सुधा तें स्रवत विष, फूल में जमत सूल
sudha ten srwat wish, phool main jamat sool
सुधा तें स्रवत विष, फूल में जमत सूल,
तम उगलित चंदक, भई नई रीति है।
जल जारै अंग, और राग करें सुरभंग,
संपति विपति पारै, बढ़ी विपरीति है॥
महागुन गहै दोषै, औषद हू रोग पोषै,
ऐसें जान, रस माहिं बिरस अनीति है।
दिनन के फेर मोहिं, तुम मन फेरि ढार्यौ,
अहो घनआनँद, न जानी कैसी बीति है॥
प्रिय सुजान, जिस प्रकार अमृत से विष टपके, फूल में काँटा जमे, चंद्रमा से अंधकार फैले तो यह नई रीति मानी जाएगी, जिस प्रकार जल से शरीर जलने लगे, राग गाने में स्वर बिगड़ने लगे, संपत्ति विपत्ति डालने लगे तो अत्यंत विपरीत रीति समझी जाएगी और जिस प्रकार महागुण दोष को ग्रहण करे, औषध से रोग की पुष्टि हो तो ऐसा होना अन्यायपूर्ण रीति कही जाएगी उसी प्रकार आपका प्रेम में अप्रेम (अननुकूलता) दिखलाना भी है। भाग्य के फेर का ही परिणाम है कि आपने अपना मन मुझसे फेर लिया। अनुकूल करने के अनंतर अब प्रतिकूल कर लिया। हे आनंद के बादल, आप यह नहीं जानते कि ऐसा करने से मुझ पर क्या बीतेगी। हो सकता है कि यदि वैसा जान लेते तो कदाचित् ऐसा न करते।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 218)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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