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जेठवे रा सोरठा

jethwe ra sortha

टोळी सू टळतांह, हिरणां मन माठा हुवै।

वाल्हा वीछंतांह, जीणो किरण विध जेठवा॥

जिण दिन जलम लियोह, प्रीत पुराणी कारणै।

वाल्हा भूल गयोह, जोगण करग्यो जेठवा॥

पैली कीन्ही प्रीत, भूल गयो वाल्हा सजन।

मन मे म्हारे मीत, जीव बसै थू जेठवा॥

जोबन पूरे ज़ोर, मांणीगर मिळियो नही।

सारै जग में सोर, हूँ जोगण होगी जेठवा॥

तन धन जोबन जाय, ज्यूंही जमारो जावसी।

प्रीतम प्रीत लगाय, जोगण करग्यो जेठवा॥

जेठवा पलटूं जूण, मिनख देह पलटू मुदै।

कहो बणासी कूण, जीव रुखाळो जेठवा॥

जनमतड़े जग मांय, मन मौजां मांणी नहीं।

नैणां नेह छिपाय, जिऊँ किता दिन जेठवा॥

जातो जग संसार, दीसै सारां ने दरस।

भव भव रो भरतार, जिको दीसै जेठवो॥

जळ पीधो जाडेह, पावासर रे पावटे।

नैनकिये नाडेह, जीव धापै जेठवा॥

पाबासर पैठेह, हंसां भेळा ना हुआ।

बुगलां ढिग बैठेह, जूण गमाई जेठवा॥

जोड़ी जग में दोय, चकवे नै सारस तणी।

तीजी मिळी कोय, जो-जो हारी जेठवा॥

वे दीसै असवार, घुड़लां री घूमर कियां।

अबळा रो आधार, जको दीस जेठवो॥

ताळा सजड़ जड़ेह, कूची ले कांनै थयो।

ऊघड़सी आयेह, जड़िया रहसी जेठवा॥

तो बिन घड़ी जाय, जमवारो किम जावसी।

बिलखतड़ी बीहाय, जोगण करग्यो जेठवा॥

आवै और अनेक, जां पर मन जावै नहीं।

दीसै तो बिन देख, जागा सूनी जेठवा॥

चकवा सारस बांण, नारी नेह तीनू निरख।

जीणो मुसकल जांण, जोड़ी बिछड़यां जेठवा॥

इण जग आया आप, किरण जग में वासो कियो।

सो मोय डसगो सांप, जोबन वाळो जेठवा॥

जाळूं म्हारो जीव, भसमी ले भेळी करूं।

प्यारा लागो पीव, जूरण पलटलूं जेठवा॥

तमाखू तो पियांह, भूडी लागै भूख में।

टुकियक अमल लियांह, जीम्यां पाछै जेठवा॥

हियो डुळ-डुळ जाय, बेकर री बेरी ज्यूं।

कारी लागै काय, जीव डिगायां जेठवा॥

पैले भव रो पाप, सुणजो मो लागौ सही।

सहू विपत संताप, जीऊं जितरे जेठवा॥

धोळा बसतर धार, जोगण हो जग में फिरूँ।

हरदम माळा हाथ, जपती रहसू जेठवा॥

जग हथळेवो जोड़, परणाया मेलै प्रथम।

मो माथै रो मौड, जोऊँ किण दिस जेठवा॥

आडो समद अथाह, अधविच में छोड़ी अठै।

कहोजी कारण काह, जोगण करगौ जेठवा॥

पली लागत पाप, जे इसड़ो हूं जाणती।

पैठ गई पछताय, जूण गमाई जेठवा॥

जग दीसै जातांह, बातां रहसी भळे।

हित लेगो हातांह, जीवण रो सुख जेठवो॥

हिय रो तजियो हार, तन तजियो तोरे लिये।

नाजुकड़ी मो नार, जोगण करगौ जेठवा॥

देखू नैणां दोय, चखचूधी छाई चहूं।

कहो री दीसै कोय, जीवण जोती जेठवा॥

नैणां निजर निहार, तीन लोक देख्यो तुरंत।

अबळा रो आधार, जको देख्यो जेठवो॥

मन ही मन रे मांय, केयां री सुणसी कवण।

हिवड़ो हिल-हिल जाय, जिऊँ जिता दिन जेठवा॥

सारस मरता जोय, सारसणी मरसी सही।

लाखीणी लोय, जग में रहसी जेठवा॥

जेठवा हंसो जाय, सपने ही साथै हुवे।

जग में प्रीत जताय, जूण पलट सूं जेठवा॥

इहि जोड़ा उणिहार, जननी फिर जाया नहीं।

निकमो नाज़ुक नार, झुरती रैगी जेठवा॥

चकवा चाकर चोर, रैण विछोवा राखिया।

अब मिळ जावै और, जतनां राखू जेठवा॥

जेठवा जुग च्यार, सजनां थू साथै रह्यो।

विरही देख विचार, जोगण करग्यो जेठवा॥

धरती अंबर धार, जळ-थळ में रेवै जठै।

अबळा रो आधार, जोती फिरुं म्हैं जेठवो॥

आंख्यां उणियारोह, निपट नही न्यारो हुवै।

प्रीतम मो प्यारोह, जोती फिरुं रे जेठवा॥

मोरा मन मांणेह, झड़लोरां आवै जदै।

जिवड़ो मो जांणेह, जाऊँ किण दिस जेठवा॥

पपैया प्याराह, पिव-पिव कर बोलै प्रथम।

सह रजनी स्यारांह, जोबन रो मद जेठवा॥

कोयल वाळी कूक, सालै मो उर में सदा।

हिवडै हालै हूक, जग में मिळै जेठवो॥

कागा काय काय, सूण सु कहे सुहावणा।

निगमी मिळसी नाय, जो-जो हारी जेठवा॥

नैणां लागो नेह, उर अंतस मांही बसै।

सजनां सांच सनेह, जुग में मिळै जेठवो॥

धरती रवि ससि धीस, सांच तणी साखां भरै।

जग मांही जगदीस, जितै गिणीजै जेठवा॥

पल जांणै दिन जाय, दिन जांणै पख ज्यूँ दरस।

पख एक बरस देखाय, जावण लागा जेठवा॥

पाबासर री पाज, हंसो हेरण हालिया।

कोई सरियो काज, जागा सूनी जेठवा॥

जोबन रो मद ज़ोर, मेहो पण मिळियो नहीं।

कोरी काजळ कोर, ज्यू नैणां बिन जेठवा॥

देखी जूणां दोय, नार पुरख भेळा निपट।

कहसी बातां कोय, जोग तणी जी जेठवा॥

भसमी अंग भिड़ाय, हांण लाभ देखी हमें।

नैणां नेह छिपाय, जाय बस्यो जी जेठवो॥

देखो दो रा दो'र, सदा एक गत सारसा।

आवै कदे और, जाय जिसा दिन जेठवा॥

चढियो नीर अपार, पडियो जद पीधो नहीं।

गूदळिये जळगार, जीव धापै जेठवा॥

ईडा अनड तणाह, बिन माळे मेले बुओ।

उर पर पांख बिनांह, जीवै किण विध जेठवा॥

ऊँचा ते अळगाह, भुंइ पड़िया भावै नहीं।

थुड़ी पाखळी फिरतांह, जीव गमायो जेठवा॥

निरखी जोया नग्ग, जे मोल मुंहगा जाणती।

उळझ्यो काचो तग्ग, जांण्यां पाछे जेठवा॥

पाबासर पैसेह, जो कोई हेर्यो नहीं।

बग पासे बैसेह, जनम क्यू जासी जेठवा॥

रूनी रने चढ़ेह, जातांही जोयो नहीं।

वहिला वळण करेह, जुग जीवूं जी जेठवा॥

टोळी सू टळियांह, वाला हर हुं विछोहियां।

थोरी हाथ थयांह, सो किम जीवै जेठवा।

जब हरिणों तक का जीव भी अपनी टोली से अलग होते समय व्याकुल हो उठता है तो है जेठवा, अपने प्रियतम से बिछुड़ने पर प्रियतमा का जीना फिर से संभव होगा!

मैंने अपने पूर्व जन्म का प्रेम संबंध निबाहने के लिए इस परती पर जन्म लिया था, पर भाग्य की विडंबना! मेरा प्रिय मुझे भुला पर जोगिन बना गया।

मेरे मन के मीत, हे जेठवा! पहले तो तूने मुझे अपनी प्रीत के अटूट बंधन में बाँध लिया और फिर सदा के लिए भुला दिया। पर मेरे मन में तो जीवन-आधार की तरह एकमात्र तू ही बसा हुआ है।

यह यौवन अपनी पूर्णता में आलोड़ित हो रहा है पर इसके उपभोक्ता से अब तक मिलन हो सका। और हे जेठवा! अब तो समस्त विश्व भी मुझे प्रेम-जोगिन के रूप में जानने लगा है।

जिस तरह तन, धन और यौवन का प्रतिक्षण ह्रास होता है उसी तरह मेरा यह जीवन भी एक दिन समाप्त हो जाएगा। हे जेठवा, प्रेम का अटूट नाता जोड़कर तू मुझे सदा के लिए जोगिन बना गया।

हे जेठवा! अब तो विरह-व्यथा सही नहीं जाती। जी में आता है कि मानव देह को ही त्याग कर इस योनि से मुक्त हो जाऊँ। पर भला इतना करने पर भी इस तृपित जीव को शांति कहाँ—इसका रखवाला कौन होगा?

इस विश्व में जन्म लेकर भी मैं मनोवाछित आनंद नहीं भोग सकी। अब नैनों में व्याप्त तेरी प्रेम-छवि दुनिया से कब तक छिपाती फिरूँ। इस असह्य दुख को लेकर कैसे ज़िंदा रहूँ?

इस चलायमान संसार में सब तरह के लोग गतिशील दिखाई पड़ते हैं, पर मेरे जन्म-जन्म का प्रियतम जेठवा कहीं भी तो दिखाई नहीं देता।

एक बार मानसरोवर का स्वच्छ जल तृप्त होकर पी लेने के बाद हे जेटवा! छोटे तालाब के पानी से भला कैसे तृप्ति मिल सकती है?

मेरे भाग्य की भी क्या विडंबना है जो मानसरोवर में रहकर भी हंसों का सहवास मुझे मिल सका। केवल बगुलों की संगति में ही जीवन के ये महँगे दिन बीत गए।

इतने बड़े संसार में प्रेम निभाने वाली केवल चकवे और सारस की दो जोड़ी ही हैं। तीसरी की खोज करते-करते मैं हार गई, पर हे जेठवा, वह दिखाई नहीं दी।

अपने चंचल घोड़ों को नचाने वाले वे कितने ही घुड़सवार तो दिखाई पड़ रहे हैं पर मुझ अबला का जीवनाधार जेठवा उनमें कहीं दिखाई नहीं देता।

मेरे प्रेम-विह्वल हृदय पर मज़बूत ताले जड़कर, हे जेठवा! उसकी चाबी लिए किधर चला गया। जब तक लौट नहीं आओगे तब तक ये यहीं रहेंगे।

तुम्हारे वियोग में एक घड़ी का बिताना तक मुश्किल है, फिर भला यह पूरा जीवन कैसे व्यतीत होगा। हे जेठवा, मुझ बिलखती हुई को जोगिन बना कर क्यों छोड़ गया?

वैसे और भी अनेक मनुष्य हैं इस दुनिया में, लेकिन मेरा मन तो किसी को भी स्वीकार नहीं करना चाहता। हे जेठवा! केवल तेरे एक के अभाव में मुझे तो सर्वत्र सूना ही सूना नज़र आता है।

हे जेठवा! चकवा, सारस और नारी इन तीनों की स्वाभाविक प्रेम-विह्वल आदत पर ज़रा विचार करो! एक बार इनकी जोड़ी बिछुड़ जाने पर फिर इनका ज़िंदा रह सकना मुश्किल है।

इस विश्व में जन्म लेकर तुम मेरे संसर्ग में तो आए पर जाने अब कौनसी दुनिया में जा बसे हो जिससे मेरी देह में यौवन रूपी सर्प के दशन ने असह्य वेदना संचरित कर दी है।

मेरे प्रिय हे जेठवा, जी में आता है कि इस विरह-व्याकुल जीवन को जला कर ख़ाक कर दूँ ताकि इस योनि से मुक्ति पाकर अगले जीवन में तुम्हें प्राप्त कर सकूँ।

जिस प्रकार तंबाकू का आनंद भूख में या अफीम-सेवन के बिना नहीं पाता उसी प्रकार मेरे इस जीवन का आनंद भी, हे जेठवा, तेरे बिना संभव नहीं।

मेरा यह विरह-व्यथित हृदय अधीर होकर बालू की ढेरी के समान ढह-ढह जाता है, पर हे जेठवा! इस व्याकुल जीव को इतना बेचैन कर के भी कोई समाधान नहीं मिलता।

हे जेठवा, यह मेरे पूर्व जन्म के पापों का ही फल है जिसके कारण मैं इस जीवन में निरंतर विपत्ति और दुखों को झेलती रहूँगी।

हे जेठवा, अब तो मेरे लिए केवल एक ही रास्ता रह गया है कि तेरे वियोग में सफ़ेद वस्त्र धारण कर जोगिन बन कर, दिन-रात तेरे नाम की माला जपती हुई विश्व भर में भटकती रहूँ।

विवाह-संस्कार की पूरी रस्म अदा होने के बाद ही लड़की अपने घर में विदा होती है, पर मुझे वह शुभ घड़ी नसीब हुई। मेरे सिर पर भी सुशोभित हो सके उस सेहरे की खोज भला अब कहाँ करूँ।

इस अथाह जीवन-समुद्र के मझधार में तुमने मुझे अकेला छोड़ दिया। हे जेठवा! बताओ तो सही इस तरह मुझे जोगिन बना कर चले जाने का कारण क्या है?

यदि मुझे पहले ही यह मालूम होता कि मेरे इस कार्य का फल पाप में परिणित हो जाएगा तो मैं यह भूल कभी नहीं करती, पर अब तो पश्चात्ताप के सिवाय और कुछ नहीं रहा है। हे जेठवा, मैं तो अपना जीवन ही गँवा चुकी।

इस नश्वर जगत की सभी वस्तुएँ समाप्त होती हुई दिखाई देती हैं पर मेरे जीवन की यह प्रेमगाथा सदा चलती रहेगी। हे जेठवा, तू मुझ अबला का समस्त जीवन-सुख ही अपने हाथों लूट कर ले गया।

मैं तुम्हें अपना शरीर तो पहले ही समर्पित कर चुकी थी और अब तेरे वियोग में शृंगार भी त्याग दिया है। हे निष्ठुर जेठवा, मुझ सुकोमल नारी को तू इस तरह जोगिन बना गया।

मेरी ये मिलनातुर आँखें चारों ओर राह देखते-देखते चुंधिया गई है। अब तो कोई बताए—क्या मेरे प्राणों की ज्योति जेठवा कहीं आता हुआ दिखाई देता है।

अपनी अंतःदृष्टि से मैंने तीनों लोकों को उन्मुक्तता के साथ छान मारा पर मुझ अबला का जीवनाधार जेठवा कहीं भी तो दिखाई नहीं दिया।

मेरी अंतर्वेदना मन ही मन में घुट रही है। किससे कहूँ, कोई सुनने वाला भी तो दिखाई नहीं देता। जब तक यह जीवन-क्रम चलेगा, मेरा व्यथित हृदय इस आंतरिक पीड़ा में उद्विग्न रहेगा।

सारस को मरता हुआ देखकर सारसनी भी निश्चय ही प्राण त्याग देगी। पर उनकी अमूल्य प्रेम-ज्योति सदा दुनिया में आदर्श बन कर जगमगाएगी।

हे जेठवा, सपने में भी मेरी आत्मा का तुमसे ही साक्षात्कार होता है कि क्यों दुनिया के सामने प्रेम का आदर्श रख कर इस जीवन से मुक्ति पा लूँ, जिसमें दोनों आत्माओं का चिर मिलन संभव हो सके।

इतने बड़े विश्व में जेठवे के स्वरूप वाला व्यक्ति केवल जेठवा ही है, किसी माँ ने फिर ऐसे पुत्र को जन्म नहीं दिया। मैं अभागी उसी के पीछे बिलखती रह गई।

चकवा, चाकर और चोर तो अपनी प्रेमिकाओं से केवल रात भर के लिए ही बिछुड़ते हैं पर तू तो ऐसा बिछुड़ा कि फिर मिला ही नहीं। हे जेठवा, अब फिर से यदि तेरा मिलन हो जाए तो मैं बड़े यत्न से तुझे संभाल कर रखूँगी।

हे जेठवा, चार युगों तक मेरे साथ तेरा अटूट प्रेम-संबंध रहा है, फिर भला अब मुझे क्यों जोगिन बना गया; जरा इस पर विचार तो कर।

जल-थल और धरती-आकाश के बीच जहाँ कहीं भी मुझ अबला का जीवनाधार जेठवा रहता है, मैं उसकी खोज में अत्यंत व्याकुल होकर भटक रही हूँ।

मेरे प्रिय हे जेठवा! तेरी सूरत एक क्षण के लिए भी आँखों से ओझल नहीं होती। तेरी चिरस्मृति को लिए मैं अधीर होकर मिलन-आस में भटक रही हूँ।

जब गरजते हुए बादल झड़ी लगा देते हैं और मदमत्त मयूर आत्म-विभोर हो ऊँची आवाज़ में बोल उठते हैं तो हे जेठवा! मेरा यह प्यासा हृदय चलायमान हो उठता है। मैं किस और जाऊँ, तेरा कोई पता भी तो नहीं।

इधर तो पपीहे पिउ-पिउ की रट लगा कर बेचैन करते हैं और उधर रात भर झींगुरों की आवाज़ हृदय को झंकृत करती रहती है। ऐसे कामुक वातावरण में, हे प्रिय जेठवा! मेरा यौवन-मद अलौकित हो उठता है।

तेरे विरह में कोयल की कूक हूक बन पर सदा मेरे हृदय में कसकती रहती है। पर हे जेठवा, तू कहीं ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलता।

रे कागा! बार-बार बोल पर किसी के आगमन की शुभ सूचना देने का व्यर्थ प्रयत्न क्यों कर रहा है? मेरा प्रिय जेठवा तो अब आने से रहा। उसे खोजते-खोजते मैं हार चुकी पर वह मेरी पहुँच के बाहर है।

जिन आँखों के साथ स्नेह का बंधन हो गया था, उसका अब हृदय में स्थायी निवास हो गया है। मेरे प्रिय जेठवे के साथ ऐसा विशुद्ध प्रेम हो जाने के पश्चात भी संसार में उसका मिलना दूभर हो रहा है।

हे जेठवा, तुम्हारे साथ मेरे सच्चे प्रेम-संबंध की साक्षी, धरती, सूर्य, चंद्रमा और राजा भी तब तक देते रहेंगे जब तक विश्व में ईश्वर की मान्यता रहेगी।

हे जेठवा, अब तो मुझ विरहिनी का जीवन इतना दूभर हो गया है कि मुझे पल दिन के समान, दिन पख के समान और पख वर्ष के समान व्यतीत होते हुए जान पड़ते हैं।

हे जेठवा, मानसरोवर में मैं तुम्हें ढूँढ़ने निकली थी पर मेरी मनोकामना पूरी हुई। जहाँ भी दृष्टि दौड़ाई केवल सूनापन ही दिखाई दिया।

मेरा यौवन-मद पूर्णता पर है, पर उसका उपभोग करने वाला मेह-जेठवा अब तक मिला। मेरे इस महँगे यौवन की दशा अब उस कज्जल-रेखा की तरह हो गई है जिसकी शोभा आँखों के अभाव में सुशोभित हो सकी।

नारी और पुरुष दोनों के जीवन का सहवास तो इस दुनिया में सबने देखा है, पर मुझ प्रेम-योगिन की दुखद जीवन-गाथा इस विश्व में कौन कहेगा?

अंग-अंग पर भस्म रमा कर, प्रेम-योगिन बन जाने के पश्चात, इस जीवन के हानि-लाभ का लेखा-जोखा मेरी समझ में आया। पर अब क्या हो— मेरे स्नेह को आँखों से ओझल करके जेठवा जाने कहाँ जा बसा है।

सारस और सारसनी के जीवन में भी सदा एक विशेषता रहती है—जब देखो दोनों एक साथ विचरण करते हैं, पर मैं जीवन के अनमोल दिन अकेली बिता रही हूँ। हे जेठवा, ये जाने वाले दिन फिर भी लौट कर नहीं आएँगे।

हे जेठवा, अपार जल-राशि जब सामने थी, तब तो उसका उपभोग किया नहीं और अब इस गंदले पानी से मेरे जीव को तृप्ति नहीं होती।

जिस तरह पनह पक्षी अपने अंडे आकाश ही में छोड़ देता है उसी प्रकार मुझे भी तूने अधर ही में छोड़ दिया। भला तेरे स्नेह-पूर्ण सान्निध्य के बिना मेरा जीवित रहना कैसे संभव हो सकेगा।

जो फल ऊँचे हैं वे हाथ नहीं लगते और ज़मीन पर पड़े हुओं को खाने की रुचि नहीं होती। इस दुविधा में भटकते-भटकते ही, हे जेठवा, यह जीवन बीत गया।

जो महँगा नग मुझे पहली बार हाथ लगा था, यदि उसकी कीमत मैं उसी समय पहिचान जाती तो अच्छा होता, पर अब मेरे जीवन का धागा कच्चे सूत की तरह उलझ चुका है।

मानसरोवर में रहकर भी यदि मैं हंस को ढूँढ़ पाई तो, हे जेठवा, बगुलों की संगति में बैठ कर भला व्यर्थ ही जीवन खोने से गया होगा।

अरण्य की ऊँची से ऊँची जगह पर चढ़कर मैं तेरे विरह में दहाड़ मार कर रोई थी पर तूने जाते समय मुड़कर देखा तक नहीं। हे जेठवा, एक बार लौट कर आजा! मैं इसी मिलन-आशा में युगों तक जीवित रहूँगी।

अपने साथी मृगों की टोली से बिछुड़ जाने वाले मृग के दुर्भाग्य की वैसे ही सीमा नहीं होती, तिस पर वह शिकारी के हाथ लगता है तो, हे जेठवा, उसका जीवित रहना भला कैसे संभव हो सकता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : जेठवे रा सोरठा (पृष्ठ 13)
  • संपादक : नारीयणसिंह भाटी
  • प्रकाशन : राजस्थानी शोध-संस्थान चौपासनी, जोधपुर
  • संस्करण : 1958

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