अति निकट गोदावरी पाप संहारिणी। चल तरंग तुंगावली चारु संचारिणी॥
अलि कमल सौगंध लीला मनोहारिणी। बहु नयन देवेश-शोभां मनो धारिणी॥
रीति मनो अविवेक की थापी। साधुन की गति पावत पापी।
कंजन की मति सी बड़ भागी। श्रीहरि मंदिर सो अनुरागी॥
निपट पतिव्रत धरणी। मगजन को सुखकरणी॥
निगति सदा गति सुनिये। प्रगति महापति गुनिये॥
विषमय यह गोदावरी अमृत के फल देति।
केशव जीवनहार को दुःख अशेष हरि लेति॥
पंचवटी के निकट ही पाप-नाशिनी गोदावरी नदी भी है, जो चंचल और ऊँची तरगों की सुंदर पंक्तियों सहित सदा बहती है तथा भौरों सहित सुगंधित कमलों की लीला से मन को हरती है। ऐसा जान पड़ता है मानो यह गोदावरी बहुलोचन इंद्र की शोभा धारण किए हुए है अर्थात इंद्र के शरीर में बहुत से नेत्र हैं वैसे ही इस गोदावरी में भ्रमर युक्त असंख्य कमल है।
गोदावरी ने अविवेक की रीति चला रखी है कि पापी भी साधु की गति पाता है (जो पापी स्नान करता है वह बैकुंठ को जाता है) यह गोदावरी बड़भागी ब्रह्मा की मति के समान श्रीहरि-मनि में अनुराग रखती है वैसे ही यह गोदावरी भी बैकुंठ की ओर बहा करती है।
यह गोदावरी अत्यंत पतिव्रता है और रास्ता चलते लोगों को सुख देती है। पापियों को सदा सुगति बैकुंठ देती है, पर निजपति समुद्र को महा अगति से ही रखती है (यानी समुद्र सदैव समभाव से स्थिर ही रहता है, गतिवान नहीं होता)।
यह सजला गोदावरी देवताओं के पाने योग्य फल (मुक्ति) देती है। केशव कहते हैं कि यह गोदावरी अपने जीवन का हरण करने वाले का सब दुःख हर लेती है।
- पुस्तक : केशव कौमुदी (पृष्ठ 171)
- संपादक : लाला भगवानदीन
- रचनाकार : केशवदास
- प्रकाशन : राम नारायण लाल, इलाहाबाद
- संस्करण : 1947
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