असरीरहं संधाणु किउ सो धाणुक्कु णिरुतु।
सिवततिं जिं संधियउ सो अच्छइ णिच्चिंतु॥
हलि सहि काइं करइ सो दप्पणु, जहिं पडिबिंबु ण दीसइ अप्पणु।
धंधवालु मो जगु पडिहासइ, घरि अच्छंतु ण घरवइ दीसइ॥
जसु जीवंतहं मणु मुवउ पंचेंदियहं समाणु।
सो जाणिज्जइ मोक्कलउ लद्धउ पहु णिव्वाणु॥
किं किज्जइ बहु अक्खरहं जे कालि खउ जंति।
जेम अणक्खरु संतु मुणि तव वढ मोक्खु कहंति॥
छहदंसणगंथि बहुल अवरुप्परु गज्जंति।
जं कारणु तं इक्कु पर विवरेस जाणंति॥
सिद्धंतपुराणहिं वेय वढ बुज्झतहं णउ भंति।
आणंदेण व जाम गउ ता वढ सिद्ध कहंति॥
सिवसत्तिहिं मेलावडा इहु पसुवाहमि होइ।
भिण्णिय सत्ति सिवेण सिहु विरला बुज्झइ कोइ॥
भिण्णउ जेहिं ण जाणियउ णियदेहहं परमत्थु।
सो अधउ अवरहं अंधयहं किम दरिसावइ पंथु॥
जोइय भिण्णउ झाय तुहुं देहहं ते अप्पाणु।
जइ देहु वि अप्पउ मुणहि ण वि पावहि णिव्वाणु॥
छत्तु वि पाइ सुगुरुवहा सयलकालसंतावि।
णियदेहडइ वसंतयहं पाहण वाडि वहाइ॥
जिसने अशरीरीका संधान किया, वही सच्चा धनुर्धारी है। चित्त को एकाग्र करके जिसने शिवत्व को साध लिया, वही स्थायी सत्य है।
अरी सखी! भला ऐसे दर्पण का क्या करें जिसमें आत्मा का प्रतिबिंब न दिखे? मुझे तो यह जगत बहावरे सरीखा दिखता है, स्वामी घर में होते हुए भी उसके दर्शन नहीं होते।
जिसके जीते-जी पाँच इंद्रियों सहित मन मर गया, उसको मुक्त ही जानो। उसने निर्वाणपथ प्राप्त कर लिया।
हे वत्स! जो थोड़े ही समय में नष्ट हो जाते हैं—ऐसे अक्षरों से तुम्हें क्या मतलब है? मुनि तो जब अनक्षर हो जाते हैं, तभी मोक्ष पाते हैं।
षट्दर्शन के ग्रन्थ एक-दूसरे पर बहुत गरजते हैं, उन सबसे परे मोक्ष का जो कारण है, उसे तो कोई विरले ही जानते हैं।
हे वत्स! तू सिद्धांत को तथा पुराण को जान, उसके जानने से भ्रांति नहीं रहती। हे वत्स! जो आनंदस्वरूप में जम गए, वे सिद्ध कहलाते हैं।
इस लोक में शिव और शक्ति का मिलन तो पशुओं में भी होता है, परंतु शिव से भिन्न शक्ति वाले शिव को तो कोई विरला ही पहचानता है।
जिसने देह से भिन्न निज परमार्थ-तत्व को नहीं जाना, वह अंधा दूसरे अंधे को मुक्तिपथ कैसे दिखलाएगा?
हे योगी। तुम देह से भिन्न आत्मा का ध्यान करो। यदि देह को अपना मानोगे तो तुम निर्वाण नहीं पा सकोगे।
हे जीव! गुरु की महान छत्रछाया पाकर भी तू सकल काल संताप को ही प्राप्त हुआ। परमात्मा निजदेह में बसते हुए भी तुमने व्यर्थ ही पत्थर पर पानी बहाया।
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 30)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
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