(दुर्योधनउवाच)
कह मति कीजै क्या जग जीजै वे सब छीजै उर धरिये।
कछु मंत्र विचारैं वे ज्यों हारैं भीमहिं मारैं सो करिये॥
कछु व्यंजन कीजै बहु विष दीजै बोलि सु लीजै भोजन को।
सुनि धावन धाये तुरंतहि लाये बहु भाये भूपति मन को॥
अतिआदर कीनो बहु सुख भीनो भूप प्रवीनो ताहि तबै।
सम्मुख भये भारे अंध दुलारे आय जुहारे बंधु सबै॥
निशिदिन तुम भावत मन करि आवत सरसावत आनंद घने।
सबही सुख पायो नेह बढ़ायो मनभायो वह को बरने॥
(भीमसेनउवाच)
सेवक जानत मोहिं तुम, कृपा करत सब कोय।
ताते दिनप्रति को यहाँ, आवन को मन होय॥
(चौपाई)
सहस हाथ पनवारो आयो।
पवनपूत जेंवन बैठायो॥
दश वीसक जन परसत धाई।
सोई लेय क्षणक में खाई॥
(दंडकछंद)
दुष्टता को पूर अति तामस को मूर,
महकूर दुर्योधन रहतु तासों क्रोध में।
कालकूट फोरि-फोरि जोरि-जोरि केते विष,
घोरि-घोरि डारै बहु भोजन अशेष में॥
व्यंजन अपार घृतसार कैयो भार आनि,
कीनो हलाहल आधे आधु सुविशेष में।
लावत ही हारि जात स्वार जेतो डारि जात,
भीमसेन झारि जात पातरि निमेष में॥
(सवैया)
तद्यपि आन न चित्त कछु नहिं यद्यपि भाव महा छल को।
जाननि जानतु भोजन खात नहीं डर ताहि हलाहल कों॥
भोजन व्यंजन वृंद कितेकनि जेयें घने न लग्यों पल कों।
दृष्टि इतै उत सों न करै न करै सुतो पान कहुं जल को॥
(दोहा)
भोजन करि वीरा लयो, चल्यो आपने गेह।
छाय गयो तिहि काल विष, अंग-अंग सब देह॥
(चौपाई)
पवनपुत्र जब बाहर आयो।
जान्यो भीम महाविष खायो॥
आई लहरि गिर्यो विकरार।
तब यह शोचत बारंबार॥
तीनों मों लघु सादर आई।
तिनकी इन सों कहा बसाई॥
भूपति मन में नेक न क्रोध।
कौरव सों को करै विरोध॥
यों सुमिरत तब छांड़े प्रान।
प्रफुलित कौरव भये निदान॥
बोल्यो वैद्य नाटिका देखो।
मुयो हलाहल सूचित लेखो॥
(वैद्यउवाच)
है अजहूँ याके उर श्वाश।
ताते है जीवन-की आश॥
आयसु दीजै करौ उपाय।
यों सुनि क्रोध भयो भुवराय॥
(दोहा)
तबै वैद्य जान्यो कपट, गेह गयो अकुलाय।
जाहु कर्ण लै भीम को,आवो गंग बहाय॥
आयसु लै रविपुत्र सों, दीनों गंग बहाय।
देव विमानन आ रहे, रहे व्योम में छाय॥
(सुरउवाच)
जीवैगो सुत वायु को, श्री हरि सदा सहाय।
सुरसरि जल में सो बह्यो, पर्यो पतालहि हरि जाय॥
वासुकिदुहिता इंदुमुखि, अहिलमती त्यहि नाम।
देखि भीम मुरति मदन, प्रफुलित भई सुवाम॥
शिशुता-से पूजी गवरिं, मन बच क्रम चितलाय।
यक दिन सो विधना करी, रही महा अलसाय॥
बासी पानी सों गवरि, पूजी यक दिन आप।
तब देवी मन क्रोध करि, दीनो ताको शाप॥
मृतक मिलै तोको पुरुष, जाहु सुरसरी तीर।
अहिलमती सो प्राणपति, देख्यो मृतक शरीर॥
लै राख्यो सो सदन में, सखि सों कही बुलाय।
अब सोई कीजै यतन, याको लेहु जिवाय॥
(चौपाई)
तत्क्षण हीं तिहि बुध्दि उपाई।
जारन पटकी गेंद बनाई॥
सुधाकुंड सो तत्क्षण डारी।
धाये पन्नग रक्षक भारी॥
रहे सुधाकुंडनि पै छाई।
नाहिं रंचक कोऊ लै जाई॥
अहिलमती यहि विधि कहि धाई।
गेंद मोहिं दीजै किन आई॥
कानि राय वासुकि की करौं।
जीव छांड़ि तुम ऊपर मरौं॥
गेंद निचोरि ताहि लै दई।
लै सो पवनपूत ढिग गई॥
रंचक तामहिं अमृत पायो।
भीमसेन के मुख में नायो॥
जीय उठ्यो जनुं सोवत जाग्यो।
निरखि त्रियायों बूझन लाग्यो॥
(भीमसेनउवाच)
को त्रिय तू जिहिं चित्त चुरायो।
सोवत तैं कित मोहिं जगायो॥
व्याल लिये संग को कहि बाला।
चंद्रमुखी गुण रूप रसाला॥
को कहु तू अब मो ढिग आई।
को यह देश कहो समुझाई॥
(त्रियउवाच)
आय पताल सुनो सुखसाज।
बासुकि मो पितु या थल राज॥
वासुकि दुहिता आहुँ मैं, अहिलमती मो नाम।
गवरि कृपा पाये पुरुष, मो गृह करि विश्राम॥
अब अपनी सब विधि कहो, कोहौ आप निदान।
कौन वंश का नाम है, किहि कारण ह्यां आन॥
(भीमसेनउवाच)
सोमवंश हम सुखद त्रिय, क्षत्रीजाति सुजान।
भूपति जम्बूद्वीप के, महिमण्डल में आन॥
तब संग दीखैं व्याल बहु, कहो कौन यह भाउ।
जितै तितै ये देखियत, सो सब वरणि सुनाउ॥
(अहिलमत्युवाच)
ये पियूष के कुंड नव, जग की जीवनमूरि।
रखवारे तहँ सर्प बहु, रहे चहूँ दिशि पूरि॥
(भीमसेनउवाच)
मैं अब कुंड सकल लखि पाय।
सोखौं सबै करौं मनभाय॥
अहिलमती तब बिनवै ताहि।
यह कछु बात न नी की आहि॥
जैहैं व्याल किते लिपटाइ।
रंचक सुधा सको नहिं खाइ॥
करि विवाह जो मोसों लेहूं।
जानि हितू मानैं सब नेहू॥
(दंडकछंद)
भारे-भारे व्याल महाकारे कारे विकराल,
कालहू के काल जहाँ तहाँ छाइ जाइँगे।
आनन की ओर जे श्रवत विषज्वाल जोर,
घोर-घोर चहूँ कहाँ धौ समाइँगे॥
सप्तमुखी एक अष्टमयी ते अनेक एक,
एकमुखी आशी विष आइ लपटाइँगे।
जोरे दोऊ हाथ कहौं मानो प्राणनाथ प्यारे,
देखि ऐसे साथ कैसे धीरज धराइँगे॥
(नाराचछंद)
फुरै न मंत्रमूरि एक व्याल जो डसें।
करौ विचार कौन आप अंग आय जो ग्रसें॥
कछु सुनै न नारि बात भीमसेन यों कहै।
सरोष मोहिं देखिकै कहो सुको इहांर है॥
(भुजंगप्रयातछंद)
लखे कुंड नैनानि सोखौं अबैहौं।
सबै नाग के यूथ को त्रास देहौं॥
चल्यो धाय के नारि यों चित्त शोचै।
करै दुःख सों नीर नैनानि मोचै॥
(अहिलमत्युवाच)
कहा कर्म कीनो मुया में जियायो।
दुहूँ भाँति सों काल ह्वै खान आयो॥
करै जो कहूँ यह पराजै पिता की।
विनाशै किधौं युध्द में देह याकी॥
दुहूँ भाँति मोको महादुःख ह्वैहै।
अभयदान मोको कृपासिंधु दैहै॥
महाक्रोध ह्वै पवन को पूत धायो।
हते नाग सो कुंड में पैठि आयो॥
महाक्रोध कीनो सबै व्याल धाये।
चहूँ ओर घेरे सबै कुंड छाये॥
उठ्यो कोपिकै भीम धायो तहाँ ते।
भगे नागसो नैन देख्यो जहाँ ते॥
(दंडकछंद)
एक मारै तोरिकै मरोरि मारैं एकै नाग,
एकै मारै मींडके कहाँ लौं कहौं करनी।
एकै धाये धाय कै धुकाय दये धावत ही,
धर धर धरकत एकै परे धरनी॥
एकनि के कारे फन फर-फर फरकत,
थर-थर कंप भगे एकै लैलै धरनी।
भागि-भागि एकै गये वासुकि नरेश आगे,
जायकै अकह कह बात सबै बरनी॥
(नागउवाच)
आयो असुर एक अति भारी।
क्योंहुँ न मानत आज्ञा तुम्हारी॥
कुंड एक करि लीनो पान।
मान्यो सब नागन को मान॥
शोपन कुंड सकल कहँ कहै।
पठयों काहु सों सुधि लहै॥
वासुकि कहै असुर नहिं होइ।
नृपति युधिष्ठिर बंधव सोई॥
भीमसेन है ताको नाम।
यहि थल जीत्यो तिहि संग्राम॥
वा बिन इतो बली को और।
सोम वंश सुभटन शिरमौर॥
(दोहा)
युधिष्ठिर नरनाह की, देहु दोहाई धाइ।
भीमसेन कुंडन निकट, सकै न नियरो जाइ॥
(चौपाई)
पाय रजायसु धामन धायो।
तुरतिह पवनपुत्र ढिग आयो॥
आनि युधिष्ठिर नृप की दीनी।
कानि भीम कुंडन की कीनी॥
(भीमसेन उवाच)
जो न दुहाई देते आई।
कुंडल सकल लेत मैं खाई॥
कौने तुम्हैं बतायो भेद।
यह मनमें बहु उपज्यो खेद॥
पाई सुधि वासुकि उठिधायें।
भीमसेन तब कंठ लगाये॥
वहु सुख संयुत लै गृह गये।
अष्टकुली मन आनँद भये॥
(दोहा)
शुभघटिका शुभ्रलग्न गनि, शुभवासर शुभवार।
अहिलमती भीमहि दई, करि विवाह सब चार॥
पाइ दाइजो ब्याहि कै, विधुवदनी वरनारि।
हियहुलास कीनो महा, वदन मयंक निहारि॥
बहु प्रताप पूरण कला, भीमसेन ज्यों भान।
फूलति लखि अंबुजमुखी, सब गुण रूप निधान॥
(सोरठा)
धर्मपुत्र भुवराय, सहदेव सों यह कही।
यह संदेश मोहिं आय, भीमहिं भयो विलंब बहु॥
(सहदेव उवाच)
गयो वीर पाताल, भूपर नहीं सुभूमिपति।
कौरव कर्म कराल, करि भोजन में विष दयो॥
(दोहा)
दीनों गंग बहाइसो, पूग्यो पतालहि जाय।
बासुकि तनया तिन बरी, रहत तहाँ सुखपाय॥
पठयो धावन भूप तब, पहुँच्यो भवन पताल।
बोले हो तिन सों कही, युधिष्ठिर भूपाल॥
पवनपुत्र माँगी विदा, बासुकि पै सुखपाय।
नाय शीश तिन को चल्यो, अहिलमती सँग लाय॥
(चौपाई)
सब गगन मारग दरशायो।
निकसि भीम भुव ऊपर आयो॥
धर्म्मपुत्र के आनंद भयो।
कुंती को सब दुख मिटि गयो॥
सकल अनुज मिलि आनंद ठयो।
महादुखित कुरुनंदन भयो॥
दयो दुष्ट सुरसरी बहाई।
कहौ कहाँ ते प्रकट्यो आई॥
सकल जगत अपयश ह्वै गयो।
अब यह शाल हमारो भयो॥
अब कछु ऐसो करौ विचार।
भीमसेन को सकिये मार॥
(युधिष्ठिरउवाच)
अंधसुतन को मान हति, कियो सुयश संसार।
गाँधारी को गर्व अब, गयो बार इहिवार॥
- पुस्तक : विजयमुक्तावली (पृष्ठ 33-38)
- संपादक : खेमराज श्रीकृष्णदास
- रचनाकार : छत्रकवि
- प्रकाशन : श्री वेंकटेश्वर छापाखाना
- संस्करण : 1896
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