मधुमय वसंत जीवन वन के,
बह अंतरिक्ष की लहरों में;
कब आए थे तुम चुपके से
रजनी के पिछले पहरों में!
क्या तुम्हें देख कर आते यों,
मतवाली कोयल बोली थी!
उस नीरवता में अलसाई
कलियों ने आँखें खोली थीं!
जब लीला से तुम सीख रहे,
कोरक कोने में लुक रहना;
तब शिथिल सुरभि से घरणी में
बिछलन न हुई थी? सच कहना।
जब लिखते थे तुम सरस हँसी,
अपनी, फूलों के अंचल में;
अपना कलकंठ मिलाते थे
झरनों के कोमल कल-कल में।
निश्चिंत आह! वह था कितना,
उल्लास, काकली के स्वर में!
आनंद प्रतिध्वनि गूँज रही
जीवन दिगंत के अंबर में।
शिशु चित्रकार चंचलता में
कितनी आशा चित्रित करते!
अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी
जीवन की आँखों में भरते।
लतिका घूँघट से चितवन की
वह कुसुम दुग्ध-सी मधु धरा,
प्लावित करती मन अजिर रही,
था तुच्छ विश्व वैभव सारा।
वे फूल और वह हँसी रही,
वह सौरभ, वह निश्वास छना;
वह कलरव, वह संगीत अरे
वह कोलाहल एकांत बना!
कहते-कहते कुछ सोच रहे,
लेकर निश्वास निराशा की;
मनु अपने मन की बात, रुकी
फिर भी प्रगति अभिलाषा की।
ओ नील आवरण जगती के,
दुर्बोध न तू ही है इतना;
अवगुंठन होता आँखों का
आलोक रूप बनता जितना।
चक-चक वरुण का ज्योति भरा,
व्याकुल तू क्यों देता फेरी?
तारों के फूल बिखरते हैं
लुटती है असफलता तेरी।
नव नील कुंज हैं भीम रहे,
कुसुमों की कथा न बंद हुई;
है अंतरिक्ष आमोद भरा
हिम कणिका ही मकरंद हुई।
इस इंदीवर से गंध भरी,
बुनती जाली मधु की धारा;
मनु-मधुकर की अनुरागमयी
बन रही मोहनी सी कारा।
अणुओं को है विश्राम कहाँ,
यह कृतिमय वेग भरा कितना;
अविराम नाचता कंपन है,
उल्लास सजीव हुआ कितना!
उन नृत्य शिथिल निश्वासों की,
कितनी है मोहमयी माया,
जिनसे समीर छनता-छनता
बनता है प्राणों की छाया।
आकाश-रंध्र हैं पूरित से,
यह सृष्टि गहन सी होती है;
आलोक सभी मूर्च्छित सोते,
यह आँख थकी सी रोती है।
सौंदर्यमयी चंचल कृतियाँ,
बनकर रहस्य हैं नाच रहीं;
मेरी आँखों को रोक वहीं
आगे बढ़ने में जाँच रहीं।
मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी,
वह सब क्या छाया उलझन है?
सुंदरता के इस परदे में
क्या अंध धरा कोई घन है?
मेरी अक्षय निधि! तुम क्या हो,
पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें?
उलझन प्राणों के धागों की
सुलझन का समझूँ मान तुम्हें।
माधवी निशा की अलसाई,
अलकों में लुकते तारा सी;
क्या हो सूने मरु-अंचल में
अंत:सलिला की धार सी!
श्रुतियों में चुपके-चुपके से,
कोई मधु धारा घोल रहा;
इस नीरवता के परदे में
जैसे कोई कुछ बोल रहा।
है स्पर्श मलय के झिलमिल-सा,
संज्ञा को और सुलाता है;
पुलकित हो आँखें बंद किए
तंद्रा को पास बुलाता है।
व्रीड़ा है चंचल कितनी,
विभ्रम से घूँघट खींच रही;
छिपने पर स्वयं मृदुल कर से
क्यों मेरी आँखें मींच रही!
उद्भुद्ध क्षितिज की श्याम छटा,
इस उदित शुक की छाया में;
ऊषा सा कौन रहस्य लिए
सोती किरणों की काया में!
उठती है किरनों के ऊपर,
कोमल किसलय की छाजन सी;
स्वर का मधु निस्वन रंध्रों में
जैसे कुछ दूर बजे बंसी।
सब कहते हैं 'खोलो-खोलो,
छवि देखूँगा जीवन-धन की'
आवरण स्वयं बनते जाते
है भीड़ लग रही दर्शन की।
चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं,
अवगुंठन आज सँवरता सा;
जिसमें अनंत कल्लोल भरा
लहरों में मस्त विचरता सा—
अपना फेनिल फन पटक रहा,
मणियों का जाल लुटाता-सा;
उनिद्र दिखाई देता हो
उन्मत्त हुआ कुछ गाता सा।
जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा
इस मधुर भार को जीवन के;
आने दो कितनी आती है
बाधाएँ दम संयम बन के।
नक्षत्रों, तुम क्या देखोगे
इस ऊषा की लाली क्या है?
संकल्प भर रहा है उनमें
संदेहों की जाली क्या है?
कौशल यह कोमल कितना है,
सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या?
चेतना इंद्रियों की मेरी
मेरी ही हार बनेगी क्या?
पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ,
यह स्पर्श, रूप, रस, गंध भरा
मधु लहरों के टकराने से
ध्वनि में है क्या गुँजार भरा।
तारा बन कर यह बिखर रहा,
क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे!
मादकता माती नींद लिए
सोऊँ मन में अवसाद भरे।
चेतना शिथिल सी होती है,
उन अंधकार की लहरों में;
मनु डूब चले धीरे-धीरे
रजनी के पिछले पहरों में।
उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी,
स्मृतियों की संचित छाया से;
इस मन को है विश्राम कहाँ
चंचल यह अपनी माया से।
जागरण लोक था मूल चला,
स्वप्नों का सुख संचार हुआ;
कौतुक-सा बन मनु के मन का
वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ।
था व्यक्ति सोचता आलस में,
चेतना सजग रहती दुहरी;
कानों के कान खोल करके
सुनती थी कोई ध्वनि गहरी।
प्यासा हूँ मैं अब भी प्यासा,
संतुष्ट ओघ से मैं न हुआ;
आया फिर भी वह चला गया
तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।
देवों की सृष्टि विलीन हुई,
अनुशीलन में अनुदिन मेरे;
मेरा अतिचार न बंद हुआ
उन्मत्त रहा सबको घेरे।
मेरी उपासना करते वे,
मेरा संकेत विधान बना;
विस्तृत जो मोह रहा मेरा
वह देव विलास वितान तना।
मैं काम रहा सहचर उनका,
उनके विनोद का साधन था;
हँसता था और हँसाता था
उनका मैं कृतिमय जीवन था।
जो आकर्षण बन हँसती थी,
रति थी अनादि वासना वही;
अव्यक्त प्रकृति उन्मीलन के
अंतर में उसकी चाह रही।
हम दोनों का अस्तित्व रहा
उस आरंभिक आवर्त्तन सा;
जिससे संसृति का बनता है
आकार रूप के नर्तन सा।
उस प्रकृति लता के यौवन में,
उस पुष्पवती के माधव का;
मधु हास हुआ था वह पहला
दो रूप मधुर जो ढाल सका।
वह मूल शक्ति उठ खड़ी हुई
अपने आलस का त्याग किए;
परमाणु बाल सब दौड़ पड़े
जिसका सुंदर अनुराग लिए।
कुमकुम का चूर्ण उड़ाते से,
मिलने को गले ललकते से;
अंतरिक्ष के मधु उत्सव के
विद्युत्कण मिले झलकते से।
वह आकर्षण, वह मिलन हुआ,
प्रारंभ माधुरी छाया में;
जिसको कहते सब सृष्टि, बनी,
मतवाली अपनी माया में।
प्रत्येक नाश विश्लेषण भी
संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही;
ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था,
मादक मरंद की वृष्टि रही।
भुज-लता पड़ी सरिताओं की,
शैलों के गले सनाथ हुए;
जलनिधि का अंचल व्यंजन बना
धरणी का, दो दो साथ हुए।
कोरक अंकुर सा जन्म रहा,
हम दोनों साथी झूल चले;
उस नवल सर्ग के कानन में
मृदु मलयानिल से फूल चले।
हम भूख प्यास से जाग उठे,
आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में;
रति-काम बने उस रचना में,
जो रही नित्य यौवन वय में।
सुर बालाओं की सखी रही
उनकी हृत्तंत्री की लय थी;
रति, उनके मन को सुलझाती
वह राग भरी थी, मधुमय थी।
मैं तृष्णा था विकसित करता,
वह तृप्ति दिखाती थी उनको;
आनंद-समन्वय होता था,
हम ले चलते पथ पर उनको।
वे अमर रहे न विनोद रहा,
चेतनता रही, अनंग हुआ;
हूँ भटक रहा अस्तित्व लिए,
संचित का सरल प्रसंग हुआ।
यह नीड़ मोहर कृतियों का,
यह विश्व कर्म रंगस्थल है;
है परंपरा लग रही यहाँ,
ठहरा जिसमें जितना बल है।
वे कितने ऐसे होते हैं,
जो केवल साधन बनते हैं;
आरंभ और परिणामों के,
संबंध सूत्र से बुनते हैं।
ऊषा की सजल गुलाली जो
घुलती है नीले अंबर में;
वह क्या है? क्या तुम देख रहे
वर्णों के मेघाडंबर में।
अंतर है दिन औ रजनी का,
यह साधक कर्म बिखरता है;
माया के नीले अंचल में
आलोक बिंदु-सा झरता है।
आरंभ वात्या उद्गम में,
अब प्रगति बन रहा संसृति का;
मानव की शीतल छाया में
ऋण शोध करूँगा निज कृति का।
दोनों का समुचित प्रतिवर्त्तन,
जीवन में शुद्ध विकास हुआ;
प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई,
जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ।
यह लीला जिसकी विकस चली,
वह मूल शक्ति थी प्रेम कला;
उसका संदेश सुनाने को,
संसृति में आई वह अमला।
हम दोनों की संतान वही,
कितनी सुंदर भोली-भाली;
रंगों ने जिनसे खेला हो,
ऐसे फूलों की वह डाली।
जड़-चेतनता की गाँठ वही,
सुलझन है भूल-सुधारों की।
वह शीतलता है शांतिमयी,
जीवन के उष्ण विचारों की।
उसके पाने की इच्छा हो
तो 'योग्य बनो' कहती कहती;
वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा,
जैसे मुरली चुप हो रहती।
मनु आँख खोलकर पूछ रहे—
पथ कौन वहाँ पहुँचाता है?
उस ज्योतिमयी को देव! कहो
कैसे कोई नर पाता है?
पर कौन वहाँ उत्तर देता!
वह स्वप्न अनोखा भंग हुआ;
देखा तो सुंदर प्राची में,
अरुणोदय का रस रंग हुआ।
उस लता कुंज की झिल-मिल से,
हेमाभरश्मि थी खेल रही;
देवों के सोम सुधा रस की,
मनु के हाथों में बेल रही।
एक दिन मनु बैठे-बैठे कुछ सोच रहे थे कि जिस प्रकार वसंत ऋतु पतझड़ की अंतिम रात्रि के चौथे प्रहर की समाप्ति पर सुंदर सुरभियुक्त समीर के हिलोरे में प्रवाहित होती हुई चुपके से उपवन में व्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार किशोरावस्था के पूर्ण होते ही यौवन भी अचानक प्रवेश करता है और हम यह भी जान नहीं पाते कि उसने कब प्रवेश किया था। साथ ही जिस प्रकार वसंत ऋतु उपवन में चारों ओर रमणीयता ला देती है उसी प्रकार यौवन भी जीवन में मधुरता ला देता है।
मनु यौवन को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि तुम मुझे यह तो बताओ कि जब तुमने मेरे जीवन में प्रवेश किया तब क्या मतवाला सौंदर्य उसी प्रकार मुखरित हो उठा था जिस प्रकार वसंत का आगमन होते ही मतवाली कोयल लगती है।
यौवन को संबोधित कर मनु कह रहे हैं कि जैसे खेल-खेल में ही वसंत ऋतु कलियों के अंदर प्रविष्ट हो जाती है तब उन कलियों के विकसित होते ही मंद-मंद सुगंधि फैलाकर आसपास की धरती पर एक प्रकार की फिसलन अर्थात मादकता उत्पन्न कर देती है उसी प्रकार क्या तुम भी प्रेम की उमंगों से आँख मिचौनी का खेल नहीं सीख रहे थे और हृदय को आकर्षित करने वाली भावनाओं को उत्पन्न नहीं कर रहे थे?
मनु वसंत ऋतु की तुलना यौवन से करते हुए कर रहे हैं कि जिस प्रकार वसंत ऋतु के आते ही फूलों की पखुडियाँ विकसित हो उठती हैं और उनमें मधुरता-सी आ जाती है उसी प्रकार यौवनागमन के साथ ही किशोर बालाओं के अंग विकसित होने लगते हैं तथा उनमें मधुरता एवं लावण्य छा जाता है। साथ ही जिस प्रकार वन में झरनों से कोमल कल-कल ध्वनि उठा करती है उसी प्रकार यौवन काल में नवयुवतियों के कोमल कंठ से मधुर वाणी उमड़ उठती है।
मनु का कहना है कि जैसे वसंत ऋतु में कोयल का मधुर स्वर विशाल आकाश के कोने में गूँज उठता है और उसे सुनकर यही अनुमान होता है कि वह निश्चिंतता एवं उल्लास के साथ गा रही है वैसे ही यौवन काल में युवक-युवतियों का जीवन आनंद से सराबोर हो उठता है तथा उनकी सुमधुर प्रणय वाणी से उनकी आंतरिक प्रसन्नता ही झलक उठता है।
मनु सोच रहे हैं कि जिस प्रकार कोई चंचल बालक जब चित्र बनाता है तब उसके मन में जो भावनाएँ उठती है उन्हें उसी प्रकार बना देता है भले ही उसे चित्रकला का ज्ञान हो या न हो और वह उन टेढ़ी सीधी रेखाओं को ही चित्र समझता है; उसी प्रकार नवयुवतियाँ और नवयुवक भी अल्हड़तावश अनेक प्रकार के सुख स्वप्नों के काल्पनिक चित्र बनाते हैं तथा वे अपने भावी जीवन के विषय में न जाने कितनी आशाएँ करते हैं परंतु उनकी ये कामनाएँ एक प्रकार से पूर्णतः अस्पष्ट ही होती हैं।
जिस प्रकार पुष्प लताएँ पत्तों रूपी अवगुंठन को उठाकर पुष्प सदृश अपनी मादक चितवन से समस्त वातावरण में एक ऐसी मादकता सी उत्पन्न कर देती है कि उसके सामने समस्त सृष्टि का ऐश्वर्य नगण्य जान पड़ता है उसी प्रकार सुदंर नवयुवतियाँ भी जब घूँघट की ओट में अपनी मादक चितवन से ताकती है तब मन अपूर्व प्रेम रस से परिपूर्ण हो जाता है और उस एक चितवन का मूल्य विश्व के वैभव से अधिक जान पड़ता है।
जिन फूल-सी सुकुमार नवयुवतियों और उनकी मुस्कान रूपी सुमन की गंध के समान सुरभित साँसों आदि की मस्ती में मनुष्य अपने आपको खो बैठता था वह अब कुछ भी शेष नहीं रहा ओर न उनका मधुर प्रेमपूर्ण संभाषण तथा सुरीले कंठों से निकला मोहक संगीत ही सुनाई पड़ता है। इस प्रकार सर्वत्र एक प्रकार की नीरवता सी छा गई है और समस्त हलचल इस शांत वातावरण के रूप में परिवर्तित हो गई है।
मनु जब यौवन के संबंध में बहुत-सी बातों पर विचार कर रहे थे तब अचानक ही उन्हें अतीत की किसी बात का स्मरण हो आया और फिर उन्होंने निराशपूर्ण साँस ली लेकिन उनके विचारों का अंत न हुआ और वे उसी प्रकार पुन सोच-विचार में लीन हो गए।
मनु का कहना है कि संसार के लिए एक नीले पर्दे के समान पड़े हुए नीलाकाश को देखकर यह नहीं जान पड़ता कि आख़िर उसके पीछे क्या है क्योंकि अंधकार रूपी परदा सभी वस्तुओं को अपने पीछे छिपा लेता है। इतना ही नहीं प्रकाश के फैलने से भी ये सभी वस्तुएँ हमें नहीं दिख पड़ती क्योंकि प्रकाशपूर्ण पदार्थों अर्थात सूर्य, चंद्र आदि की चकाचौंध में हम आकाश से परे कुछ भी नहीं देख पाते।
मनु का कहना है कि हे नक्षत्र मंडल, तू प्रकाश से पूर्ण होकर आकाश में क्यों चक्कर लगता है और तू किसकी खोज में इस प्रकार व्याकुल होकर रातदिन चक्कर लगाता रहता है पर शायद तुझे अब तक अपनी इस खोज के रूप में तुम्हारी असफलता ही आकाश में चारों ओर बिखरी हुई दिखाई देती है।
मनु कह रहे हैं कि आकाश ऐसा प्रतीत होता है मानो कि नीली लताओं वाले कुंज परस्पर संयुक्त होकर वायु के झकोरों द्वारा इधर-उधर धूम रहे हो और काँपते हुए तारे ऐसे जान पड़ते हैं मानो कलियाँ चटख रही हो। साथ ही वायुमंडल में व्याप्त सुगंध इन्ही तारा रूपी फूलों से निकली हुई जान पड़ती है और धरती पर पड़ी ओस की बूँदें ऐसी प्रतीत होती हैं जैसे कि आकाश से मकरंद झर रहा है।
यह चंद्रमा आकाश रूपी उपवन में फूल के समान चमक रहा है और जिस प्रकार फूल अपने रस से वातावरण को मादक एवं सुगंधिमय बना देता है उसी प्रकार चंद्रमा ने भी अपनी चाँदनी का प्रकाश फैलाकर संपूर्ण प्रकृति को मादक बना दिया है। साथ ही जिस प्रकार कमल भौंरे के लिए प्रेमपूर्ण और मन को मोहने वाला बंदीगृह बन जाता है उसी प्रकार मन रूपी भ्रमर के लिए यह वातावरण आकर्षक बंदीगृह बना हुआ है।
मनु कह रहे हैं कि सृष्टि का प्रत्येक अणु मादक वातारण के कारण इतना अधिक चंचल है कि उसे विश्राम करने की आवाश्यकता ही नहीं होती और उससे यही शिक्षा मिलती है कि प्रकृति ते रात-दिन क्रियाशील रहती है जबकि मनुष्य को रात्रि में विश्राम लेने का अवसर भी मिल जाता है।
मनु अणु परमाणुओं को दिन रात चक्कर काटते हुए देखकर यह कल्पना करते है कि जिस प्रकार कोई नर्तकी नाचते-नाचते थक जाती है और उसकी साँस न केवल दर्शकों को अत्यंत आकर्षक प्रतीत होती है अपितु वह दर्शकों को आनंद भी प्रदान करती है, उसी प्रकार इस सुनसान रात्रि में निरंतर नृत्य करने वाले अणु परमाणुओं में आकर्षण भरा हुआ है तथा यह मद-मद गति से प्रवाहित होने वाली वायु मेरे व्याकुल प्राणों को अत्यंत शीतलता प्रदान करती है।
मनु का कहना है कि आकाश में बिखरे हुए ये तारे नहीं हैं बल्कि आकाश के छिद्र हैं जिसमें कि उज्ज्वल प्रकाश भरा हुआ है और यही कारण है कि सृष्टि का वातावरण भी गंभीर सा जान पड़ता है। साथ ही जितने भी प्रकाशवान सूर्य आदि विशाल नक्षत्र हैं वे सब मूर्छित से ही सो रहे हैं और मेरी आँखें इनके रूप को देखते-देखते थक गईं परंतु इतने पर भी तृप्त नहीं हुई और रोती सी जान पड़ती हैं।
मनु कहते है कि सुंदरता की ये विभूतियाँ आज मेरे नेत्रों के सामने एक अद्भुत रहस्य बनकर क्रीड़ा करने में मग्न हैं। साथ ही ये विभूतियाँ इतनी मनोहर हैं कि मेरी आँखें उन्हीं पर टिकी हुई हैं तथा आगे नहीं बढ़ पाती अर्थात दृष्टि उन्हें वेध सकने में असमर्थ है।
मनु कह रहे हैं कि मैं जो कुछ देख रहा हूँ वह सब सत्य है या किसी की छाया मात्र अर्थात सृष्टि से व्याप्त यह सुंदरता वास्तविक है या फिर इसके आवरण के भीतर कोई अन्य वस्तु है जो अत्यधिक महान है? मनु का कहना है कि क्या मैं कभी इस बात को न जान पाऊँगा कि आख़िर वह गूढ़ सत्ता क्या है।
मनु अनंत सत्ता को संबोधित कर कह रहे हैं कि वह वसंत की मायावी रात्रि के जानस्वपूर्ण बादलों में छिपने वाले ताराओं के सामान है या फिर हृदय रूपी शून्य मरुस्थल में बहने वाली नदी के समान है जिसकी अनुभूति मात्र होती है पर जो दिखाई नहीं देती। ‘वस्तुत कभी-कभी की आंतरिक अभिलाषा का पना बाहर से नहीं चल पाता अंत मनु ने यहाँ स्वाभाविक ही अंत सत्ता की उपमा बादलों के हट जाने पर बारे दीप पड़ते है तथा रेगिस्तान की ऊपरी भूमि हटने पर ही जल की धारा प्रत्यक्ष हो होती है उसी प्रकार साधाना करने में अत्यक्त विराट सत्ता का ज्ञान भी संभव है।’
मनु कह रहे हैं कि यद्पि चारों ओर निर्जनता सी है ओर आस-पास कोई भी नहीं है पर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कोई कानो में अत्यंत कोमल भुवर वाणी में धीरे-धीरे कुछ कह रहा है और इसके फलस्वरूप मेरे हृदय में मधुर भावनाएँ उत्पन्न हो रही है। मनु ने इन पंक्तियों में अपने हृदय को ही नीरव वातावरण मान लिया है और उनका कहना है कि मेर समझ में यह नहीं आता कि वह कौन-सी अव्यक्त सत्ता है इतनी व्यथा के पश्चात मेरे हृदय को रसस्वावित कर रही है।
मनु अपनी दशा का वर्णन करते हुए कह रहे है कि मुझे समझ में नहीं आता है कि आख़िर वह कौन सी अव्यक्त सत्ता है जिसका स्पर्श मुझे उसी प्रकार सुख प्रदान करता है जिस प्रकार मलय पवन के स्पर्श से आनंद प्राप्त होता है। साथ ही इस स्पर्श से मेरी चेतना भी कुछ-कुछ शिथिल सी हो जानी है और पुलकित होने के कारण मेरे नेत्र आलस्यपूर्ण हो बंद से हो रहे हैं तथा मुझे हल्की सी नींद आ रही है।
मनु का कहना है कि मुझे ऐसा आभास होता है कि वह अव्यक्त सत्ता मेरे साथ कुछ खिलवाड़-सा कर रही हैं क्योंकि उसके कारण मेरी स्थिति उस लजीलो चंचल नायिका के समान हो जाती है जो अपने प्रियतम को देखते ही चौंक घूँघट डाल लेती है परंतु फिर वही प्रियतम के पीछे से छिपकर उसकी आँखें भींच लेती है अर्थात आँखों को आती कोमल उँगलियों से ढँक लेती है। वस्तुत कवि ने पंक्तियों में एक ऐनी चंचल लजीली नायिका का चित्रण किया है जो कि अपने प्रियतम को देख स्वयं घूँघट डाल लेती है परंतु वाद में वह प्रियतम के पीछे छिपकर अपने कोमल हाथों से उसकी बंद कर लेती है तथा उसका प्रियतम की उसे देख नहीं पाता लेकिन उसके स्पर्श से पुलकित हो उठता है। इस प्रकार मनु ने यहाँ यही कहना चाहा है कि उनके मन की चंचल वृत्ति उसी नायिका के समान है जो स्वयं अपना मुख छिपा लेती है, जिसने कि वे उसे देख न सकें अर्थात मन की चंचल वृत्ति उनके साथ खिलवाट-सा करती रहती है और अपने आपको अप्रकट रख उनसे छेड़छाड़ करती है। इसका परिणाम यह होता है कि उनके रोम-रोम में सिहरन सी उठने लगती है और वे उसे देख तो पाने नहीं परंतु उसका स्पर्श उन्हें व्याकुल कर देता है।
मनु का कहन है कि यद्यपि क्षितिज का अंधकार हल्का पड़ गया है परंतु उपा के प्रकाश के मध्य जो नीली रेखा सी दीख पड़ती है उसे देख विभिन्न भावनाएँ सी मन में उठती हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि मानो शुक्र नक्षत्र की कालिमा किरणों से आच्छावित सी है तथा उषा का रहस्य अपने अतंर में छिपाए सो रही है अर्थात इस कालिमा के हटते ही उपमा अपना समस्त वैभव सँवारे प्रकट हो जाएगी। यहाँ यह स्मरणीय है कि आकाश के अंधकार के मध्य ही उषा प्रकट होती है अंत कवि ने उसे उस अंधकार में सोया हुआ बतलाया है और वह यह भी कहना चाहता है कि क्षितिज की शोभा में उदित शुक्र की छाया में शुभ्र किरणों में लिपटी हुऊ उपा न जाने कौन सा रहस्य अपने में छिपाए हुए है।
मनु कह रहे है कि आकाश मंडल पर छाई हुई यह कालिमा अर्थात काली घटा ऐसी प्रतीत होती है मानो कि वह कोमल नवीन पंक्तियों का कोई छप्पर हो और उसने टकराकर सुंदर सुरक्षित समीर मधुर ध्वनि छेड़ रही हो जिसे सुनकर ऐसा जान पड़ता है कि मानो कुछ दूरी पर बाँसुरी बज रही हो।
मनु का कहना है कि इन सबको अर्थात सूर्य, चंद्र और नक्षत्रों को देखकर ऐसा जान पड़ता है कि मानो ये सब उस अव्यक्त सत्ता को देखने के लिए आकुल है तथा ऊँची ध्वनि से पुकार-पुकार कर रहे हैं कि हम अपने जीवन-धन अर्थात परमात्मा के दर्शन करना चाहते हैं कि हम अपने जीवन-धन अर्थात परमात्मा के दर्शन करना चाहते हैं। अतएव उस अव्यक्त विभूति पर पड़े हुए पर्दे को हटाया जाए जिससे कि हमें उसके दर्शन सहज ही प्राप्त हो सकें। मनु कह रहे हैं कि उश आवरण का हटना तो दूर रहा बल्कि दर्शन करने वाले जितना ही चिल्लाते हैं उतना ही अधिक गहरा आवरण उस अनत विभूति पर चढता चला जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि दार्शनार्थियों की भीड़ ही उस अनत विभूति का पर्दा बन जाती है और वे दूसरों की दृष्टि के लिए स्वयं एक आवरण बना जाते है।
मनु कह रहे हैं कि उस आनत विभूति का सुंदररूप तभी दीख पड़ता है जबकि उस पर पड़ा हुआ अवगुँठन चाँदनी के समान विखर कर खुल जाए अर्थात चाँदनी का जो घूँघट आकाश रूपी सागर के समान पवन हिलोरो के असीम आनंद में मग्न सा हो मस्ती के साथ डोल रहा है वह यदि किसी प्रकार खुल जाए तभी उस अज्ञात शक्ति के दर्शन सुलभ हो सकते हैं। मनु का कहना है कि चाँदनी का यह घूँघट कभी-कभी तो शेष नाग के फन सदृश्य जान पड़ता है और ऐसा प्रतीत होता है कि बार-बार फन पटकते से जिम प्रकार मणियाँ बिखर उठती हैं उसी प्रकार चाँदनी रूपी घूँघट के बार-बार हिलने के कारण ही ये तारे आकाश पर बिखरे पड़े है। इस प्रकार इन पंक्तियों में चाँदनी के घूँघट को शेषनाग का फन माना गया है और तारो को मणि राशि।
मनु कहते हैं कि बार-बार उस अवुगठन के हिलने से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वह अनंत विभूति मादकतापूर्ण हो हिलोरें ले रही हो और वायु के प्रवाहित होने से जो मधुर ध्वनि सुनाई देती है वह ऐसी प्रतीत होती है जैसे कि उस अवगुठन के अंदर छिपे हुए रमणीय मुख की शोभा गीत गा रही हो। इन पंक्तियों से यह अर्थ भी ग्रहण किया जा सकता है कि कवि उस अव्यक्त शक्ति को सागर के समान मानता है और उसका कहना है कि सत्य का आवरण हट जाने पर हमें उस अनत विभूति को ऐसा समुद्र दीख पड़ेगा जिसमें अनत आनंद विद्यमान है और जो अपनी ही लोल लहरों में मग्न है। साथ ही वे लहरें फेनिल हैं और उनमें रत्नों के समूह के समूह है।
मनु कह रहे हैं कि चाहे कुछ भी परिणाम क्यों न हो पर अब मैं अपने जीवन के इस मधुर भार को अपने मानस से अलग नहीं कर सकता और न उसका अपमान ही कर सकती हूँ। कहने का अभिप्राय यह है कि मनु के हृदय में जो एक प्रकार की मधुर कसक सी उठ रही है उसे वे अपने हृदय से अलग न होने देंगे और जानते हुए भी कि इससे कारण अनेक वाधाएँ उपस्थित होगी तथा रह रहकर यह भावना भी उत्पन्न होगी कि इस मनोवृत्ति का दमन कर समयपूर्वक जीवन व्यतीत किया जाए, पर वे अब इन सब बाधाओं की तनिक भी चिंता न करेंगे। मनु का कहना है कि वे इन भावनाओं को अपने प्रेम पथ की बाधा समझ कर उन्हें मार्ग से हटा देंगे और किसी भी प्रकार विचलित न हो प्रेम पथ पर आगे बढ़ते रहेंगे।
मनु नक्षत्रों को संबोधित कर कहते हैं कि हे नक्षत्रों, तुम भला यह कैसे जान सकते हो कि उषा की लालिमा में क्या सौंदर्य होता है क्योंकि तुम तो अंधकार में ही उदय होते हो और उषा काल के समय तक तो तुम छिप जाते हो। वस्तुत नक्षत्र यहाँ भाव का प्रतीक है और उषा की लाल प्रेम भावना की द्योतक है अंत इन दोनों प्रतीको के आश्रय से मनु ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि उनकी यही तीव्र अभिलाषा है कि किसी भी प्रकार प्रेमानुभूति की जाए।
मनु का कहना है कि विधाता की यह कैसी सूक्ष्म चतुरता है कि हम सौंदर्य के रहस्य को जान ही नहीं पाते और इस प्रकार सुंदर के रहस्य को समझना अत्यंत भी सकूँगा या नहीं और जीवन भर क्या उससे अपरिचित ही रहूँगा। साथ ही सौंदर्य की ओर आकृष्ट करने वाली मेरी इंद्रियाँ ही क्या मुझे जीवन में असफल कर देंगी अर्थात जिन इंद्रियों ने मुझे सुंदरता की ओर आकर्षित किया है क्या वे कभी भी मुझे सुंदरता का रहस्य न समझने देंगी?
काम भावना से व्यथित हो मनु कह रहे हैं कि मैं अब शरीर रूपी पात्र में भरे हुए इस जीवन-रस को, जो कि स्पर्श, रूपी रस का पान कर रहा हूँ अर्थात पाँचों ज्ञानेंद्रियों के प्रभाव की अनुभूति करने से उन सब की मधुरिमा में लीन हो इन्ही तत्वों से बने जीवन रूपी रस का पान कर रहा हूँ। साथ ही मनु यह भी कहते है कि मेरे कान इसे भली भाँति जान गए हैं कि समुद्र के किनारे से जब लहरें टकराती हैं तब उस ध्वनि में कितनी मादकता छिपी होती है अर्थात हृदय रूपी सागर में जब मधुर भावनाएँ उठती है तब वे स्वाभाविक ही एक प्रकार के विलक्षण आनंद की सृष्टि करती हैं।
मनु कह रहे हैं कि अंतरिक्ष में जिस प्रकार असंख्य तारे बिखरे हुए हैं उसी प्रकार मेरे हृदय में भी अनेक भावनाएँ उठ रही हैं और मेरे नेत्रों के सम्मुख मादक स्वप्नों का वैभव सा छा गया है तथा सारा शरीर शिथिल सा होता जा रहा है। मनु का विचार है कि ऐने मुख्य वातावरण में उनके लिए दुख में निमग्न रहना उचित न होगा।
कवि कहता कि अंधकार को सघनता होने पर मनु की चेतना आलस्ययुक्त हो गई और उन्हें नींद सी आने लगी तथा रात्रि की अंतिम वेला में मनु गहन निद्रा में मग्न हो गए। यहाँ यह स्मरणीय है कि जिस प्रकार समुद्र में गिरने से मनुष्य की चेतना शिथिल हो जाती है उसी प्रकार रात्रि का अंधकार बढ़ने पर मनु भी निद्रा में निमग्न होने लगे और उनका शरीर चेतना शून्य होने लगा।
वास्तव में मानव मन तो चलायमान ही है और उसे निद्रा में भी विश्राम नहीं रहता अंत मनु के मन को भी निद्रा से विश्राम नहीं है तथा वह अपने स्वभाव के अनुकूल ही चंचल है अर्थात कार्यरत है। इस प्रकार शनै-शनै मनु के मन में स्मृतियों ने उनके मन में एकत्र होकर अपना एक अलग संसार उसी प्रकार बना लिया जिस प्रकार कि दूर क्षितिज के एक कोने में काली-काली घटाएँ एकत्र होकर अपना अलग संसार बना लेती हैं।
कवि का कहना है कि निद्रित अवस्था में मनु शनै-शनै इस जागरण लोक की भूल गए और उन्हें प्रत्यक्ष जगत का तनिक भी ज्ञान न रहा तथा वे सुखद कल्पनाओं द्वारा दूसरे ही जगत में जा पहुँचे। इसका अभिप्राय यह है कि मनु को अब सुखमय स्वप्न दीख पड़ने लगे और ये सुखमय स्वप्न उनके लिए एक आश्चर्य के समान ही थे तथा उनका मान सुखपूर्ण कल्पनाओं की क्रीडागार हो तथा अर्थात उनके मन में ये स्वप्न विविध स्मृतियों के खेलने के स्थान बन गए। कवि का कहना है कि इस आलस्यपूर्ण स्थिति में विचार करते समय मनुष्य की चेतना अधिक सजग रहती है अंत मनु उस निद्रा की अवस्था में भी कुछ सोच रहे हैं और उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो किसी की अत्यंत स्पष्ट वाणी उनके कानों में गूँज रही है।
काम कह रहा है कि यद्यपि देवों ने मेरी बहुत अधिक पूजा की है और वे दिन-रात मेरी ही उपासना में लीन रहते थे परंतु इतने पर भी मैं अभी तक प्यासा हूँ और अभी तक तृप्त न हो सका। काम कहता है कि देवताओं के जीवन में भोग-विलास की बाढ़ आई और वह उतर भी गई परंतु मेरी प्यास शांत न हुई।
काम का कहना है कि देव जाति रात-दिन मेरा चिंतन करने से ही अर्थात मुझसे ही लीन रहने से नष्ट हो गई लेकिन उन पर मेरा जो प्रभाव था वह कम न हुआ। इस प्रकार मैं मतवाला होकर देवी के हृदय में वासना जाग्रत करता और मेरी यह अनुचित कार्यवाही अंत तक बंद न हुई तथा सखी देवता वासना में डूबे रहे।
काम का कहना है कि देवतागण नित्य प्रति मेरी ही उपासना करते थे और वे मेरे आकर्षण में इतना अधिक फँस गए थे कि हमेशा मेरे ही इशारों पर नाचते रहते तथा मेरा जो भी संकेत होता वही उनका अंखड नियम वन जाता था। काम का कहना है कि मेरे प्रति अत्यधिक आकर्षण दे देव जाति में विलास भावना की अधिकता सी कर दी और स्वच्छ भोग को ही अपने जीवन में विशेष स्थान दिया।
काम कह रहा है कि मैं ही देवताओं के जीवन में हमेशा साथी रहा और में ही उनके मनोरंजन का एक मात्र साधन भी था। यद्यपि मैं उनकी मूर्खता पर हँसता था परंतु वे वासना में लीन था। काम का कहना है कि मेरे प्रति अत्यधिक आकर्षण ने देव जाति में विलास भावना की अधिकता सी कर दी और स्वच्छंद भोग को ही अपने जीवन में विशेष स्थान दिया।
काम कह रहा है कि मैं ही देवताओं के जीवन में हमेशा साथी रहा और मैं ही उनके मनोरंजन का एक मात्र साधन भी था। यद्यपि मैं उनकी मूर्खता पर हँसता था परंतु वे वासना में लीन रहकर हमेशा प्रसन्न रहते। काम का विचार है कि मैं ही देवताओं के जीवन में गति उत्पन्न करता अर्थात उनके जीवन में जो भी क्रियात्मकता थी वह मेरे ही कारण थी।
काम कह रहा है कि रति ही अनादि इच्छा है और सृष्टि के सृजन में भी मूलत यही रति वर्तमान थी तथा इसी के कारण प्रेमी-प्रेमिकाओं के हृदय में एक दूसरे के प्रति आकर्षण उत्पन्न होता था। इस प्रकार यही रति देवागनाओं के हृदय में स्थायी वासना का रूप धारण कर उनमें मधुरिमा उत्पन्न कर रही थी अर्थात भोग विलास के लिए उन्हें प्रवृत कर रही थी।
काम का कहना है कि सृष्टि के आरंभ में हम दोनों अर्थात काम और रति को सत्ता उस आवर्त्तन के समान थी जिससे सृष्टि के विविध रूपों का निर्माण हुआ करता है। इस प्रकार यहाँ कुम्हार के चक्र को चलाता हुआ मिट्टी से विविध प्रकार के वर्तन आदि बनाता है उसी प्रकार काम और रति की प्रेरणा से ही प्रारंभ में सृष्टि का विकास हुआ।
काम का कहना है कि वसंत के आगमन पर जिस प्रकार लताएँ फूलों से आच्छादित हो जाती हैं उसी प्रकार प्रकृति रूपी लता जब अपनी यौवनावस्था ने थी अर्थात उसका मधुर विकास हो रहा था तब हम दोनों-काम एवं रति से-पुरुष और नारी के दो रूप निर्मित किए।
काम कह रहा है कि सृष्टि के आरंभ में ही मूल शक्ति अपने आलस्य को छोड़ तीव्र उत्साह के साथ सृष्टि निर्माण के लिए तत्पर हो गई। उस समय शून्य में बिखरे हुए समस्त छोटे-छोटे परमाणु उसके आकर्षण से खिंचकर उससे लिपटने को मंचल उठे।
काम कह रहा है कि जब सृष्टि के आरंभ में सभी छोटे-छोटे परमाणु मूल शक्ति की प्रेरणा से मिलने के लिए आतुर हो उठे उस आभास होता था कि मानो केमर का चूर्ण ही चारों ओर उड़ रहा है और आकाश में वसंतोत्सव मनाया जा रहा है।
काम का कहना है कि मूल शक्ति के प्रति परमाणुओं के आकर्षण और उनके सयोग की ही भाँति उन दोनों रूपो अर्थात पुरुष एवं नारी का आकर्षण और संयोग भी मधुर वातारण में हुआ। इस प्रकार सृष्टि ना न केवल विकास हुआ अपितु सृष्टि करने अपने ही आकर्षण में मतवाली बन गई।
काम मनु से कह रहा है कि सृष्टि का विकास होने से पूर्व प्रत्येक नष्ट पदार्थ के जो अणु-परमाणु विद्युत्कणों के रूप में इधर-उधर बिखरे हुए थे वे सब एकत्र होने लगे और सृष्टि निर्माण का कार्य आरंभ हो गया। उस समय ऐसा प्रतीत होता या कि मानों ऋतुराज वसंत के यहाँ फूलों का उत्सव मनाया का रह है और उन फूलों से जो मकरंद झर रहा है उसने समस्त प्रकृति को रसमय कर रखा है।
काम का कहना है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही युग्म भावना उत्पन्न हो गई थी अर्थात चेतन प्रकृति की भाँति पुरुष और नारी का युग्म जब प्रकृति में भी स्थापित हुए। इसका परिणाम यह हुआ कि जड़ प्रकृति में भी प्रेम भावनाओं का प्रसार हुआ और पर्वत के गले में नदियों ने अपनी मुजलताएँ डाल दी तथा सागर भी धरती को पखा झलने लगा। इस प्रकार काम ने यहाँ सरिता अर्थात नदी और धरती को नायिका तथा पर्वत और सागर को नायक मानकर यह स्पष्ट करना चाहा है कि संपूर्ण जड़ प्रकृति भी प्रेमालाप में मग्न है।
काम कह रहा है कि संसार का जन्म कली के अंकुर के समान था और जिस्म प्रकार कली का अंकुर बहुत छोटा रहता है तथा बड़े होने पर वह कली का रूप धारण कर वाद में फूल के रूप में सर्वत्र अपनी सुग्ध बिखेरता है उसी प्रकार की दशा इस सृष्टि की भी हुई और वह भी फूल के समान वैभव तथा यश से सुशोभित जान पड़ने लगी। काम कहता है कि हम दोनों अर्थात रति और काम भी सृष्टि के विकास के साथ-साथ स्वयं भी विकसित होते रहे तथा उस नूतन संसार रूपी वन में मलय पवन की भाँति सुख, शीतलता और आनंद बिखेरेते हुए हर्ष-विभोर हो संचरित होने लगे।
काम का कहना है कि भूख और प्यास के समान ही सबको हमारी अर्थात रति और काम की आवश्यकता प्रतीत हुई तथा हम भी सबको स्वाभावविक ही प्रिय जान पड़ते लगे और हमने सभी के हृदय में उठने वाली इच्छाओं को तृप्त किया। इसका अभिप्राय यह है कि काम और रति ने पहले तो सृष्टि के प्राणियों के हृदय में इच्छाएँ उत्पन्न की तथा बाद में उन्हें तृप्त भी किया और कामना पूर्ति कमे साधना भी बतलाए। इस प्रकार अब दोनों का नाम काम और रति पड़ गया तथा काम और रति पड़ गया तथा काम इच्छाएँ उत्पन्न करता और रति उसकी तृप्ति करती।
काम कह रहा है कि रति देवबालाओं की सखी बनकर उनके हृदय में बस गई और वह उनकी हृदय वीणा के सुर मिलाती रहती थी अर्थात उनके अनुकूल ही बातें करती और जैसा वे चाहती वैसा ही करती। इस प्रकार सुंदर, माधुर्यपूर्ण एवं प्रेमयुक्त होने के कारण रति देवागनाओं के हृदय में प्रेम भावनाएँ उद्दीप्त करने लगी और वह उन्हें अत्यधिक आकर्षक भी प्रतीत थी।
काम का कहना है कि जिस प्रकार रति देवबालाओं के मन में प्रेम भावना बढ़ा रही थी उसी प्रकार मैं भी देवीके हृदय में असंख्य इच्छाओं को जन्म देता और उनकी तृष्णा को तीव्र करता। इस प्रकार जब देव जाति व्याकुल हो उठती तब राति उन्हें तृप्ति का साधन बताती अर्थात वह उन्हें भोग विलास के लिए प्रेरित करती और हम दोनों अर्थात काम और रति देव जाति को आनंद प्रदान कर उन्हें अपने इच्छित मार्ग पर ले जा रहे थे।
काम कह रहा है कि हम दोनों अर्थात रति और काम देवजाति का मनोरंजन कर उन्हें अपने इच्छित मार्ग पर ले जा रहे थे परंतु जल प्रलय के कारण सब कुछ नष्ट हो गया। इस प्रकार न तो अब वह देव जाति ही रही और न उनका भोग विलास ही बचा तथा उनके साथ-साथ मेरा शरीर भी नष्ट हो गया और मेरा नाम अब अनग पड़ गया लेकिन मुझ में अभी भी चेतना अवशिष्ट है। अतएव मैं शरीर रहित होकर अपने संचित कर्मों के अनुसार ही अपनी सत्ता के लिए इधर-उधर भटक रहा हूँ।
काम का कहना है कि संसार एक प्रकार का कर्मक्षेत्र है और इसमें सुंदर कार्य करने वाले पुरुष ही सफल होते हैं। साथ ही इस संसार में कोई भी अधिक समा तक नहीं रह पाता। और यहाँ आना-जाना तो लगा ही रहता है तथा जिसमें जितनी शक्ति होगी वह उतनी ही देर यहाँ रुक सकेगा। यहाँ यह स्मरणीय है कि पंक्तियों में सृष्टि या समार की उपमा घोंसले में दी गई है और काम का कहना है कि जिस घोंसले की शोभा सुंदर पक्षियों से होती है उसी प्रकार वह यह भी कहता है कि निर्बल व्यक्तियों के लिए यह संसार नहीं है क्योंकि यहाँ शक्तिशाली ही अधिक देर तक टिक सकता है।
काम कह रहा है कि इस संसार में शक्तिशाली पुरुष अपनी कार्य सिद्धि के लिए कितने ही व्यक्तियों को अपना साधन बना लेते हैं और बहुत से ऐसे मनुष्य भी हैं जिनका जन्म दूसरो की इच्छा पूर्ति के लिए ही होता है तथा आरंभ से अन्न तक उनके जीवन का स्वयं कुछ भी महत्व नहीं होता बल्कि दूसरो के इंगितो पर ही वे अपना समस्त जीवन व्यतीत कर देते हैं। जिस प्रकार पपड़ा बनते समय धागों का छुटकारा तब तक नहीं होता जब तक कि वस्त्र पूरा न बुन जाए उसी प्रकार जब तक उन व्यक्तियों से कार्य सिद्धि न ही जाए सब तक उन्हे छुटकारा भी नहीं मिलती और प्रक्तिशाली व्यक्ति सहज ही उनसे अपना अमीष्ट साधन कर लेते है।
काम मनु को संबोधित कर कह रहा है कि क्या तुम यह बतला सकते हो कि इस नीले आकाश में जो उषा अपनी लालिमा चारों और फैलाए हुए है क्या है और इसी प्रकार संध्या समय जो रंग-बिरंगे बादल बिखरे हुए हैं उनके भीतर क्या रहस्य है। काम का कहना है कि इन दोनों के मध्य केवल दिन और रात्रि का अंतर है तथा पहले को उपा काल कहा जाता है और दूसरे को संध्याकाल। पर यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो यहाँ भी कर्म की साधना ही दीख पड़ती है। काम कह रहा है कि उपा काल में रात्रि समाप्त होती है तथा दिन प्रारंभ होता है और उपाकाल का समय दिन-रात का अंतर स्पष्ट करता है। साथ ही यह लालिमा फैली हुई है वह फल देने वाले कर्म है और यह कर्म नीलाकाश के नीचे प्रकाश बूँद के समान बिखर जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार उषा की लालिमा रात्रि को समाप्त कर दिन का प्रारंभ कर देती है उसी प्रकार कर्म का आवेग भी निराशा रूपी अंधकार को दूर कर ऐश्वर्य और बल की वृद्धि करता है अंत उषा की लाली कर्म के समान है। इसी प्रकार यह सृष्टि माया का आंचल है जिसमें कि कर्म प्रकाश की बूँद के समान बिखर कर अपना प्रकाश सर्वत्र फैला देता है।
काम का कहना है कि जिस प्रकार सर्वप्रथम शून्य आकाश से पवन का जन्म होता है उसी प्रकार संसार में सबसे पहले मैं ही उत्पन्न हुआ हूँ और मुझसे ही संपूर्ण सृष्टि भी उत्पन्न हुई है तथा मैं ही इस नवीन सभ्यता के विकासरम्भ का प्रेरक भी हूँ। काम कह रहा है कि अभीतक मैं देवताओं के आश्रय में रहा अंत इसका परिणाम यह हुआ कि देव जाति ही नष्ट हो गई और उनके विनाश के कारण मुझ पर सृष्टि को प्रगति पथ पर बढ़ाने का ऋण स्वाभाविक ही चढ़ गया अंत अब मैं मानवीय संस्कृति की छाया में रहकर वह ऋण उतारता चाहता हूँ।
काम का कहना है कि जीवन की शुद्धता और विकास वास्तव में वामना और समय के उचित अनुपात पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार यदि दोनों का उचित रूप से उपयोग किया जाए तो निश्चय ही जीवन विकास को प्राप्त होगा परंतु यह बात पहले ज्ञात न थी और प्रलय के कारण जो स्थिति हुई है उससे अब यह स्पष्ट हो गया है कि भोग विलास का तांडव नृत्य सृष्टि का विनाश कर देता है। काम कहना है कि हम दोनो अर्थात रति और काम का सयमपूर्वक लौट आना ही उनके जीवन में पवित्र उन्नति का द्योतक है और इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अब हमारा जीवन पवित्र हो गया है।
काम मनु से यह कह रहा है कि जिस आदि शक्ति से सृष्टि का विकास हुआ है और जिसे जानने के लिए तुम उत्सुक हो वह और कुछ नहीं प्रेम ही है तथा उसकी लीला का विकास ही चारों ओर इस सृष्टि के रूप में हो रहा है। उसी प्रेम का मधुमय संदेश सुनाने के लिए ही इस सृष्टि में उस पवित्र श्रद्धा का आगमन हुआ है जिसने कि तुम्हें भी कर्मक्षेत्र में प्रवृत्त होने की प्रेरणा दी है।
काम श्रद्धा का परिचय देते हुए कहता है कि तुम्हारा समक्ष आत्म समर्पण का प्रस्ताव करने वाली श्रद्धा हम दोनो की अर्थात रति और मेरी ही संतान है। साथ ही वह सुंदर और भोली भाली भी है तथा उसे देखने से यही प्रतीत होता है कि वह मानो रंग-बिरंगे फूलों से लदी हुई कोई डाली हो।
काम का कहना है कि श्रद्धा जड़ प्रवृत्ति जगत दोनो को एक सूत्र में आवद्ध करने वाली है तथा उसके प्रेम में प्रकृति भी अनुरागमयी जान पड़ती है। साथ ही वह (श्रद्धा) भूलो को सुधारती हुई जीवन में आनंद का संचार करती है। इस प्रकार इन पंक्तियों में श्रद्धा का महत्व स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह क्षोम और कटुता आदि भावनाओं को दूर कर प्राणी मात्र को शीतलता और संतोष प्रदान करती है।
कवि कह रहा है कि काम की वह मधुर वाणी इतना कहते-कहते कि ‘यदि तुम उसे प्राप्त करता चाहते हो तो उसके योग्य बनो’ शांत हो गई और उस समय मनु को ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो अभी तक कोई मधुर मुरली बज रही हो जो कि एकाएक अब शांत हो गई है।
कवि कह रहा है कि मनु तो अभी तक निद्रित अवस्था में ही थे अंत जैसे ही काम की वाणी मौन हुई, उन्हें अचानक चेतना सी आई अब चारों ओर देखने हुए यह पूछने लगे कि आख़िर श्रद्धा के पास पहुँचने का रास्ता कौनसा है और कोई भी व्यक्ति उसे कैसे प्राप्त कर सकता है? कवि का कहना है कि मनु के प्रश्नों का उत्तर देने वाला वहाँ कोई भी न था। उनका स्वप्न अब समाप्त हो चुका था और वे वास्तविक्ता की स्थिति में पहुँच गए थे। इस प्रकार जब उनकी दृष्टि ऊपर उठी तो उन्होंने देखा कि पूर्व टिका में सूर्योदय हो रहा है और शनै-शनै आकाश में लालिमा फैन रही है।
कवि का कहना है कि मनु की गुफ़ा के द्वार पर फैली हुई सोमलताओं से झिलमिलाता हुआ सूर्य का सुनहरा प्रकाश आ रहा था और सूर्य की ये सुनहरी किरणें ऐसा जान पड़ती थीं कि मानो वे भी क्रीड़ा मग्न हो। कवि कह रहा है कि प्रभात की सुंदर बेला में मनु गुफा के द्वार पर आए और उन सोमलताओं को पकड़ कर खड़े हो गए जिनमें से देवो को अर्पित करने के लिए अमृत के समान मधुर और शक्तिदायक सोमरस निकाला जाता था।
- पुस्तक : कामायनी (पृष्ठ 61)
- संपादक : जयशंकर प्रसाद
- रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
- प्रकाशन : भारती-भंडार
- संस्करण : 1958
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