जोइय जोएं लइयइण जइ धंधइ ण पडीसि।
देहकुडिल्ली परिखिवइ तुहं तेमइ अच्छेसि॥
अरि मणकरह म रइ करहि इंदियविसयसुहेण।
सुक्खु णिरंतरु जेहिं ण वि मुच्चहि ते खणेण॥
तूसि म रूसि म कोहु करि कोहैं णासइ धम्मु।
धम्मिं णट्ठिं णस्यगइ अह गउ माणुसजम्मु॥
हत्थ अहुट्ठहं देवली वालह णा हि पवेसु।
संतु णिरंजणु तहिं वसइ णिम्मलु होइ गवेसु॥
अप्पापरहं ण मेलयउ मणु मोडिवि सहस ति।
सो वढ जोइय किं करइ जासु ण एही सत्ति॥
सो जोयउ जो जोगवइ णिम्मलि जोइय जोइ।।
जो पुणु इंदियवसि गयउ सो इह सावयलोइ॥
बहुयइं पढियइं मूढ पर तालू सुक्कइ जेण।
एक्कु नि अक्खरु तं पढहु सिवपुरि गम्मइ जेण॥
अन्तो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा।
तं णवर सिक्खियव्वं जि जरमरणक्खयं कुणहि॥
णिल्लक्खणु इत्थीबाहिरउ अकुलीणउ महु मणि ठियउ।
तसु कारणि आणी माहू जेण गवंगउ संठियउ॥
हउं सगुणी पिउ णिग्गुणउ णिल्लक्खणु णीसंगु।
एकहिं अंगि वसंतयहं मिलिउ ण अंगहिं अंगु॥
हे योगी! योग लेकर फिर यदि तू दुनियावी धंधे में नहीं पड़ेगा तो जिसमें तू रहता है, उस देहरूप कुटीर का क्षय हो जाएगा और तू अक्षय रहेगा।
रे मनरूपी हाथी! तू ऐन्द्रिक सुखों में रति मत कर। जिनसे निरंतर सुख नहीं मिलता, उनको तू क्षणमात्र में छोड़ दे।
न राजी हो, न रोष कर और न क्रोध कर। क्रोध से धर्म का नाश होता है, धर्म के नाश होने से नरकगति होती है तथा मनुष्यजन्म निष्फल जाता है।
साढ़े तीन हाथ की देह में सत-निरंजन बसता है, बालजीव उसमें प्रवेश कर सकते नहीं, तू निर्मल होकर उसको ढूँढ़।
मन को सहसा मोड़ लेने से (स्वसन्मुख करने से) आत्मा और परमात्मा का मिलन नहीं होता, परंतु जिसकी इतनी भी शक्ति नहीं है—वह मूर्ख योगी क्या करेगा?
योगी जो निर्मल ज्योति को जगाते हैं वही योग है, किंतु जो इंद्रियों के वश हो जाता है वह तो श्रावकलोक है।
हे जीव! तू बहुत पढ़ा, पढ़-पढ़कर तेरा तालू भी सूख गया, फिर भी तू मूर्ख ही रहा। अब तू उस एक ही अक्षर को पढ़ कि जिससे शिवपुरी में गमन हो।
श्रुतियों का अंत नहीं है, काल थोड़ा है और हम मंदबुद्धि हैं, अत: केवल इतना ही सीखना उचित है जिससे जन्म-मरण का क्षय हो।
निर्लक्षण (इंद्रियगाह्य लक्षणों से पार), स्त्री से रहित और जिसके कोई कुल नहीं है—ऐसी आत्मा मेरे मन में बस गई है, जिससे अब इंद्रिय-विषयों में स्थित मेरा मन पीछे हट गया है।
मैं सगुण हूँ और मेरा पिया निर्गुण, निर्लक्षण तथा निसग है, अत: वे एक ही अंग में बसते हुए भी उनका एक दूसरे के अंग से अंग का मिलन नहीं होता।
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 26)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
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