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पाहुड़ दोहा- 1

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मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा- 1

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    गरू दिणयरु गुरु हिमकणु गुरू दीवउ गुरु देउ।

    अप्पापरहं परंपरहं जो दरिसावइ भेउ॥

    अप्पायत्तउ जं जि सुहु तेण जि करि संतोसु।

    परसुहु वढ चितंतहं हियइ फिट्टइ सोसु॥

    तं सुह विसयपरंमुहउ णिय अप्पा झायंतु।

    तं सुहु इंदु वि णउ लहइ देविंहि कोडि रमंतु॥

    आभुंजंता विसयसुह जे वि हियइ धरंति।

    ते सासयसुहु लहु लहहिं जिणवर एम भणंति॥

    वि भुंजंता विसय सुह हियडइ भाउ धरंति।

    सालिसित्थु जिम वप्पुडउ णर णस्यहं णिवडंति॥

    ओयइं अडवह वडवडइ पर रंजिज्जइ लोउ।

    मणसुद्धइं णिच्चलठियइं पाविज्जइ परलोउ॥

    धंधइं पडियउ सयलु जगु कम्मइं करइ अयाणु।

    मोक्खहं कारणु एक्क खणु वि चिंतइ अप्पाणु॥

    जोणिहिं लक्खहिं परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु।

    पुतकलतइं मोहियउ जाम बोहि लहंतु॥

    अण्णु जाणहि अप्पणउ घरु परियणु तणु इट्ठु।

    कम्मायतउ कारिमउ आगमि जोइहिं सिट्ठु॥

    जं दुक्खु वि तं सुक्खु किउ नं सुहु तं पि दुक्खु।

    पइं जिय मोहहिं वसि गयइं तेण पायउ मुक्खु॥

    जो परंपरा से आत्म और पर का भेद दर्शाते हैं—ऐसे गुरू ही दिनकर हैं, गुरू हिम किरण-चंद्र हैं, गुरू ही दीपक हैं और वे गुरू ही देव हैं।

    हे वत्स! जो सुख आत्मा के अधीन है, उसी से तू संतोष कर! जो पराए सुख का चिंतन करता है, उसके मन का सोच कभी नहीं मिटता।

    विषयों से परागमुख होकर आत्म-ध्यान में जो सुख होता है, वह सुख करोड़ों देवियों के साथ रमण करने वाले इंद्र को भी नहीं मिल सकता।

    विषय सुख को भोगते हुए भी जो अपने हृदय में उसको धारण नहीं करते, वे अल्पकाल में शाश्वत सुख प्राप्त करते हैं। ऐसा जिनवर कहते हैं।

    विषयसुख का उपभोग करते हुए भी जो अपने हृदय में उसको भोगने का भाव धारण करते हैं, वे नर बेचारे 'शालिसिक्ख मच्छ' की तरह नरक में जा पड़ते हैं।

    लोग आपदा के समय में अंटसंट बड़बड़ाते हैं तथा पर से रजित हो जाते हैं, उन्हें कुछ सिद्ध नहीं होता। मन की शुद्धता तथा निश्चल स्थिरता से जीव परलोक को प्राप्त करता है।

    धंधे में पड़ा हुआ सकल जगत अज्ञानवश कर्म तो करता है, परंतु मोक्ष के कारणभूत अपनी आत्मा का चिंतन एक क्षण भी नहीं करता।

    जब तक यह आत्मा बोधि की प्राप्ति नहीं करती, तब तक स्त्री-पुत्रादिक में मोहित होकर दुःख सहती हुई लाखों योनियों में परिभ्रमण करती है।

    हे जीव! जिन्हें तू इष्ट समझ रहा है—ऐसे घर, परिजन और शरीर—ये सब पदार्थ तुम्हारे नहीं हैं, उन्हें तू अपना मत जान। ये सब बाह्य जंजाल कर्मों के अधीन हैं—ऐसा योगियों ने आगम में बताया है।

    हे जीव! मोह के वश में पड़कर तूने दुःख को सुख मान लिया है और सुख को दुःख मान लिया है, इस कारण तूने मोक्ष नहीं पाया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 12)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

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