लंका में वानर उपद्रव (रामचंद्रिका)
la.nka me.n vaanar upadrav (raamacha.ndrikaa)
मत्त दंति पंक्ति बाजिराजि छोरि कै दई।
भाँति-भाँति पक्षिराजि भाजि भाजि कै गई।
आसने बिछावने वितान तान तूरियो।
यत्र तत्र छत्र चारु चौंर चार चूरियो॥
भगीं देखि कै शंकि लंकेश-बाला।
दुरी दौरि मंदोदरी चित्रशाला॥
तहाँ दौरि गो बालि को पूत फूल्यौ।
सबै चित्र की पुत्रिका देखि भूल्यो॥
गहे दौरि जाको तजै ता दिसा को।
तजै जा दिशा को भजै बाम ताको॥
भले कै निहारी सबै चित्रसारी।
लहै सुंदरी क्यों दरी को बिहारी॥
तजै देखि कै चित्र की श्रेष्ठ धन्या।
हँसी एक ताको तहीं देवकन्या॥
तही हाससों देव कन्या दिखाई।
गही शंक कै लंकरानी बताई॥
सु आनी गहे केश लंकेश रानी।
तमश्री मनो सूर शोभानि सानी॥
गहे बाँह ऐंचै चहूँ ओर ताको।
मनो हंस लीन्हें मृणाली लता को॥
छुटी कंठमाला लुरैं हार टूटे।
खसैं फूल फैलैं लसैं केश छुटे॥
फटी कंचुकी किंकिनी चारु छूटी।
पुरो काम की सो मनो रुद्र लूटी॥
बिना कंचुकी स्वच्छ वक्षोज राजैं।
किधौं साँचहू श्रीफलै सोभ साजैं॥
किधौं स्वर्ण के कुंभ लावण्य पूरे।
वशीकर्ण के चूर्ण सम्पूर्ण पूरे॥
किधौं इष्ट देवै सदा इष्ट ही के।
किधौं गुच्छ द्वै काम संजीवनी के॥
किधौं चित्त चौगान के मूल सोहैं।
हिये हेम के हालगोला बिमोहैं।
सुनी लंकरानीन की दीन बानी।
तहीं छाँड़ि दीन्हों महामौन मानी॥
उठ्यो सो गदा लै यदा लंकवासी।
गये भाग के सर्व साखाबिलासी॥
मस्त हाथियों तथा घोड़ों के समूहों को बंधन से मुक्त कर दिया, भाँति-भाँति के पक्षियों को पिंजड़ों से निकाल दिया। आसन और बिछावन उलट दिए, वितानों की रस्सियाँ तोड़ दीं। जहाँ-तहाँ सुंदर छत्र और चामरों को अच्छी तरह से चूर-चूर कर डाला।
रावण की रानियाँ डर कर भागीं और मंदोदरी की चित्रशाला में जा छिपीं। यहाँ आनंद से दौड़ कर अंगद पहुँचे और वहाँ के चित्रों को देख कर चकित रह गए (जान न सके कि ये चित्र हैं या सचमुच स्त्रियाँ है)।
अंगद जिस ओर दौड़कर किसी चित्रपुतली को पकड़ते हैं, उस दिशा को छोड़ मंदोदरी दूसरी ओर भाग जाती है। जिस दिशा को अंगद छोड़ देते हैं, उसी दिशा में वह भाग जाती है। समस्त चित्रसारी को अच्छी तरह से देख डाला पर किसी को पकड़ न सके। बात ठीक ही है, भला पर्वत गुफा में विहार करने वाला बंदर सुंदरी स्त्रियों को कैसे पा सकता है! आख़िर वानर ही तो ठहरा।
अंगद पहले किसी चित्र की पुतली को स्त्री समझ कर पकड़ते हैं, पुनः अच्छी तरह देख कर उसे छोड़ देते हैं। यह तमाशा देख कर वहाँ छिपी हुई एक देव कन्या हँस पड़ी, उस हास से जब अंगद को वह देवकन्या दिखाई पड़ी, तब अंगद ने उसी को पकड़ लिया। उसने डर कर मंदोदरी की तरफ़ संकेत कर दिया कि यही मंदोदरी है।
अंगद मंदोदरी के बाल पकड़ कर उसे चित्रशाला से बाहर लाए, उस समय वह ऐसी जान पड़ी मानो सूर्य किरणों से जटित अंधेरी रात हो। पुनः अंगद उसकी बाँह पकड़ कर इधर-उधर खींचते हैं, ऐसा जान पड़ता है मानो हंस पुरइन को खींच-खींच कर अस्त-व्यस्त कर रहा है।
इस समय, मंदोदरी की यह दशा हुई कि गले की कंठियाँ छूट पड़ी, हार टूट कर इधर-उधर लटकने लगे, वेणी के फूल गिर-गिरकर इधर-उधर बिखर रहे हैं, बाल छूट गए हैं, कंचुकी फट गई है, किंकिणी भी छूट गई है। ऐसा जान पड़ता है मानो शिव ने कामपुरी को लूट लिया है।
मंदोदरी के कंचुकी रहित कुच राजते हैं या सचमुच बेल फल ही शोभा दे रहे हैं। या सुंदर सोने के कलश वशीकरण के रसायन से लबालब भरे हुए हैं।
मंदोदरी उरोज रावण के इष्टदेव ही हैं, या काम-संजीवनी लता के दो पुष्पगुच्छ हैं, या देखने वालों के चितों को चौगान खेल खिलाने के मूलकारण मंदोदरी के कुच सोने की दो गेंद हैं जो देखने वालों के हृदय को विमोहित करते हैं।
जब रावण ने अपनी रानियों के रोने-चिल्लाने की दीन वाणी सुनी, तब वह अभिमानी लंकापति रावण संकल्पित मौन छोड़ कर गदा लेकर यशासन से उठ खड़ा हुआ और वानरों को मारने दौड़ा। यह देख सब वानर भाग खड़े हुए (रावण का यज्ञ-भंग हुआ)।
- पुस्तक : केशव कौमुदी (पृष्ठ 328)
- संपादक : लाला भगवानदीन
- रचनाकार : केशवदास
- प्रकाशन : राम नारायण लाल, इलाहाबाद
- संस्करण : 1947
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