हिंदू समाज कुरीतियों का केंद्र जा सकता कहा,
ध्रुव धर्म पथ में कुप्रथा का जाल सा है बिछ रहा।
सु-विचार के साम्राज्य में कु-विचार की अब क्रांति है,
सर्वत्र पद-पद पर हमारी प्रकट होती भ्रांति है॥
बेजोड़ विवाह
प्रति वर्ष विधवा-वृन्द की संख्या निरंतर बढ़ रही,
होता कभी आकाश है, फटती कभी हिल कर मही।
हा! देख सकता कौन ऐसे दग्धकारी दाह को?
फिर भी नहीं हम छोड़ते हैं बाल्य-वृद्ध-विवाह को!
अंधपरंपरा
सब अंग दूषित हो चुके हैं अब समाज-शरीर के,
संसार में कहला रहे हैं हम फ़कीर लकीर के!
क्या बाप-दादों के समय की रीतियाँ हम तोड़ दें?
वे रुग्ण हों तो क्यों न हम भी स्वस्थ रहना छोड़ दें!
वर-कन्या-विक्रय
बिकता कहीं वर है यहाँ बिकती तथा कन्या कहीं,
क्या अर्थ के आगे हमें अब इष्ट आत्मा भी नहीं!
हा! अर्थ, तेरे अर्थ हम करते अनेक अनर्थ हैं,
धिक्कार, फिर भी तो नहीं संपन्न और समर्थ हैं?
क्या पाप का धन भी किसी का दूर करता कष्ट है?
उस प्राप्तकर्ता के सहित वह शीघ्र होता नष्ट है।
आश्चर्य क्या है, जो दशा फिर हो हमारी भी वही,
पर लोभ में पड़ कर हमारी बुद्धि अब जाती रही!
धनोपार्जन
हैं धन कमाने के हमारे और हो साधन यहाँ,
होंगे कमाऊ और उद्यमशील ऐसे जन कहाँ?
हमको बुराई कुछ नहीं कोई कहे जो ठग हमें,
अत्यंत हीन-चरित्र अब तो जानता है जग हमें॥
निज स्वत्व, पर-संपत्ति पर कोई जमाता है यहाँ,
कोई शकुनि का अनुकरण कर धन कमाता है यहाँ।
कहने चले फिर लाज क्या, रसने! परंतु हरे! हरे!
ठग, चोर, वंचक और कितने घूस खोर यहाँ भरे!!!
सच हो कि झूँठ, किसी-किसी का साक्ष्य पर ही लक्ष है,
परलोक में कुछ हो, यहाँ तो लाभ ही प्रत्यक्ष है!
सत्कार जामाता-सदृश आहार में, उपहार में,
सोचो, भला है लाभ ऐसा और किस व्यापार में॥
कर के मिलावट ही, विदेशी खाँड़ में गुड़ को यथा,
हरते बहुत हैं देश के धन-धर्म दोनों सर्वथा।
यों हो स्वदेशी में विदेशी माल बिकता है यहाँ!
होगा कहो स्वार्थाग्नि में यों सत्य का स्वाहा कहाँ?
अब विज्ञ व्यवसायी जनों की ओर भी तो कुछ बढ़ो,
उन चारु चित्र विचित्र वर विज्ञापनों को तो पढ़ो।
मानों वहाँ बैकुंठ का ही चमत्कार भरा पड़ा!
हा! वंचना का बाह्य-दर्शन है मनमोहक बड़ा॥
कोई सुधा देकर हमें देता अमरता है वहाँ,
दे यंत्र-मंत्र, अभीष्ट कोई सिद्ध करता है वहाँ!
कुछ लाभ हो कि न हो हमें पर यह अवश्य यथार्थ है,
उन 'सत्यवक्ता' सज्जनों का सिद्ध होता स्वार्थ है॥
अपकारकर्ता धूर्त वे उपकारियों के वेश में,
हा! लूटपाट मचा रहे हैं दिन दहाड़े देश में।
उनके विकृत विज्ञापनों से पूर्ण रहते पत्र हैं,
एजेंट जेंटलमैन बनकर घूमते सर्वत्र हैं॥
माँगना खाना
कर-युक्त भी क्या कार्य करना चाहते हैं हम कभी?
क्या हम कुलीन कुली बनें? होगा न हमसे श्रम कभी।
है मान रखा काम हमने माँगना आराम का,
जीते यहाँ पर हैं बहुत खाकर सदैव हराम का!
हम नीच को ऊँचा बनाते भीख के पीछे कभी,
बनते कभी हम आप योगी और संतादिक सभी।
कोई गिने, कितने यहाँ पर माँगने के ढंग हैं,
नट-तुल्य पल-पल में बदलते हम अनेकों रंग है!
दासत्व
दासत्व करना भी हमें आया न अच्छी रीति से,
करते उसे भी हम अधम हैं अब अधर्म-अनीति से!
वह स्वामि-कार्य बने कि बिगड़े किंतु अपना काम हो,
इस नीचता की नीचता का अब कहो, क्या नाम हो?
अधिकार
हम योग भी पाकर उसे उपयोग में लाते नहीं,
सामर्थ्य पाकर भी किसी को लाभ पहुँचाते नहीं?
जैसे बने हम दूसरों को हानि ही करते सदा,
अधिकार पाकर और भी अघ के घड़े भरते सदा!
न्यायालयों में भी निरंतर घूस खाते हैं हमीं,
रक्षक पुलिस को भी यहाँ भक्षक बनाते हैं हमीं।
कर्तृत्व का फल हम प्रज्ञा पर बल दिखाना जानते,
हम दीन-दुखियों के रुदन को गान-सम हैं मानते!
अभियोग
हा! हिंस्र पशुओं के सदृश हममें भरी है क्रूरता,
करके कलह अब हम इसी में समझते हैं शूरता।
खोजो हमें यदि जब कि इस घर में न सोते ही पड़े,
होंगे वकीलों के अड़े अथवा अदालत में खड़े!
न्यायालयों में नित्य ही सर्वस्व खोते सैकड़ों,
प्रति वार, पग-पग पर, वहाँ हैं खर्च होते सैकड़ों।
फिर भी नहीं हम चेतते हैं दौड़ कर जाते वहीं,
लघु बात भी हम पाँच मिल कर आप निपटाते नहीं॥
विपथ
देखो जहाँ विपरीत पथ ही हाय! हमने है लिया,
श्रीराम के रहते हुए आदर्श रावण को किया!
हम हैं सुयोधन के अनुज तज कर युधिष्ठिर को अहो!
सोचो भला, तब फिर हमारा पतन दिन-दिन क्यों न हो?
नशेबाज़ी
हम मत्त हैं, हम पर चढ़ा कितने नशों का रंग है,
चंडू, चरस, गाँजा, मदक, अहिफेन, मदिरा, भंग है।
सुनलो ज़रा, हममें यहाँ कैसी कहावत है चली-
“पीता न गाँजे की कली उस मर्द से औरत भली”!
क्या मर्द है हम वाह वा! मुख-नेत्र पीले पड़ गए;
तनु सूख कर काँटा हुआ, सब अंग ढीले पड़ गए।
मर्दानगी फिर भी हमारी देख लीजे कम नहीं-
ये भिनभिनाती मक्खियाँ क्या मारते हैं हम नहीं!
अँगरेज वणिकों ने नशे की लौ लगाई है हमें,
हम दोष देते हैं कि तब यह मौत आई है हमें|
पर व्यर्थ है यह दोष देना, हैं हम दोषी बड़े;
हम लोग कहने से किसी के क्यों कुएँ में गिर पड़े?
जो मस्त होकर तत्वमसि का गान करते थे सदा-
स्वच्छंद ब्रह्मानंद-रस का पान करते थे सदा।
मद्यादि मादक वस्तुओं से मत्त हैं अब हम वही,
करते सदैव प्रलाप हैं, सुध-बुध सभी जाती रही!
दो चार आने रोज़ के भी जो कुली मज़दूर हैं-
संध्या-समय वे भी नशे में दीख पड़ते चूर हैं।
मर जाएँ चाहे बाल-बच्चे भूख के मारे सभी,
पर छोड़ सकते हैं नहीं उस दुर्व्यसन को वे कभी!
शुचिता विदित जिनका वही हम आज कैसे भ्रष्ट हैं,
किस भाँति दोनों लोक अपने कर रहे हम नष्ट हैं।
हम आर्य हैं पर अब हमारे चरित कैसे गिर गए,
हम दुर्गुणों से घिर गए हैं, सद्गुणों से फिर गए!
आत्मविस्मृति
हम आज क्या से क्या हुए, भूले हुए हैं हम इसे;
है ध्यान अपने मान का हममें बताओ अब किसे?
पूर्वज हमारे कौन थे, हम को नहीं यह ज्ञान भी,
है भार उनके नाम पर दो अंजली जल-दान भी!
होकर नितांत परावलंबी पशु-सदृश हम जी रहे,
हा! कालकूट सभी परस्पर फूट का हैं पी रहे!
हम देखते सुनते हुए भी देखते सुनते नहीं,
पढ़ना सभी है व्यर्थ उनका जो कभी गुनते नहीं॥
मात्सर्य
अब एक हममें दूसरे को देख सकता है नहीं,
बैरी समझता बंधु को भी, है समझ ऐसी यहीं!
कुत्ते परस्पर देख कर है दूर से ही भूंकते,
पर दूसरे को एक हम कब काटने से चूकते?
हों एक माँ के सुत कई व्यवहार सबके भिन्न हों,
संभव नहीं यह किंतु जो संबंध-बंधन छिन्न हों।
पर यह असंभव भी यहाँ प्रत्यक्ष संभव हो रहा,
राष्ट्रीय भाव-समूह मानों सर्वदा को सो रहा!
अनुदारता
यदि एक अद्भुत बात कोई ज्ञात मुझको हो गई-
तो हाय! मेरे साथ ही संसार से वह खो गई।
उसको छिपा रखूँ न मैं तो कौन पूछेगा मुझे;
कितने प्रयोग-प्रदीप इस अनुदारता से हैं बुझे!
गृह कलह
इस गृह कलह के अर्थ भारत-भूमि रणचंडी बनी,
जीवन शांतिपूर्ण सबके, दीन हो अथवा धनी!
जब यह दशा है गेह की, क्या बात बाहर की कहें?
है कौन सहृदय जन न जिसके अब यहाँ आँसू बहें?
उद्दण्ड उग्र अनैक्य क्षय कर दिया है क्षेम का,
विद्वेष ने पद हर लिया है आज पावन प्रेम का।
ईर्ष्या हमारे चित्त से क्षण मात्र भी हटती नहीं,
दो भाइयों में भी परस्पर अब यहाँ पटती नहीं!
इस गृह-कलह से ही, कि जिसकी नींव है विचार की-
निंदित कदाचित है प्रथा अब सम्मिलित परिवार की।
पारस्परिक सौहार्द अपना अन्यथा अश्रान्त था,
हाँ, सु-“वसुधैव कुटुम्बकम्,” सिद्धांत यह एकांत था॥
व्यभिचार
व्यभिचार ऐसा बढ़ रहा है, देख लो, चाहे जहाँ;
जैसा शहर, अनुरूप उसके एक 'चकला' है वहाँ!
जाकर जहाँ हम धर्म-धन खोते सदैव सहर्ष हैं,
होते पतित, कंगाल, रोगी सैकड़ों प्रतिवर्ष हैं॥
वह कौन धन है, दुर्व्यसन में हम जिसे खोते नहीं?
उत्सव हमारे बार बंधुओं के बिना होते नहीं!
सर्वत्र डोंड़ी पिट रही है अब उन्हीं के नाम की,
मानों अधिष्ठात्री वही हैं अब यहाँ शुभ-काम की॥
था शेष लिखने के लिए क्या इस अभागे को यही?
भगवान्! भारतवर्ष की कैसी अधोगति हो रही!
यदि अंत हो जाता हमारा त्यागते ही शील के,
तो आज टीके तो न लगते आर्यकुल को नील के॥
हा! वे तपोधन ऋषि कहाँ, संतान हम उनकी कहाँ?
थी पुण्यभूमि प्रसिद्ध जो हा! आज ऐसा अघ वहाँ!
बस दीप से कज्जल सदृश निज पूर्वजों से हम हुए,
वे लोक में आलोक थे पर हम निविड़तर तम हुए॥
आडंबर
यद्यपि उड़ा बैठे कमाई बाप-दादों की सभी,
पर ऐंठ वह अपनी भला हम छोड़ सकते हैं कभी!
भूषण बिके, ऋण भी बढ़े, पर धन्य सब कोई कहे;
होली जले भीतर न क्यों, बाहर दिवाली ही रहे॥
गुण, ज्ञान, गौरव, मान, धन यद्यपि सभी कुछ खो चुके,
गजभुक्त शून्य कपित्थ-सम निःसार अब हम हो चुके।
पर हैं दबाते दीनता श्वेतांबरों में भूल से!
संभव कभी है अग्नि को भी दाब रखना तूल से?
दबती कहीं आडंबरों से बहुत दिन तक दीनता?
मिलता नहीं फिर क़र्ज़ भी, होती यहाँ तक हीनता!
उद्योग तो हम क्या करेंगे जो अपव्यय कर रहे,
पर हाँ, हमारे हाथ से हैं दीन-दुर्बल मर रहे॥
अब आय तो है घट गई, पर व्यय हमारा बढ़ गया,
तिस पर विदेशी सभ्यता का भूत हम पर चढ़ गया।
ऋण-भार दिन-दिन बढ़ रहा है दब रहे हैं हम यहाँ,
देना जिन्हें हो, कुछ नहीं भी पास उनके हैं कहाँ?
मतिभ्रंश
निज पूर्वजों का हास्य करना है हमारा खेल-सा,
लगता हृदय में मेल हमको अति भयंकर शेल-सा।
कोई कहे हित की उसे हम शत्रु समझेंगे वहीं,
मधु मय अपथ्य अभीष्ट है, कटु पथ्य हमको प्रिय नहीं॥
रहते गुणों से तो सदा हम लोग कोसों दूर हैं,
परलोक में अपनी प्रशंसा चाहते भरपूर हैं!
हम तेल ढुलका कर दिए को हैं जलाना चाहते,
काटे हुए तरु में मनोहर फल फलाना चाहते!
गुणों की स्थिति
बस भाग्य की ही भावना में रह गया उद्योग है,
आजीविका है नौकरी में, इंद्रियों में भोग है।
परतंत्रता में अभयता, भय राज-दंड-विधान में,
व्यवसाय है बैरिस्टरी या डाक्टरी दूकान में॥
है चाटुकारी में चतुरता, कुशलता छल-छद्म में,
पांडित्य पर निंदा-विषय में, शूरता है सद्म में!
इस मौन में गंभीरता है, है बड़प्पन वेश में,
जो बात और कहीं नहीं वह है हमारे देश में॥
कारीगरी है शेष अब साक्षी बनाने में यहाँ,
है सत्य या विश्वास केवल कसम खाने में यहाँ।
है धैर्य तर्क-वितर्क में, योग में ही तत्व है!
अवशिष्ट दारोगागरी में सत्त्व और महत्त्व है!
निज अर्थ-साधन में हमारी रह गई अब भक्ति है,
है कर्म बस दासत्व में, अब स्वर्ण में ही शक्ति है।
गौरव जताने में यहाँ उत्साह का लगता पता,
बस बाद में है वाग्मिता, पर-अनुकरण में सभ्यता॥
निज धर्म के बलिदान ही में आज यज्ञ-विधान है,
है ज्ञान नास्तिक-भाव में, अब नींद में ही ध्यान है।
है योग पाशव-वृत्ति में ही, हाय! कैसी व्याधि है,
बस मृत्यु में ही रह गई अब भारतीय समाधि है!
स्वाधीनता निज धर्म-बंधन तोड़ देने में रही,
आस्वाद आमिष में, सुरा में सरलता जाती कही!
संगीत विषयालाप में, पर-दुःख में परिहास है,
अश्लील वर्णन मात्र में ही अब कवित्व-निवास है!
बहु वर्ण रूप उपाधियों में रह गया अब मान है;
बहुधा अपव्यय में यहाँ अब दीख पड़ता दान है।
बस व्यसन और विवाह में अवशिष्ट अब औदार्य है,
हा दैव! हिंदू जाति का क्या अंत अब अनिवार्य है॥
है शील प्राय: पूर्वजों में, एकता अभिधान में,
उपकार-जन्य कृतज्ञता है धन्यवाद प्रदान में।
पोशाक में शुचिता रहौं, बस क्रोध में ही कांति है,
अतिदीनता में नम्रता है, स्वप्न में सुख शांति है!
दुर्गुण
अब है यहाँ क्या? दंभ है, दौर्बल्य है, दृढ़-द्रोह है,
आलस्य, ईर्ष्या, द्वेष है, मालिन्य है, मद, मोह है।
है और क्या? दुर्बल जनों का सब तरह सिर काटना,
पर साथ ही बलवान का है श्वान-सम पग चाटना॥
अपने लिए यदि दूसरों को दुःख देना धर्म हो,
यदि ईश-नियमों का निरादर न्याय से सत्कर्म हो।
निश्चेष्ट होकर बैठने में हो न पुण्यों की कमीं,
तो भुक्ति के भागी हमीं हैं, मुक्ति के भागी हमीं॥
अभाव
कर हैं हमारे किंतु अब कर्तृत्व हममें है नहीं,
भारतीय परंतु हम बनते विदेशी सब कहीं!
रखते हृदय है किंतु हम रखते न सहृदयता वहाँ,
हम है मनुज पर हाय! अब मनुजत्व हम में है कहाँ?
मन में नहीं है बल हमारे, तेज चेष्टा में नहीं,
उद्योग में साहस नहीं, अपमान में न घृणा कहीं:
दासत्व में न यहाँ अरुचि है, प्रेम में प्रियता नहीं;
हो अंत में आशा कहाँ? कर्तव्य में क्रियता नहीं॥
उत्साह उन्नति का नहीं है, खेद अवनति का नहीं,
है स्वल्प-सा भी ध्यान हमको समय की गति का नहीं।
हम भीरुता के भक्त हैं, अति विदित विषयासक्त हैं,
श्रम से सदैव विरक्त हैं, आलस्य में अनुरक्त हैं॥
विकृति
हिंदू-समाज सभी गुणों से आज कैसा हीन है,
वह क्षीण और मलीन है, आलस्य में ही लीन है।
परतंत्र पद-पद पर विपद में पड़ रहा वह दीन है,
जीवन-मरण उसका यहाँ अब एक दैवाधीन है॥
हा! आर्य-संतति आज कैसी अन्य और अशक्त है,
पानी हुआ क्या अब हमारी नाड़ियों का रक्त है?
संसार में हमने किया बस एक ही यह काम है,
निज पूर्वजों का सब तरह हमने डुबाया नाम है!
दुःशीलता दासी हमारी, मूर्खता महिषी सदा,
है स्वार्थ सिंहासन हमारा मोह मंत्री सर्वदा।
यों पाप-पुर में राज-पद हा! कौन पाना चाहता?
चढ़ कर गधे पर कौन जन बैकुंठ जाना चाहता?
भारत! तुम्हारा आज यह कैसा भयंकर वेष है?
है और सब नि:शेष केवल नाम ही अब शेष है!
त्रह्मत्व, राजन्यत्व युत वैश्यत्व भी सब नष्ट है,
शुद्रत्व और पशुत्व ही अवशिष्ट है, हा! कष्ट है॥
हा दीनबंधो! क्या हमारा नाम ही मिट जाएगा,
अब फिर कृपा-कण भी न क्या भारत तुम्हारा पाएगा?
हा राम! हा! हा कृष्ण! हा! हा नाथ! हा! रक्षा करो;
मनुजत्व दो हमको दयामय! दुःख-दुर्बलता हरो॥
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 139)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
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