंने महाध्वनि से भारी गर्जन किया, जिसे सुनकर राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे। समुद्र लाँघकर वे इस पार आए और उन्होंने वानरों को किलकिला शब्द (हर्षध्वनि)सुनाया॥1॥

    हनुमान् जी को देखकर सब हर्षित हो गए और तब वानरों ने अपना नया जन्म समझा। हनुमान् जी का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज विराजमान है, (जिससे उन्होंने समझ लिया कि) ये श्री रामचंद्र जी का कार्य कर आए हैं॥2॥

    सब हनुमान् जी  से मिले और बहुत ही सुखी हुए, जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल गया हो। सब हर्षित होकर नए-नए इतिहास (वृत्तांत) पूछते-कहते हुए श्री रघुनाथ जी के पास चले॥3॥

    तब सब लोग मधुवन के भीतर आए और अंगद की सम्मति से सबने मधुर फल (या मधु और फल) खाये। जब रखवाले बरजने लगे, तब घूँसों की मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे॥4॥

    (दोहा 28)

    उन सबने जाकर पुकारा कि युवराज अंगद वन उजाड़ रहे हैं। यह सुनकर सुग्रीव हर्षित हुए कि वानर प्रभु का कार्य कर आए हैं॥28॥

    यदि सीता जी की खबर पाई होती तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीव मन में विचार कर ही रहे थे कि समाज सहित वानर गए॥1॥

    सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया। कपिराज सुग्रीव सभी से बड़े प्रेम के साथ मिले। उन्होंने कुशल पूछी, (तब वानरों ने उत्तर दिया—) आपके चरणों के दर्शन से सब कुशल है। श्री राम जी की कृपा से विशेष कार्य हुआ (कार्य में विशेष सफलता हुई है)॥2॥

    हे नाथ! हनुमान्ने ही सब कार्य किया और सब वानरों के प्राण बचा लिए। यह सुनकर सुग्रीव जी हनुमान् जी से फिर मिले और सब वानरों समेत श्री रघुनाथ जी के पास चले॥3॥

    श्री राम जी ने जब वानरों को कार्य किए हुए आते देखा तब उनके मन में विशेष हर्ष हुआ। दोनों भाई स्फटिक शिला पर बैठे थे। सब वानर जाकर उनके चरणों पर गिर पड़े॥4॥

    (दोहा 29)

    दया की राशि श्री रघुनाथ जी सबसे प्रेम सहित गले लगकर मिले और कुशल पूछी। (वानरों ने कहा—) हे नाथ! आपके चरण कमलों के दर्शन पाने से अब कुशल है॥29॥

    जाम्बवान्ने कहा—हे रघुनाथ जी! सुनिए। हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है। देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं॥1॥

    वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणों का समुद्र बन जाता है। उसी का सुंदर यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता है। प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ। आज हमारा जन्म सफल हो गया॥2॥

    हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान्ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जाम्बवान्ने हनुमान् जी के सुंदर चरित्र (कार्य) श्री रघुनाथ जी को सुनाए॥3॥

    (वे चरित्र) सुनने पर कृपानिधि श्री रामचंद्र जी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमान् जी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा—हे तात! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?॥4॥

    (दोहा 30)

    (हनुमान् जी ने कहा—) आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है; फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से?॥30॥

    चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दी। श्री रघुनाथ जी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। (हनुमान् जी ने फिर कहा—) हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकी जी ने मुझसे कुछ वचन कहे—॥1॥

    छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना (और कहना कि) आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं और मैं मन, कर्म और वचन से आपके चरणों की अनुरागिणी हूँ। फिर स्वामी (आप)-ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया?॥2॥

    (हाँ) एक दोष मैं अपना (अवश्य) मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए। किंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं॥3॥

    विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है; इस प्रकार (अग्नि और पवन का संयोग होने से) यह शरीर क्षण मात्र में जल सकता है। परंतु नेत्र अपने हित के लिए (प्रभु का स्वरूप देखकर सुखी होने के लिए) जल (आँसू) बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती॥4॥

    सीता जी की विपत्ति बहुत बड़ी है। हे दीनदयालु! वह बिना कही ही अच्छी है (कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा)॥5॥

    (दोहा 31)

    हे करुणानिधान! उनका एक-एक पल कल्प के समान बीतता है। अत: हे प्रभु! तुरंत चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीता जी को ले आइए॥31॥

    सीता जी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और वे बोले—) मन, शरीर और वचन से जिसे मेरी ही गति (मेरा ही आश्रय) है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है?॥1॥

    हनुमान् जी ने कहा—हे प्रभो! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण हो। हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप शत्रु को जीतकर जानकी जी को ले आवेंगे॥2॥

    (भगवान् कहने लगे—) हे हनुमान्! सुन; तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तेरा प्रत्युपकार (बदले में उपकार) तो क्या करूँ, मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता॥3॥

    हे पुत्र! सुन; मैंने मन में (खूब) विचार करके देख लिया कि मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता। देवताओं के रक्षक प्रभु बार-बार हनुमान् जी को देख रहे हैं। नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भरा है और शरीर अत्यंत पुलकित है॥4॥

    (दोहा 32)

    प्रभु के  वचन सुनकर और उनके (प्रसन्न) मुख तथा (पुलकित) अंगों को देखकर हनुमान् जी हर्षित हो गए और प्रेम में विकल होकर 'हे भगवन्! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो' कहते हुए श्री राम जी के चरणों में गिर पड़े॥32॥

    प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान् जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु का कर-कमल हनुमान् जी के सिर पर है। उस स्थिति का स्मरण करके शिवजी प्रेम मग्न हो गए॥1॥

    फिर मन को सावधान करके शङ्कर जी अत्यंत सुंदर कथा कहने लगे—हनुमान् जी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लिया॥2॥

    हे हनुमान्! बताओ तो, रावण के द्वारा सुरक्षित लङ्का और उसके बड़े बाँके किले को तुमने किस तरह जलाया? हनुमान् जी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले॥3॥

    बंदर का बस, यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है। मैंने जो समुद्र लाँघकर सोने का नगर जलाया और राक्षसगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला॥4॥

    यह सब तो हे श्री रघुनाथ जी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है॥5॥

    (दोहा 33)

    हे प्रभु! जिस पर आप प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आपके प्रभाव से रूई (जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है) बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है (अर्थात् असंभव भी संभव हो सकता है)॥33॥

    हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान् जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्र जी ने 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा॥1॥

    हे उमा! जिसने श्री राम जी का स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती! यह स्वामी-सेवक का संवाद जिसके हृदय में गया, वही श्री रघुनाथ जी के चरणों की भक्ति पा गया॥2॥

    प्रभु के वचन सुनकर वानरगण कहने लगे—कृपालु आनंदकंद श्री राम जी की जय हो, जय हो, जय हो! तब श्री रघुनाथ जी ने कपिराज सुग्रीव को बुलाया और कहा—चलने की तैयारी करो॥3॥

    अब विलंब किस कारण किया जाए? वानरों को तुरंत आज्ञा दो। (भगवान्‌ की) यह लीला (रावण वध की तैयारी) देखकर, बहुत-से फूल बरसाकर और हर्षित होकर देवता आकाश से अपने-अपने लोक को चले॥4॥

    (दोहा 34)

    वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरों को बुलाया, सेनापतियों के समूह गए। वानर-भालुओं के झुंड अनेक रंगों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है॥34॥

    वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं। महान् बलवान् रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्री राम जी ने वानरों की सारी सेना देखी। तब कमल नेत्रों से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली॥1॥

    राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गए। तब श्री राम जी ने हर्षित होकर प्रस्थान (कूच) किया। अनेक सुंदर और शुभ शकुन हुए॥2॥

    जिनकी कीर्ति सब मङ्गलों से पूर्ण है, उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है (लीला की मर्यादा है)। प्रभु का प्रस्थान जान की जी ने भी जान लिया। उनके बाएँ अङ्ग फड़क-फड़ककर मानो कहे देते थे (कि श्री राम जी रहे हैं)॥3॥

    जानकी जी को जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावण के लिए अपशकुन हुए। सेना चली, उसका वर्णन कौन कर सकता है? असंख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे हैं॥4॥

    नख ही जिनके शस्त्र हैं, वे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलने वाले रीछ-वानर पर्वतों और वृक्षों को धारण किए कोई आकाश मार्ग से और कोई पृथ्वी पर चले जा रहे हैं। वे सिंह के समान गर्जना कर रहे हैं। (उनके चलने और गर्जने से) दिशाओं के हाथी विचलित होकर चिग्घाड़ रहे हैं॥5॥

    (छंद 1)

    दिशाओं के हाथी चिग्घाड़ने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चञ्चल हो गए (काँपने लगे) और समुद्र खलबला उठे। गन्धर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब-के-सब मन में हर्षित हुए कि (अब) हमारे दुःख टल गए। अनेकों करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं और करोड़ों ही दौड़ रहे हैं। 'प्रबलप्रताप कोसलनाथ श्री रामचंद्र जी की जय हो' ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुण समूहों को गा रहे हैं॥1॥

    (छंद 2)

    उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्) सर्पराज शेष जी भी सेना का बोझ नहीं सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते (घबड़ा जाते) हैं और पुनः-पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतों से पकड़ते हैं। ऐसा करते (अर्थात् बार-बार दाँतों को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर-सी खींचते हुए) वे कैसे शोभा दे रहे हैं मानो श्री रामचंद्र जी की सुंदर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेष जी कच्छप की पीठपर लिख रहे हों॥2॥

    (दोहा 35)

    इस प्रकार कृपानिधान श्री राम जी समुद्र तट पर जा उतरे। अनेकों रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने लगे॥35॥

    वहाँ (लङ्का में) जबसे हनुमान् जी  लङ्का को जलाकर गए, तबसे राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षस कुल की रक्षा (—का कोई उपाय) नहीं है॥1॥

    जिसके दूत का बल वर्णन नहीं किया जा सकता, उसके स्वयं नगर में आने पर कौन भलाई है (हम लोगों की बड़ी बुरी दशा होगी? दूतियों से नगर निवासियों के वचन सुनकर मंदोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई॥2॥

    वह एकांत में हाथ जोड़कर पति (रावण)—के चरणों लगी और नीति रस में पगी हुई वाणी बोली—हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में  धारण कीजिए॥3॥

    जिनके दूत की करनी का विचार करते ही (स्मरण आते ही) राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, हे प्यारे स्वामी! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥4॥

    सीता आपके कुलरूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान आई है। हे नाथ! सुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता॥5॥

    (दोहा 36)

    श्री राम जी के बाण सर्पों के समूह के समान हैं और राक्षसों के समूह मेढक के समान। जब तक वे इन्हें ग्रस नहीं लेते (निगल नहीं जाते) तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिए॥36॥

    मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा (और बोला—) स्त्रियों का स्वभाव सचमुच बहुत डरपोक होता है। मङ्गल में भी भय करती हो! तुम्हारा मन (हृदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है॥1॥

    यदि वानरों की सेना आवेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे। लोकपाल भी जिसके डर से काँपते हैं, उसकी स्त्री डरती हो, यह बड़ी हँसी की बात है॥2॥

    रावण ने ऐसा कहकर हँसकर उसे हृदय से लगा लिया और ममता बढ़ाकर (अधिक स्नेह दर्शाकर) वह सभा में चला गया। मंदोदरी हृदय में चिंता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए॥3॥

    ज्यों ही वह सभा में जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई कि शत्रु की सारी सेना समुद्र के उस पार गई है। उसने मंत्रियों से पूछा कि उचित सलाह कहिए (अब क्या करना चाहिए?)। तब वे सब हँसे और बोले कि चुप किए रहिए (इसमें सलाह की कौन-सी बात है?)॥4॥

    आपने देवताओं और राक्षसों को जीत लिया, तब तो कुछ श्रम ही नहीं हुआ। फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं?॥5॥

    (दोहा 37)

    मंत्री, वैद्य और गुरु—ये तीन यदि (अप्रसन्नता के) भय या (लाभ की) आशा से (हित की बात कहकर) प्रिय बोलते हैं (ठकुरसुहाती कहने लगते हैं) ; तो ( क्रमश:) राज्य, शरीर और धर्म—इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है॥37॥

    रावण के लिए भी वही सहायता (संयोग) बनी है। मंत्री उसे सुना-सुनाकर (मुँह पर) स्तुति करते हैं। (इसी समय) अवसर जानकर विभीषण जी आए। उन्होंने बड़े भाई के चरणों में सिर नवाया॥1॥

    फिर वे सिर नवाकर अपने आसन पर बैठ गए और आज्ञा पाकर ये वचन बोले—हे कृपालु! जब आपने मुझसे बात (राय) पूछी ही है तो हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूँ—॥2॥

    जो मनुष्य अपना कल्याण, सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह हे स्वामी! पर स्त्री के ललाट को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे (अर्थात् जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार पर स्त्री का मुख ही देखे)॥3॥

    चौदहों भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता (नष्ट हो जाता है)। जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों हो, तो भी कोई भला नहीं कहता॥4॥

    (दोहा 38)

    हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ—ये सब नरक के रास्ते हैं। इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्र जी को भजिये, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं॥38॥

    हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भण्डार) भगवान् हैं; वे निरामय (विकार रहित), अजन्मा, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं॥1॥

    उन कृपा के समुद्र भगवान् ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गौ और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य-शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनंद देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं॥2॥

    वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइये। वे श्री रघुनाथ जी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर)—को जानकी जी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री राम जी को भजिये॥3॥

    जिसे संपूर्ण जगत से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते। जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। हे रावण! हृदय में यह समझ लीजिए॥4॥

    (दोहा 39 (क))

    हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री राम जी का भजन कीजिए॥39(क)॥

    (दोहा 39 (ख))

    मुनि पुलस्त्य जी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात! सुंदर अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात प्रभु (आप)-से कह दी॥39(ख)॥

    माल्यवान् (रावण का  नाना ) नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान् मंत्री था। उसने उन (विभीषण)-के वचन सुनकर बहुत सुख माना (और कहा—) हे तात! आपके छोटे भाई नीति-विभूषण (नीति को भूषण रूप में धारण करने वाले अर्थात् नीतिमान्) हैं। विभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे हृदय में धारण कर लीजिए॥1॥

    (रावण ने कहा—) ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा बखान रहे हैं। यहाँ कोई है? इन्हें दूर करो न! तब माल्यवान् तो घर लौट गया और विभीषण जी हाथ जोड़कर फिर कहने लगे—॥2॥

    हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती हैं, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है, वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥3॥

    आपके हृदय में उलटी बुद्धि बसी है। इसी से आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं। जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि (-के समान) हैं, उन सीता पर आपकी बड़ी प्रीति है॥4॥

    (दोहा 40)

    हे तात! मैं चरण पकड़कर आपसे भीख माँगता हूँ (विनती करता हूँ) कि आप मेरा दुलार रखिए (मुझ बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वक स्वीकार कीजिए)। श्री राम जी को सीता जी दे दीजिए, जिसमें आपका अहित हो॥40॥

    विभीषण ने पण्डितों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी से नीति बखानकर कही। पर उसे सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठा और बोला कि रे दुष्ट! अब मृत्यु तेरे निकट गई है!॥1॥

    अरे मूर्ख! तू जीता तो है सदा मेरा जिलाया हुआ (अर्थात् मेरे ही अन्न से पल रहा है), पर हे मूढ़! पक्ष तुझे शत्रु का ही अच्छा लगता है। अरे दुष्ट! बता न, जगत्‌ में ऐसा कौन है जिसे मैंने अपनी भुजाओं के बल से जीता हो?॥2॥

    मेरे नगर में रहकर प्रेम करता है तपस्वियों पर। मूर्ख! उन्हीं से जा मिल और उन्हीं को नीति बता। ऐसा कहकर रावण ने उन्हें लात मारी। परंतु छोटे भाई विभीषण ने (मारने पर भी) बार-बार उसके चरण ही पकड़े॥3॥

    (शिवजी कहते हैं—) हे उमा! संत की यही बड़ाई (महिमा) है कि वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं। (विभीषण जी ने कहा—) आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया; परंतु हे नाथ! आपका भला श्री राम जी को भजने में ही है॥4॥

    (इतना कहकर) विभीषण अपने मंत्रियों को साथ लेकर आकाश मार्ग में गए और सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे—॥5॥

    (दोहा 41)

    श्री राम जी सत्यसंकल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु हैं और (हे रावण!) तुम्हारी सभा काल के वश है। अतः मैं अब श्री रघुवीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष देना॥41॥

    ऐसा कहकर विभीषण जी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं—) हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है॥1॥

    रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव (ऐश्वर्य)-से हीन हो गया। विभीषण जी हर्षित होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथ जी के पास चले॥2॥

    (वे सोचते जाते थे—) मैं जाकर भगवान्‌ के कोमल और लाल वर्ण के सुंदर चरण कमलों के दर्शन करूँगा, जो सेवकों को सुख देने वाले हैं, जिन चरणों का स्पर्श पाकर ऋषि पत्नी अहल्या तर गईं और जो दण्डक वन को पवित्र करने वाले हैं॥3॥

    जिन चरणों को जानकी जी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो कपट मृग के साथ पृथ्वी पर (उसे पकड़ने को) दौड़े थे और जो चरण कमल साक्षात् शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूँगा॥4॥

    (दोहा 42)

    जिन चरणों की पादुकाओं में भरत जी ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी जाकर इन नेत्रों से देखूँगा॥42॥

    इस प्रकार प्रेम सहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचंद्र जी की सेना थी) गए। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है॥1॥

    उन्हें (पहरे पर) ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए। सुग्रीव ने (श्री राम जी के पास जाकर) कहा—हे रघुनाथ जी! सुनिए, रावण का भाई (आपसे) मिलने आया है॥2॥

    प्रभु श्री राम जी ने कहा—हे मित्र! तुम क्या समझते हो (तुम्हारी क्या राय है)? वानरराज सुग्रीव ने कहा— हे महाराज! सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) जाने किस कारण आया है॥3॥

    (जान पड़ता है) यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है। इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँध रखा जाए। (श्री राम जी ने कहा—) हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी। परंतु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!॥4॥

    प्रभु के वचन सुनकर हनुमान् जी हर्षित हुए (और मन-ही- मन कहने लगे कि) भगवान् कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले) हैं॥5॥

    (दोहा 43)

    (श्री राम जी फिर बोले—) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं; उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥43॥

    जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥1॥

    पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख सकता था?॥2॥

    जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥3॥

    क्योंकि हे सखे! जगत् में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरे शरण आया है तो मैं उसे प्राणों की तरह रखूँगा॥4॥

    (दोहा 44)

    कृपा के धाम श्री राम जी ने हँसकर कहा—दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान् सहित सुग्रीवजी  'कृपालु श्री राम की जय हो' कहते हुए चले॥44॥

    विभीषण जी को आदर सहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथ जी थे। नेत्रों को आनंद का दान देने वाले (अत्यंत सुखद) दोनों भाइयों को विभीषण जी ने दूर ही से देखा॥1॥

    फिर शोभा के धाम श्री राम जी को देखकर वे पलक (मारना) रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गए। भगवान्‌ की विशाल भुजाएँ हैं, लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने वाला साँवला शरीर है॥2॥

    सिंह के से कंधे हैं, विशाल वक्ष:स्थल (चौड़ी छाती) अत्यंत शोभा दे रहा है। असंख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है। भगवान्‌ के स्वरूप को देखकर विभीषण जी के नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया। फिर मन में धीरज धरकर उन्होंने कोमल वचन कहे॥3॥

    हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है॥4॥

    (दोहा 45)

    मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण)—के भय का नाश करने वाले हैं। हे दु:खियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्रीरघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥

    प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दण्डवत् करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषण जी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाये। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया॥1॥

    छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री राम जी भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले—हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है॥2॥

    दिन-रात दुष्टों की मण्डली में बसते हो। (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारी सब रीति (आचार-व्यवहार) जानता हूँ। तुम अत्यंत नीति निपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती॥3॥

    हे तात! नरक में रहना वरन् अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) दे। (विभीषण जी ने कहा—) हे रघुनाथ जी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूँ, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है॥4॥

    (दोहा 46)

    तब तक जीव की कुशल नहीं और स्वप्न में भी उसके मन को शांति है, जब तक वह शोक के घर काम (विषय-कामना)—को छोड़कर श्री राम जी को नहीं भजता॥46॥

    लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्री रघुनाथ जी हृदय में नहीं बसते॥1॥

    ममता पूर्ण अँधेरी रात है, जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओं को सुख देने वाली है। वह (ममता रूपी रात्रि) तभी तक जीव के मन में बसती है, जब तक प्रभु (आप)-का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता॥2॥

    हे श्री राम जी! आपके चरणारविंद के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूँ, मेरे भारी भय मिट गए। हे कृपालु! आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते॥3॥

    मैं अत्यंत नीच स्वभाव का राक्षस हूँ। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिनका रूप मुनियों के भी ध्यान में नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया॥4॥

    (दोहा 47)

    हे कृपा और सुख के पुञ्ज श्री राम जी! मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा॥47॥

    (श्री राम जी ने कहा—) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वती जी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड-चेतन जगत का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर जाए॥1॥

    और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार॥2॥

    इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥

    ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम-सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञता वश) देह धारण नहीं करता॥4॥

    (दोहा 48)

    जो सगुण (साकार) भगवान्‌ के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥48॥

    हे लङ्कापति! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो। श्री राम जी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे—कृपा के समूह श्री राम जी की जय हो!॥1॥

    प्रभु की वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषण जी अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्री राम जी के चरण कमलों को पकड़ते हैं। अपार प्रेम है, हृदय में समाता नहीं है॥2॥

    (विभीषण जी ने कहा—) हे देव! हे चराचर जगत के  स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी, वह प्रभु के चरणों की प्रीतिरूपी नदी में बह गई॥3॥

    अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री राम जी ने तुरंत ही समुद्र का जल माँगा॥4॥

    (और कहा—) हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत में  मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता)। ऐसा कहकर श्री राम जी ने उनको राजतिलक कर दिया। आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई॥5॥

    (दोहा 49 (क))

    श्री राम जी ने रावण के क्रोध रूपी अग्नि में, जो अपनी (विभीषण की) श्वास (वचन) रूपी पवन से प्रचण्ड हो रही थी, जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखण्ड राज्य दिया॥49(क)॥

    (दोहा 49 (ख))

    शिवजी ने जो सम्पत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही सम्पत्ति श्री रघुनाथ जी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी॥49(ख)॥

    ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग-पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानकर विभीषण को श्री राम जी ने अपना लिया। प्रभु का स्वभाव वानर कुल के मन को (बहुत) भाया॥1॥

    फिर सब कुछ जानने वाले, सबके हृदय में बसने वाले, सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सबसे रहित, उदासीन, कारण से (भक्तों पर कृपा करने के लिए) मनुष्य बने हुए तथा राक्षसों के कुल का नाश करने वाले श्री राम जी ने नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले—॥2॥

    हे वीर वानरराज सुग्रीव और लङ्कापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? अनेक जाति के मगर, साँप और मछलियों से भरा हुआ यह अत्यंत अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है॥3॥

    विभीषण जी ने कहा—हे रघुनाथ जी! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोखने वाला है (सोख सकता है), तथापि नीति ऐसी कही गई है (उचित यह होगा) कि (पहले) जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए॥4॥

    (दोहा 50)

    हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे। तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी॥50॥

    (श्री राम जी ने कहा—) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मण जी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्री राम जी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया॥1॥

    (लक्ष्मण जी ने कहा—) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥2॥

    यह सुनकर श्री रघुवीर हँसकर बोले—ऐसे ही करेंगे, मन में  धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथ जी समुद्र के समीप गए॥3॥

    उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर ज्यों ही विभीषण जी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥4॥

    (दोहा 51)

    कपट से वानर का शरीर धारणकर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥51॥

    फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री राम जी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे, उन्हें दुराव (कपट वेष) भूल गया! तब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आए॥1॥

    सुग्रीव ने कहा—सब वानरो! सुनो, राक्षसों के अङ्ग-भङ्ग करके भेज दो। सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े। दूतों को बाँधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया॥2॥

    वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। (तब दूतों ने पुकारकर कहा—) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री राम जी की सौगंध है॥3॥

    यह सुनकर लक्ष्मण जी ने सबको निकट बुलाया। उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया। (और उनसे कहा—) रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना (और कहना—) हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों (सँदेसे)—को बाँचो॥4॥

    (दोहा 52)

    फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) संदेश कहना कि सीता जी को देकर उनसे (श्री राम जी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल गया (समझो)॥52॥

    लक्ष्मण जी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री राम जी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए। श्री राम जी का यश कहते हुए वे लङ्का में आए और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाये॥1॥

    दशमुख रावण ने हँसकर बात पूछी—अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? फिर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यंत निकट गई है॥2॥

    मूर्ख ने राज्य करते हुए लङ्का को त्याग दिया। अभागा अब जौका कीड़ा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर-वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा); फिर भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है॥3॥

    और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्तवाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात् उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते)। फिर उन तपस्वियों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बड़ा डर है॥4॥

    (दोहा 53)

    उनसे तेरी भेंट हुई या वे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का-सा) हो रहा है॥53॥

    (दूत ने कहा—) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए(मेरी बात पर विश्वास कीजिए)। जब आपका छोटा भाई श्री राम जी से जाकर मिला, तब उसके पहुँचते ही श्री राम जी ने उसको राजतिलक कर दिया॥1॥

    हम रावण के दूत हैं, यह कानों से सुनकर वानरों ने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिए, यहाँ तक कि वे हमारे कान-नाक काटने लगे। श्री राम जी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा॥2॥

    हे नाथ! आपने श्री राम जी की सेना पूछी; सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। अनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुखवाले, विशाल शरीरवाले और भयानक हैं॥3॥

    जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है। असंख्य नामों वाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं। उनमें असंख्य हाथियों का बल है और वे बड़े ही विशाल हैं॥4॥

    (दोहा 54)

    द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान्—ये सभी बल की राशि हैं॥54॥

    ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके–जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत-सों को गिन ही कौन सकता है? श्री राम जी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥1॥

    हे दशग्रीव! मैंने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं। हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में जीत सके॥2॥

    सब-के-सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथ जी उन्हें आज्ञा नहीं देते। हम मछलियों और साँपों सहित समुद्र को सोख लेंगे। नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥3॥

    और रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं। सब सहज ही निडर हैं; इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लङ्का को निगल ही जाना चाहते हैं॥4॥

    (दोहा 55)

    सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री राम जी हैं। हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं॥55॥

    श्री रामचंद्र जी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं, परंतु नीति निपुण श्री राम जी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

    उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री राम जी) समुद्र से राह माँग रहे हैं, उनके मन में कृपा भरी है (इसलिए वे उसे सोखते नहीं)। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा (और बोला—) जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है॥2॥

    स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होंने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है। अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है! बस, मैंने शत्रु (राम)-के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥3॥

    जिसके विभीषण-जैसा डरपोक मंत्री हो, उसे जगत में विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कहाँ? दुष्ट रावण के वचन सुनकर दूत को क्रोध बढ़ आया। उसने मौका समझकर पत्रिका निकाली॥4॥

    (और कहा—) श्री राम जी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए। रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥5॥

    (दोहा 56 (क))

    (पत्रिका में लिखा था—) अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट कर! श्री राम जी विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥56(क)॥

    (दोहा 56 (ख))

    या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण-कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! श्री राम जी के बाणरूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥56(ख)॥

    पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुसकराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा—जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥1॥

    शुक (दूत)-ने कहा—हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्री राम जी से वैर त्याग दीजिए॥2॥

    यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे॥3॥

    जानकी जी श्री रघुनाथ जी को दे दीजिए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए। जब उस (दूत)-ने जानकी जी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥

    वह भी ( विभीषण की भाँति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथ जी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री राम जी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥5॥

    (शिवजी कहते हैं—) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था। बार-बार श्री राम जी के चरणों की वंदना करके वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥6॥

    (दोहा 57)

    इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री राम जी क्रोध सहित बोले—बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥

    हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥

    ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति)-की बात और कामी से भगवान् की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥

    ऐसा कहकर श्री रघुनाथ जी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मण जी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥

    मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों)-को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥

    (दोहा 58)

    (काकभुशुण्डि जी कहते हैं—) हे गरुड़ जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥

    समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा—हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी—इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड है॥1॥

    आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥2॥

    प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दण्ड) दी; किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री—ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥3॥

    प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)। तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है (अर्थात् आपकी आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ॥4॥

    (दोहा 59)

    समुद्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री राम जी ने मुसकराकर कहा—हे तात! जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ॥59॥

    (समुद्र ने  कहा—) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे॥1॥

    मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बँधाइए, जिससे तीनों लोकों में आपका सुंदर यश गाया जाए॥2॥

    इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए। कृपालु और रणधीर श्री राम जी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात् बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)॥3॥

    श्री राम जी का भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया। उसने उन दुष्टों का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया। फिर चरणों की वंदना करके समुद्र चला गया॥4॥

    (छंद)

    समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथ जी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। श्री रघुनाथ जी के गुणसमूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हें गा और सुन।

    (दोहा 60)

    श्री रघुनाथ जी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मङ्गलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन)—के ही भवसागर को तर जाएँगे॥60॥

    कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरितमानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।

    (सुंदरकाण्ड समाप्त)

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    स्रोत :
    • पुस्तक : सुंदरकाण्ड (श्री रामचरितमानस) (पृष्ठ 4)
    • रचनाकार : श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदास
    • प्रकाशन : गीताप्रेस गोरखपुर
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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